UP Assembly Election: धर्म सिंह सैनी के साथ स्वामी प्रसाद मोर्या और दारा सिंह चौहान की 'टर्नकोट' वाली राजनीति!

स्वामी प्रसाद मोर्या और दारा सिंह चौहान की ‘टर्नकोट’ वाली राजनीति!

Update: 2022-01-13 12:10 GMT
शंभूनाथ शुक्ल।
स्वामी प्रसाद मोर्या (Swami Prasad Maurya), दारा सिंह चौहान (Dara Singh Chauhan) और धर्म सिंह सैनी (Dharam Singh Saini) 'टर्नकोट' हो गए. ब्रिटिश संसद में टर्नकोट कहते थे, दल-बदलुओं को. दरअसल विंस्टन चर्चिल पहले उदारवादी लेबर पार्टी के साथ थे और फिर अचानक अनुदारवादी दल कंजर्वेटिव पार्टी के साथ हो गए. अगले रोज़ पार्लियामेंट में जब वे पहुंचे तो देखा लेबर पार्टी के सांसद अपने कोट को पलट कर पहने हुए हैं. यह देख कर चर्चिल लज्जा से गड़ गए.
दरअसल यह उन सांसदों द्वारा चर्चिल को दलबदलू बताने का एक तरीक़ा था. तब से यह शब्द बहुत चर्चित हुआ. भारत में इसे आयाराम-गयाराम कहते हैं. लेकिन यह बता कर कोई स्वामी, दारा और धर्म सिंह सैनी को लज्जित करने का मामला नहीं है, बल्कि बीजेपी द्वारा ऐसे तत्त्वों को बढ़ावा देना और फिर साथ ले कर न चलना भी एक अहम कारक है. सच तो यह है कि बीजेपी को सोचना चाहिए कि मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के आक्रामक प्रचार और धुआंधार भाषणों के बाद भी उत्तर प्रदेश बीजेपी में भगदड़ क्यों मची है, यह अहम प्रश्न है. अब या तो बीजेपी के अंदर फूट है, अथवा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ अपने साथियों को साथ ले कर चलने में सक्षम नहीं हैं. 2017 में जिस बीजेपी ने हर छोटे-मोटे नेता, जातीय समूहों के मुखिया और दूसरे दलों के असंतुष्ट विधायकों को अपने साथ लिया था, यही रणनीति अब समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव अपना रहे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी जैसे बीजेपी नेताओं का योगी कैबिनेट से इस्तीफ़ा और अखिलेश यादव से बग़लगिरी तो यही दर्शाती है.
जातियों के रॉबिन हुड
उत्तर प्रदेश कोई ऐसा स्टेट नहीं है, जो वहां पर हार-जीत कोई मायने न रखती हो. यहां की विधानसभा में 403 विधायक हैं और लोकसभा की 80 सीटें उत्तर प्रदेश से चुनी जाती हैं. यह एक ऐसा स्टेट भी है, जहां हर जाति कुछ एक क्षेत्रों में किसी को भी हरा या जिता सकती है. इसलिए "ठोक दो" वाली कार्य-शैली यहां बेमानी हो जाती है. इस राज्य में अपराधी की भी जाति होती है और वह अपनी जाति का हीरो या रॉबिनहुड होता है. ख़ुद मुख्यमंत्री भी अपनी जाति के हीरो हैं. भले वे गेरुआ वस्त्र धारण करें या गोरख पीठ के महंत हों, लेकिन उनका जन्म जिस जाति-विशेष में हुआ है, उसके निर्देशों से इतर कोई भी काम करने में वे झिझकेंगे.
वीपी सिंह ने शुरू किया था 'ठोक दो'
यह बात सबसे पहले समझी थी, 1980 में मुख्यमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने. संयोग से वे भी उसी जाति से आते थे, जिससे योगी. अपने मुख्यमंत्रित्त्व काल में उन्होंने भी "ठोक दो" की राजनीति शुरू की. वह दौर था उत्तर प्रदेश में मध्यवर्त्ती किसान जातियों (यादव, कुर्मी, लोध) और पिछड़ी जातियों (काछी, मल्लाह, नोनिया आदि) का उभार. इन जातियों के अधिकांश लोग बाग़ी बन गए. चूंकि अब सत्ता की मलाई में ये भी अपना हिस्सा चाहते थे इसलिए इन्हें सवर्ण जातियों ने डकैत कहा. लेकिन ये लोग अपने समाज के रॉबिनहुड कहलाए. पूरा मध्य और उत्तर प्रदेश ऐसे बाग़ियों से भरा हुआ था. छविराम यादव, अनार सिंह यादव, फूलन देवी, कुसुमा नाइन, विक्रम मल्लाह, मलखान सिंह आदि. तब मुख्यमंत्री वीपी सिंह पर उनके सजातीय बंधुओं का दबाव था और ठोक दो रणनीति के तहत कुछ अति पिछड़े ज़िलों में क़ानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ऐसे पुलिस अधिकारियों को कमान सौंपी गई, जो ठोक देने में सिद्ध हस्त थे. हमीरपुर, जालौन, इटावा, एटा, फ़र्रुख़ाबाद, मैनपुरी में एसएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी नियुक्त हुए. पहले इन ज़िलों में एसपी ही सर्वोच्च होता था.
तेज-तर्रार पुलिस अधिकारी विक्रम सिंह को हमीरपुर से हटा कर एटा भेजा गया. एटा जनता पार्टी में सहकारिता मंत्री रह चुके मुलायम सिंह यादव का गढ़ था. नवाब सिंह यादव और लटूरी सिंह जैसे बाहुबली यादव नेताओं का दबदबा था. वहां पर छविराम यादव और अनार सिंह यादव को निशाने पर लिए जाने की योजना बनी. मज़े की बात कि इन ज़िलों में ठाकुर बनाम यादव राजनीति भी खूब थी. फ़रवरी 1982 में संतोषा नाम के एक ठाकुर गिरोह ने मैनपुरी के जसराना थाने के गांव देवली में 22 हरिजनों (इन्हें अब दलित कहा जाता है) को मार दिया. इससे वीपी सिंह की ख़ूब थू-थू हुई. उस समय के केंद्रीय गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह स्वयं देवली गए थे. इसके कुछ ही दिनों बाद शिकोहाबाद के समीप मक्खन पुर स्टेशन के पास के एक गांव में अनार सिंह यादव ने दस हरिजनों को भून दिया. अनार सिंह और छविराम दोनों ही पुलिस मुठभेड़ में मारे गए. इन दोनों डकैतों को पुलिस ने मार गिराया. इससे यह संदेश गया कि वीपी सिंह प्रदेश से डाकुओं को समाप्त कर देंगे. किंतु न तो संतोषा पकड़ा गया न फूलन देवी के साथ बलात्कार के आरोपी लालाराम और श्रीराम. ये सभी ठाकुर बिरादरी से थे. इसी बीच फूलन देवी ने कानपुर के बेहमई गांव में 22 ठाकुर मार दिए.
एलीट राजनीति का ख़ात्मा
वीपी सिंह राजनीति और अपराध के क्षेत्र में सवर्ण जातियों के प्रभाव और मध्यवर्त्ती तथा पिछड़ी, दलित जातियों के इस उभार को देख व समझ रहे थे. उनके सजातीय उन पर इन जातियों का दबाने का प्रेशर बनाते. उधर पुलिस फ़ोर्स में भी अगड़ी जातियों का बोलबाला था. यही कारण है, मुठभेड़ में मारे गए डाकू अधिकतर इन छोटी कही जाने वाली जातियों से थे. इलाहाबाद के समीप शंकरगढ़ के जंगलों में डकैतों ने वीपी सिंह के भाई की हत्या कर दी. वीपी सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. इसके बाद वे केंद्र में आए. प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बग़ावत कर वे कांग्रेस से अलग हुए. एक अलग मोर्चा बनाया तथा ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीति कर रहे दलों व नेताओं से गठजोड़ किया तथा प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. तब उन्होंने इन्हीं पिछड़ी कही जाने वाली जातियों को अपने पाले में लाने के लिए मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किया. अचानक अपनी जाति के रॉबिनहुड वीपी सिंह ठाकुरों की नज़र में विभीषण बन गए. वे पिछड़ी जातियों के भी नायक नहीं बन सके, क्योंकि तब तक पिछड़ी जातियों के राजनेताओं के हाथ में ही राजनीति की कमान थी. वे क्यों अपना जनाधार खिसकने देते.
शाह का कमाल था यूपी में कमल को खिलाना
2017 के विधानसभा चुनाव के चार साल पहले से ही अमित शाह ने केंद्र में बीजेपी की सरकार बनवाने के लिए अमित शाह ने यूपी में पार्टी के प्रचार की बागडोर संभाल ली थी. योगी आदित्यनाथ को उन्होंने उग्र हिंदूवाद को उभारने के लिए लगाया. किंतु प्रदेश की पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियों के नायकों को साधने का काम अमित शाह ने अपने हाथ में रखा. इसके लिए कल्याण सिंह की मदद ली गई. यह कल्याण सिंह का ही कमाल था कि पिछड़ी जातियों के तमाम दिग्गज बीजेपी से जुड़ गए. 2017 में बीजेपी पूरी तरह पिछड़ों और अति पिछड़ों की पार्टी थी. पिछड़ों को लाने के लिए ही लक्ष्मीकांत वाजपेयी के स्थान पर केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी की कमान दी गई. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव के समय लक्ष्मीकांत वाजपेयी प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष थे.
विधानसभा चुनाव में आशातीत सफलता के बाद योगी आदित्य नाथ मुख्यमंत्री तो बन गए पर वे सभी को संभाल कर नहीं चल पाए. एक मठ के महंत और एक मुख्यमंत्री में अंतर को वे समझने में नाकाम रहे. इसीलिए उन्होंने सारा ध्यान मंदिर निर्माण और श्रद्धालु हिंदुओं को बढ़ावा देने में लगाया. वे इन पिछड़ी जातियों को सम्मान देने में पिछड़ गए. साथ ही उनकी महत्त्वाकांक्षा ने केंद्र से उनका टकराव भी पैदा किया. अब ऐन चुनाव के कुछ पूर्व इस तरह दो मंत्रियों का इस्तीफ़ा उनके लिए संकट की वज़ह तो बनेगा ही.
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