शिमला में बर्फ के कुएं की असमय मौत
यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि अब ‘पहाड़ों की रानी हो गई सियानी’…
यह सच्चाई है कि अंग्रेजों ने शहर बसाने से पहले सड़कों, पुलों व जल की व्यवस्था की, वहीं आजादी के उपरांत विभिन्न सरकारों ने बिना सार्वजनिक सुविधाओं के शहर को बेतरतीब ढंग से बसाया। अब शिमला की सड़कें वाहनों से सटी नज़र आती हैं। जो शहर कभी दौड़ता था, अब सड़कों पर रेंगता हुआ नज़र आता है। यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि अब 'पहाड़ों की रानी हो गई सियानी'…
शिमला शहर से मेरा नाता पचास वर्षों का है। मैंने शहर को बदलते व बिगड़ते हुए देखा है। पैदल, रिक्शा, साइकिल, गाड़ी तथा अब हजारों गाडि़यों को मुख्य तथा संकरे रास्तों पर रेंगते हुए देख रहा हूं। पैदल चलने वालों की नस्ल अब लगभग डायनासोर की माफिक लुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। अब हर शख्स कंकरीट के जंगल में रहने को मजबूर तथा धुआं छोड़ने वाली गाडि़यों में लटक कर जीने की होड़ में लगा नज़र आता है। एक वक्त का धरोहर शहर अपना वजूद खोने लगा है। शिमला शहर की स्थापना की दो शताब्दियां होने वाली हैं। इसे वर्ष 1864 में ज्यादा अहमियत तब मिली, जब यह स्थान हिंदुस्तान की ग्रीष्मकालीन राजधानी बना। 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद पंजाब व फिर हिमाचल का हिस्सा बना। आजादी के उपरांत के 75 वर्षों में शहर ने अपनी अनेक धरोहरों को खोया है। इनमें अनेक ऐसे भवन हैं, जिन्हें शहरवासियों ने अपनी आंखों के सामने तबाह होते देखा है। शिमला की ऐतिहासिकता से जुड़े शेरनुमा सार्वजनिक नल, ब्रिटिश कालीन पत्र पेटियां, पैदल पथ, हवाघर अपना वजूद खो बैठे हैं।
अब स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत सड़कों को चौड़ा करने, पार्किंग स्थलों के निर्माण व पुरातन भवनों के रखरखाव पर बिना सोचे-समझे खर्च किए जा रहे हैं। अंग्रेजों ने शहर का विस्तार सुंदर स्थलों पर किया, जबकि लोकतांत्रिक सरकारों ने शहर का विस्तार व सौंदर्यकरण नालों, ढलानों पर किया है। इनमें माल रोड पर कंबरमियर नाले पर बना खेल परिसर, उच्च न्यायालय की पार्किंग व अधिवक्ताओं के कक्ष, लिफ्ट की पार्किंग और वर्तमान में इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज के नए भवन, बहुमंजिला पार्किंग व व्यावसायिक परिसर का निर्माण नाले पर हो रहा है। अस्सी के दशक में स्नोडन के नाले के एक छोर पर सुरक्षित ढलान पर बने बर्फ के कुएं में शरद ऋतु में सहेज कर रखी बर्फ से बनी कुल्फी का आनंद हमने लिया है। अंग्रेजों ने अपनी तथा शहरवासियों की सुविधा के लिए जाखू की पहाड़ी पर तीन बर्फ के कुओं का निर्माण करवाया था। इसके अलावा कुफरी तथा वाइल्ड फ्लावर हॉल के प्रांगण में भी दो कुएं बने थे। शिमला में एक केंद्रीय विद्यालय जहां कभी बटलर स्कूल होता था, के प्रांगण में एक कुआं था, जो विद्यालय के विस्तार की भेंट चढ़ गया। एक जाखू मंदिर के समीप था, जो आज कूड़े-कचरे से सना है तथा तीसरा स्नोडन अस्पताल के समीप। यह बर्फ का कुआं शिमला शहर की ऐतिहासिकता व धरोहर को संजोए था। हर आने-जाने वाले की निगाह इस पर पड़ती थी। अक्तूबर 2021 को यह बर्फ का कुआं विस्तारीकरण की भेंट चढ़ गया।
आधुनिक दैत्य (जेसीबी), जो यहां खुदाई कर एक बहुउद्देश्यीय पार्किंग व मॉल के निर्माण में लगी थी, के लोहेनुमा पंजों की भेंट चढ़ गया। लगभग दो माह तो यह हवा में लटका रहा। निर्माणकर्ता तथा सरकारी एजेंसियां तो इस ताक में थीं कि यह अपनी मौत खुद ही मर जाएगा। लेकिन अंग्रेजों द्वारा इसके निर्माण में लगाई चूने-सुरखी ने इसे भरी बरसात में भी मजबूती से जकड़े रखा। यूं कहें कि यह कुछ रोज वेंटिलेटर पर आखिरी सांसें गिनता रहा। अंततः लोहे के पंजों ने इसके वजूद को खत्म कर दिया। यह शिमला की शान ही नहीं, बल्कि पहचान थी। आज के नीति निर्धारकों एवं योजनाकारों के लिए तो यह महज़ एक कुआं था, लेकिन उन लोगों की स्मृतियों में यह एक ऐसी धरोहर थी जिन्होंने इसके गर्भ में रखी बर्फ से जमी कुल्फी का आनंद गर्मियों में लिया था। अब तो इस पर रोने वाले भी नज़र नहीं आते। हाथों व कानों में मोबाइल लगाई पीढ़ी तो इस धरोहर की उपयोगिता व इतिहास से बेखबर नज़र आती है। शिमला में पहला भवन कनेडी ने वर्ष 1822 में बनाया था। इसके उपरांत शिमला में बस्तियां बनने का सिलसिला आरंभ हुआ। अनेक खूबसूरत इमारतें बनीं। लेकिन शहर का दुर्भाग्य कहो कि अनेक इमारतें आग की भेंट चढ़ चुकी हैं। इनमें फोरन आफिस (हिमाचल सचिवालय), पीटरहॉफ, स्नोडन, कोस्टोफिन, कनेडी हाऊस, मिंटो कोर्ट तथा वॉकर अस्पताल प्रमुख हैं। वर्ष 2002 में शिमला के धरोहर क्षेत्र में 38 व इसकी परिधि से बाहर 59 भवनों, स्थलों व कब्रिस्तानों को धरोहर सूची में अधिसूचित किया था। विडंबना ही कहें कि इसमें स्नोडन परिसर में स्थित बर्फ का कुआं स्थान न पा सका। अब शहर को नया रूप देने के लिए स्मार्ट सिटी अभियान चलाया जा रहा है। इस परियोजना के तहत सड़कों को चौड़ा करने, पार्किंग व्यवस्था, पैदल पथों के बनाने पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। पहाड़ों की रानी अब बूढ़ी हो चुकी है।
यह खूबसूरत शहर से कंक्रीट का शहर बन गया है। कभी भवन दो या तीन मंजिला होते थे। अब तो ढलानों पर सात-आठ मंजिले भवन नज़र आते हैं। हाल ही में शिमला के उपनगर कच्ची घाटी में एक सात मंजिला घर ताश के पत्तों की तरह ढह गया। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि अब यह धरा और भार सहन करने के काबिल नहीं रही। यह सच्चाई है कि अंग्रेजों ने शहर बसाने से पहले सड़कों, पुलों व जल की व्यवस्था की, वहीं आजादी के उपरांत विभिन्न सरकारों ने बिना सार्वजनिक सुविधाओं के शहर को बेतरतीब ढंग से बसाया। अब शिमला की सड़कें वाहनों से सटी नज़र आती हैं। जो शहर कभी दौड़ता था, अब सड़कों पर रेंगता हुआ नज़र आता है। यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि अब 'पहाड़ों की रानी हो गई सियानी'। पिछले वर्ष कोविड काल में स्कैंडल प्वाइंट पर स्थित 55 वर्षीय पुस्तकालय को विकास के नाम पर भेंट चढ़ते देखा है। इस वर्ष बर्फ का कुआं विकास के नाम पर गहराइयों में समा गया। अफसोस कि कोई होता जो इसके वजूद को बचाने में मदद करता। यह लावारिस था क्योंकि धरोहर सूची का हिस्सा न था। सच है कि देश रामभरोसे हो गया है। बर्फ के कुएं की मौत पर एक आंसू तक न गिरा। एक तर्क मिला, अब जब बर्फ से कुल्फी ही नहीं जमती तो कुएं की क्या जरूरत। आशंका है कि हर धरोहर के साथ ऐसा ही होगा।
विनोद भारद्वाज, लेखक शिमला से हैं