Uniform Civil Code: राष्ट्रीय एकता के भाव को मजबूती प्रदान करेगी समान नागरिक संहिता
देश में सभी समुदायों के लिए तलाक, विवाह की आयु, उत्तराधिकार, गुजारा भत्ता जैसे मामलों पर एक समान नियमों की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की तैयारी से समान नागरिक संहिता का विषय फिर सतह पर आ गया है
संजय गुप्त।
देश में सभी समुदायों के लिए तलाक, विवाह की आयु, उत्तराधिकार, गुजारा भत्ता जैसे मामलों पर एक समान नियमों की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की तैयारी से समान नागरिक संहिता का विषय फिर सतह पर आ गया है। उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार की ओर से समान नागरिक संहिता निर्माण के लिए समिति के गठन की घोषणा से भी राजनीतिक हलचल और इस मसले पर विमर्श बढ़ा है। यह बढऩा भी चाहिए, क्योंकि ऐसी संहिता का निर्माण समय की मांग है। ध्यान रहे कि कई मौकों पर विभिन्न उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय भी समान नागरिक संहिता के निर्माण की जरूरत जता चुके हैं। एक अन्य तथ्य यह भी है कि गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर लंबी बहस की थी, लेकिन कोई एक राय न बन पाने के कारण इस विषय को नीति निर्देशक तत्वों में इस अपेक्षा के साथ शामिल किया गया कि राज्य यानी भारतीय शासन इसे लागू करने की दिशा में आगे बढ़ेगा। इस दिशा में आगे बढऩे के बजाय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1955 में हिंदू कोड बिल लेकर आ गए। इसके तहत हिंदुओं, सिखों, बौद्धों के विवाह, उत्तराधिकार संबंधी रीति-रिवाजों को संहिताबद्ध किया गया। हालांकि अनेक हिंदू संगठनों और नेताओं की ओर से यह कहा गया कि इससे संयुक्त हिंदू परिवार टूट जाएंगे और महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देना संभव नहीं, लेकिन नेहरू अपने इरादे से डिगे नहीं।
दुर्भाग्य से नेहरू ऐसा कोई साहस समान नागरिक संहिता को लेकर नहीं दिखा सके। इसका मूल कारण रहा अल्पसंख्यकों और खासकर मुस्लिम समुदाय का तुष्टीकरण। धीरे-धीरे कांग्रेस के साथ अन्य दल भी इस दुष्प्रचार में जुट गए कि समान नागरिक संहिता का निर्माण विभिन्न समुदायों के रीति-रिवाजों में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा। कुछ तो यह कुतर्क करने लगे कि इससे अल्पसंख्यकों को मिले संविधान प्रदत्त अधिकारों का हनन होगा। ऐसे कुतर्क देने वाले यह भूल जाते हैं कि जिस संविधान की दुहाई देकर यह कहा जाता है कि कानून की नजर में सब बराबर हैं, उसी संविधान में समान नागरिक संहिता के निर्माण की अपेक्षा व्यक्त की गई है।
यदि समान नागरिक संहिता के निर्माण का सपना अधूरा है तो इसके लिए वोट बैंक की वह सस्ती राजनीति भी जिम्मेदार है, जिसकी आड़ में मुस्लिम समुदाय को डराया जाता है। यह राजनीति यह देखने से इन्कार करती है कि हिंदू कोड बिल ने किस तरह हिंदू समाज में कई कुरीतियों को खत्म करने और महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने का काम किया। इससे इन्कार नहीं कि देश के कुछ हिस्सों और विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों के लोग सामाजिक सुधारों को पूरी तरह अपना नहीं सके हैं, लेकिन समय के साथ बदलाव आ रहा है। ऐसे में यह आवश्यक है कि तलाक, विवाह की आयु, उत्तराधिकार, विरासत आदि मामलों में सभी समुदायों को एक समान नियमों के दायरे में लाया जाए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो देश में सामाजिक विकास के अलग-अलग स्वरूप दिखाई देते रहेंगे। इसलिए और भी, क्योंकि कुछ समुदाय अपने अलग स्वरूप को बनाए रखने पर जरूरत से ज्यादा जोर देते हैं। इसका ताजा उदाहरण है हिजाब विवाद।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने साफ तौर पर यह कहा है कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं, फिर भी कई मुस्लिम संगठन इस फैसले को स्वीकार करने को तैयार नहीं। कई राजनीतिक दल ऐसे संगठनों का साथ देकर मुस्लिम समाज को इस मानसिकता से ग्रस्त करने का ही काम कर रहे हैं कि उनके लिए शरीयत आधारित विशेष नियम होने चाहिए। इसी शरीयत की आड़ लेकर तीन तलाक का समर्थन और लड़कियों की विवाह योग्य आयु बढ़ाने की पहल का विरोध किया गया। शरीयत के नाम पर ही चार शादियों, हलाला आदि का बचाव किया जाता है। यह तो अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को खत्म कर और मोदी सरकार ने उस पर कानून बनाकर मुस्लिम समाज की महिलाओं को एक बड़ी राहत दी, अन्यथा यह कुप्रथा भी जारी रहती। आखिर भारत का मुस्लिम समाज इसकी अनदेखी क्यों करता है कि लाखों मुसलमान अमेरिका, कनाडा समेत यूरोप के देशों में खुशी-खुशी रहते हैं, जहां समान नागरिक संहिता लागू है? इनमें भारतीय मुस्लिम भी हैं। इसके बाद भी जब भारत में समान नागरिक संहिता की बात होती है तो वे विरोध में खड़े हो जाते हैं। ऐसा करके वे यही संदेश देते हैं कि वे अन्य समुदायों से अलग हैं। अपने ऐसे आचरण से वे खुद को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग करने का ही काम करते हैं।
राष्ट्रीय एकता के भाव को बल देने के लिए यह आवश्यक है कि सभी समुदायों के लिए विवाह, तलाक, विरासत और गोद लेने संबंधी कानून एक जैसे हों। कोई भी देश अलग-अलग समाजों का एक समूह होता है। अगर ये समूह अलग-अलग नियमों से संचालित होंगे तो न उनमें एकता का भाव स्थापित होगा और न ही वे देश को मजबूत बनाने का काम कर सकेंगे। जैसे सभी समुदायों के लिए एक समान आपराधिक कानून किसी देश की मजबूती का प्रतिबिंब होते हैं, वैसे ही समान नागरिक संहिता भी उसके एकता भाव की कसौटी होती है। समाज का राष्ट्र के प्रति जो उत्तरदायित्व होता है, उसकी पूर्ति में अलग-अलग समुदायों के पर्सनल ला बाधक ही बनते हैं। विकसित और कई विकासशील देशों में हर समुदाय के लिए एक जैसे कानून हैं और उनसे किसी को कोई समस्या नहीं।
यह आश्चर्य की बात है कि कई मुस्लिम देशों ने जिन सुधारों को अपना लिया है, उनके प्रति भी अपने देश के मुस्लिम समाज में अनिच्छा का भाव दिखता है। खुद को सेक्युलर बताने वाले कई राजनीतिक दल इस अनिच्छा को हवा देने का काम करते हैं। समान नागरिक संहिता एक देश-एक कानून की अवधारणा को साकार करने वाली व्यवस्था है। राजनीतिक वर्ग के साथ विभिन्न समुदायों को भी यह समझना होगा कि समय के साथ आगे बढऩे की आवश्यकता होती है। समान नागरिक संहिता के जरिये इस आवश्यकता की पूर्ति कर राष्ट्रीय एकता के भाव को बल दिया जाना चाहिए।