समान नागरिक संहिता और 2024 के चुनाव: आखिर कितना प्रभावी रहेगा ये मुद्दा?

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हाल ही में सम्पन्न विधानसभा के चुनाव में जब राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की घोषणा की तो लग रहा था

Update: 2022-05-12 17:19 GMT

जयसिंह रावत

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हाल ही में सम्पन्न विधानसभा के चुनाव में जब राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की घोषणा की तो लग रहा था कि उन्होंने गलतफहमी में मतदाताओं को रिझाने के लिए यह घोषणा कर डाली। लेकिन चुनाव के बाद भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जब एक के बाद एक यही राग अलापना शुरू किया तो अब लग रहा है कि यह घोषणा संविधान के बारे में अल्पज्ञान की उपज नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा ही है जो कि 2024 के आम चुनाव के लिये तैयार की गई है। मोदी सरकार के कार्यकाल में जनसंघ से लेकर भाजपा तक के मूल मुद्दों में अब केवल यही मुद्दा हल करने के लिए शेष रह गया है।
भारत की सत्ता में पूरी तरह जड़ जमाने के बाद मोदी-शाह द्वय ने जनसंघ से लेकर भाजपा तक के मूल मुद्दों में शामिल धारा 370 हटा दी। अदालत से ही सही मगर राम मंदिर का निर्माण भी शुरू करा दिया। इस बीच तीन तलाक और नागरिकता कानून भी पास करा दिए। इसलिए मोदी सरकार के पास अब भाजपा का समान नागरिक संहिता के अलावा कोई अन्य प्रमुख मुद्दा शेष नहीं रह गया है।
जाहिर है अब ये लगता है कि जिस तरह जवाहर लाल नेहरू ने 1951-52 का आम चुनाव हिन्दू नागरिक संहिता के नाम पर लड़ा था, उसी तरह नरेन्द्र मोदी भी एक देश एक कानून के नारे के साथ समान नागरिक संहिता के नाम पर अगला चुनाव लड़ना चाहते हैं।
देश में महंगाई, बेरोजगारी और देश की आर्थिकी जैसे कई मुद्दे वर्तमान सरकार के खिलाफ जा सकते हैं, इसलिए इन मुद्दों को लेकर विपक्ष के इरादों को रौंदने के लिए समान नागरिक संहिता से बड़ा बुल्डोजर कोई और नहीं हो सकता। चूंकि हिन्दुओं के साथ ही सिख, जैन और बौद्धों के लिए नागरिक संहिता 1955 और 1956 में ही बन चुकी है। अब केवल मुसलमानों का 1937 का पर्सनल लॉ शेष है जबकि इसमें अन्य प्रावधानों के साथ ही मुसलमान पुरुष को 4 तक शादियां करने की छूट है।
विविधता में एकता समाये भारत में एक देश एक कानून की बात करना तो अच्छा लगता है मगर यह व्यावहारिक नहीं है। सरकार ने भले ही अनुच्छेद 370 का 35 ए समाप्त कर दिया मगर अभी भी अनुच्छेद 371 के विभिन्न स्वरूप मौजूद है। इसी तरह जनजातियों को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 2 की उपधारा 2 से बाहर किया गया है। अब सवाल उठता है कि अगर मुसलमानों का 1937 का वैयक्तिक कानून बदल कर हिन्दू विवाह अधिनियम के समरूप किया जाता है तो क्या सरकार जनजातियों के लिए संविधान से मिली उनकी परम्पराओं की गारंटी वापस ले सकेगी?
समान नागरिक संहिता के लिए अक्सर गोवा राज्य का उदाहरण दिया जाता रहा है। जबकि हकीकत यह है कि वहां यह व्यवस्था पिछले 155 सालों से लागू है। गोवा के भारत संघ में विलय के बाद भारत की संसद ने इसे जारी रखा है। यह व्यवस्था गोवा के साथ ही दमन और दियू द्वीप समूहों में भी लागू है।
चूंकि गोवा 450 सालों तक पुर्तगाल का उपनिवेश रहा है और वहां लागू समान नागरिक संहिता वाला पुर्तगाली कानून सन् 1867 से ही '' द पोर्टगीज सिविल कोड 1867'' के नाम से लागू था। भारत की आजादी के काफी समय बाद 19 दिसंबर 1961 को, भारतीय सेना ने गोवा, दमन, दीव के भारतीय संघ में विलय के लिए ऑपरेशन विजय के साथ सैन्य संचालन किया और इसके परिणाम स्वरूप गोवा, दमन और दीव भारत का एक केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बना।
30 मई 1987 को इस केंद्र शासित प्रदेश को विभाजित कर गोवा भारत का पच्चीसवां राज्य बनाया गया। गोवा के अधिग्रहण के साथ ही उसके प्रशासन के लिए भारत की संसद के द्वारा ''द गोवा दमन एंड दियू (प्रशासन) अधिनियम 1962 बना, जिसकी धारा 5 में व्यवस्था दी गयी कि वहां निर्धारित तिथि (अप्वाइंटेड डे) से पूर्व के वे सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक उन्हें सक्षम विधायिका द्वारा निरस्त या संशोधित नहीं किया जाता। प्रकार इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं रही।
वास्तव में नीति निर्देशक तत्वों के तहत एक देश एक कानून, केवल आदर्श राज्य (देश) की अवधारणा मात्र नहीं बल्कि यह समानता के मौलिक अधिकार का मामला भी है। संविधान में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक समानता के मौलिक अधिकार की विभिन्न परिस्थितियों का विवरण दिया गया है। इन प्रावधानों में कहा गया है कि भारत 'राज्य' क्षेत्र में राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन इन्हीं मौलिक अधिकारों में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार भी है जिसका वर्णन अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में किया गया है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। यह अधिकार नागरिकों एवं गैर-नागरिकों के लिये भी उपलब्ध है। देखा जाए तो नागरिक संहिता के मार्ग में धर्म की स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों में टकराव ही असली बाधा है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद को अन्य प्रावधानों के साथ मौलिक अधिकारों में विशेष बहुमत से संशोधन का अधिकार तो है मगर संविधान की मूल भावना में संशोधन का अधिकार नहीं है।
अगस्त 2018 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। इसने यह भी कहा था कि ''धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।''
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी संविधान निर्माण के समय कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। इसलिए इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में रख दिया गया।
भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। मुस्लिमों का कानून शरीयत पर आधारित है। हिन्दुओं के आधुनिक सिविल कोड 1955 और 56 में बन गए जिनमें जैन, सिख और बौद्ध भी शामिल किए गए हैं।

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