नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन ने आंकड़े जारी किए हैं कि भारत में रोज़गार की कितनी पतली और दयनीय स्थिति है। रोज़गार नहीं है, तो बेरोज़गारी स्पष्ट है। इस स्थिति के मद्देनजर देश विकास कैसे कर सकता है? आर्थिक विकास के जो दावे किए जाते रहे हैं, वे सिर्फ औद्योगिक जमात तक सीमित हैं। आम आदमी के प्रति उनके सरोकार नहीं हैं। एनएसएसओ के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनमें हम अप्रैल-जून, 2021 की तिमाही का जि़क्र करेंगे। ये आंकड़े युवा शक्ति वाले भारत का ढिंढोरा पीटने वालों को सवालिया साबित करते हैं। रोज़गार सबसे बुनियादी और अहम समस्या है। रोटी, कपड़ा, घर, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि रोज़गार से ही जुड़े हैं। सर्वे में 15-29 आयु-वर्ग के युवाओं को शामिल किया गया है। अप्रैल-जून, 2021 की तिमाही के दौरान इस आयु-वर्ग में बेरोज़गारी दर करीब 25.5 फीसदी थी। जब कोरोना वायरस की पहली मार हम पर पड़ी थी, तब तो यह दर करीब 35 फीसदी थी। सर्वेक्षण के मुताबिक, देश में सबसे ज्यादा बेरोज़गारी करीब 47 फीसदी केरल में रही है। उसके बाद करीब 46 फीसदी बेरोज़गारी दर के साथ जम्मू-कश्मीर का स्थान था।
छत्तीसगढ़ में बेरोज़गारी 40 फीसदी से ज्यादा थी। उत्तराखंड में करीब 36.6, राजस्थान में 35.2, तमिलनाडु में 28.5, तेलंगाना में 27.4 और उप्र में 24.7 फीसदी थी। महिलाओं में बेरोज़गारी दर और भी भयावह रही है। जम्मू-कश्मीर में 67.3 फीसदी और केरल में 59.2 फीसदी बेरोज़गारी दर महिलाओं में पाई गई है। संभव है कि अब तक इस दर में गिरावट आई होगी, लेकिन आज भी केंद्र सरकार के तहत करीब 8.72 लाख नौकरियां खाली पड़ी हैं। यदि केंद्र और राज्य सरकारों के आंकड़े मिला लिए जाएं, तो 60 लाख से अधिक पद रिक्त पड़े हैं। सरकारें इन रिक्तियों पर भर्ती क्यों नहीं करतीं? ये पद तो स्वीकृत होंगे और उनका बजट भी तय हो चुका होगा, फिर भी साल-दर-साल बेरोज़गारी क्यों बढ़ती जा रही है? हालिया चुनाव तो सम्पन्न हो चुके, जनादेश भी घोषित किए जा चुके हैं। पंजाब में मुख्यमंत्री और कैबिनेट ने शपथ भी ग्रहण कर ली है। यही नहीं, कैबिनेट ने एक माह के भीतर 25,000 पदों पर भर्तियां करने का फैसला भी ले लिया है। शीघ्र ही इन नौकरियों को सार्वजनिक रूप से विज्ञापित कर दिया जाएगा। करीब 3 लाख करोड़ रुपए का कर्ज़ पंजाब पर है। इन नौकरियों के लिए बजट भी तय करना है। फिर भी मान सरकार ने अपना चुनावी वायदा पूरा करने की कोशिश की है। देश में 36 राज्य और संघशासित प्रदेश हैं। यदि एक राज्य औसतन 20,000 नौकरियां निकाले, तो 7 लाख से ज्यादा रिक्तियां तुरंत भरी जा सकती हैं।
जहां चुनाव हुए थे, वहां भी सरकारें बनने की प्रक्रिया इसी सप्ताह समाप्त हो जानी चाहिए। बेशक इन चुनावों में बेरोज़गारी का मुद्दा 'निर्णायक' नहीं बन पाया, लेकिन आने वाले राज्य-चुनावों और अंततः 2024 के आम चुनाव तक बेरोज़गारी सबसे अहम मुद्दा हो सकता है, क्योंकि धीरे-धीरे युवाओं में रोज़गार को लेकर चिंता और आक्रोश बढ़ने लगा है। सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से ही चुनाव कब तक जीते जा सकते हैं? संभव है कि अगली भारत सरकार इसी मुद्दे पर जनादेश के बाद बने! 2014 में मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे। तब उन्होंने 2 करोड़ नौकरियां और रोज़गार प्रति वर्ष मुहैया कराने का वायदा किया था। सरकार अपने करीब 8 साल के कार्यकाल में कितनों को नौकरी दे सकी या रोज़गार का बंदोबस्त किया, इस पर उसे श्वेत-पत्र जारी करना चाहिए। इसे मोदी सरकार तौहीन या सियासी विरोध न समझे। यह सरकार का घोषित दायित्व है। यदि दायित्व अधूरा रहा है, तो उसकी व्याख्या भी श्वेत-पत्र में की जानी चाहिए। दरअसल अभी तक रोज़गार की जो सरकारी परिभाषा है, वह वाहियात और अव्यावहारिक है। यह परिभाषा आज की आवश्यकताओं और आर्थिक विकास के मद्देनजर तय की जानी चाहिए। यह भी एक तथ्य है कि कई कंपनियों को अच्छे कर्मचारी नहीं मिल पा रहे हैं। यह हमारी व्यवस्था और कौशल विकास के अधूरेपन का दोष है।