मर्कल के बाद अनिश्चितता का दौर
जर्मनी में गत रविवार को हुआ संसदीय चुनाव दो कारणों से दिलचस्प था
जर्मनी में गत रविवार को हुआ संसदीय चुनाव दो कारणों से दिलचस्प था. सोलह बरसों में यह पहला चुनाव था, जिसमें चांसलर एंगला मर्कल मैदान में नहीं थीं और परिवर्तन के नारे पर मैदान में उतरी पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी जर्मन राजनीति पर हावी रहनेवाली दो प्रतिद्वंद्वी पार्टियों- सीडीयू और एसपीडी से पहली बार आगे थी. ग्रीन पार्टी का नेतृत्व नयी पीढ़ी की युवा नेता एनलीना बेयरबॉक कर रही थीं.
उन्होंने देश को हेल्मुट कोल, गेरहार्ड श्रोडर और एंगला मर्कल के जमाने से जारी यथास्थिति के दौर से निकाल कर हरित विकास, स्वच्छ तकनीक और आधुनिकीकरण के रास्ते पर ले जाने की बात रखी थी. इसलिए उन्हें युवाओं का समर्थन मिलता नजर आ रहा था. लेकिन प्रचार के दौरान वे अपनी बढ़त बनाये नहीं रख पायीं और तीसरे स्थान पर सिमट गयीं.
फिर भी ऐतिहासिक दृष्टि से यह जर्मनी ही नहीं, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक विश्व में ग्रीन पार्टी का सबसे शानदार प्रदर्शन माना जा सकता है. उसे 14.8 प्रतिशत वोट मिले हैं और इस अनुपात से उसे 735 सीटों वाली जर्मन संसद बुंडश्टाग में 118 सीटें मिलेंगी. मध्यमार्गी फ्री डैमोक्रेटिक पार्टी को 11.5 प्रतिशत वोट मिले हैं, जिनके अनुपात में उन्हें 92 सीटें मिलनेवाली हैं. ये दो पार्टियां मिल कर नयी संसद में किंगमेकर की भूमिका निभानेवाली हैं.
ग्रीन पार्टी के शानदार प्रदर्शन की एक वजह बीती जुलाई में आयी भीषण बाढ़ और गर्मी की वजह से जंगलों में लगी आग भी रही. इनसे प्रभावित लोग जलवायु परिवर्तन की विभीषिका को लेकर चिंतित हो उठे हैं. युवा पीढ़ी को धरती और अपने भविष्य की विशेष चिंता है. इसलिए उसे ग्रीन पार्टी का हरितीकरण, उद्योग और बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण और स्वच्छ तकनीक के विकास का संदेश पसंद आया.
काश, ऐसा ब्रिटेन, अमेरिका, ब्राजील, चीन और भारत में भी हो पाता! हमारे यहां हर साल बाढ़, भूस्खलन और चक्रवातों से भारी तबाही होती है. फिर भी, हमारे सोचने का दायरा जाति, धर्म और आरक्षण की दीवारों के पार तबाह होते भविष्य को नहीं देख पाता.
ग्रीन पार्टी की लहर का सबसे बड़ा नुकसान एंगला मर्कल की दक्षिण मध्यपंथी क्रिश्चियन डैमोक्रेटिक यूनियन को हुआ, जिसके वोट ग्रीन पार्टी के साथ वित्तमंत्री ओलाफ शोल्त्स की वाम मध्यपंथी पार्टी सोशल डैमोक्रेट्स को भी मिले. ग्रीन पार्टी और एसपीडी के वोटों में पिछले चुनाव की तुलना में पांच-पांच प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, जबकि सीडीयू को नौ प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ.
एसपीडी को 25.7 प्रतिशत वोटों के साथ 206 सीटें मिली हैं, जबकि आमिन लाशेट के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही सीडीयू को 24.1 प्रतिशत वोटों के साथ 196 सीटें मिली हैं. इसका कारण एंगला मर्कल से नाराजगी के बजाय आमिन लाशेट की प्रभावहीनता को माना जा रहा है. जर्मन राजनीति की दो बड़ी पार्टियों के बीच टैक्स नीति, बजट घाटे की सीमा और समाज कल्याण व सरकार के खर्च को लेकर मुख्य मतभेद रहते हैं.
सीडीयू औद्योगिक विकास के लिए टैक्स बढ़ाने, बुनियादी ढांचे पर खर्च करने के लिए बजट घाटा बढ़ाने और समाज कल्याण के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने का विरोध करती है, जबकि एसपीडी खर्च बढ़ाने और जरूरत होने पर टैक्स बढ़ाने और बजट घाटे की सीमा बढ़ाने को बुरा नहीं मानती. दोनों पार्टियों की गठबंधन सरकार चलाने के बावजूद एंगला मर्कल टैक्स और बजट घाटे को लेकर सीडीयू की किफायती नीति पर ही चली हैं.
समन्वय बनाकर चलना, संकट की घड़ी में धीरज और समझदारी से काम लेना और तत्काल प्रतिक्रिया करने के बजाय सही अवसर की प्रतीक्षा करना एंगला मर्कल की ताकत रही है. पर उनकी सबसे बड़ी कमजोरी रही है समस्याओं का समय रहते हल करने के बजाय उन्हें टालते जाना. जर्मनी के उद्योग पुराने और प्रदूषणकारी हैं. उनकी जगह नयी स्वच्छ तकनीक के आधुनिक उद्योगों को बढ़ावा देने की जरूरत है. स्वच्छ तकनीक के विकास के लिए तेज रफ्तार के नेटवर्क का जाल बिछाने और उसका आधुनिकीकरण करने तथा बुनियादी ढांचे में परिष्कार की जरूरत है.
आबादी में बुजुर्गों के बढ़ते अनुपात को देखते हुए पेंशन और समाज कल्याण में सुधार की जरूरत है. विदेश नीति से जुड़े भी कई ऐसे सवाल हैं, जिन्हें जर्मनी अनंत काल तक नहीं टाल सकता. चीन और रूस की बढ़ती आक्रामकता के मद्देनजर उनके साथ रिश्तों को पुनर्भाषित करने की जरूरत है. जर्मनी को सेना और रक्षा पर खर्च बढ़ाने की जरूरत है ताकि जर्मनी और यूरोप की अमेरिका पर निर्भरता कम हो सके.
दक्षिणी यूरोप के देशों पर बढ़ते कर्ज के बोझ और बजट घाटे की समस्या का स्थायी हल खोजा जाना चाहिए और अमेरिका के साथ व्यापार विवाद को सुलझाने की जरूरत है. एंगला मर्कल अपने राजनीतिक कद और प्रभाव के सहारे इन प्रश्नों को टालती रही थीं. लेकिन नये चांसलर को इनका सामना करना और हल खोजना होगा.
मर्कल अपने कार्यकाल में चार बार भारत आयीं और उनके लंबे शासन के दौरान दोनों देशों के रिश्ते गहरे भी हुए हैं. जर्मनी यूरोप में भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझीदार है और हजारों कंपनियों ने भारत में निवेश किया हुआ है. लेकिन चीन से तुलना करें, तो भारत व जर्मनी का व्यापार और आपसी रिश्ता बहुत बौना नजर आता है.
अमेरिका और नाटो के कई सदस्य देशों के साथ चीन के बढ़ते तनाव तथा चीन में मानवाधिकारों और श्रम अधिकारों की सोचनीय दशा होने के बावजूद चीन जर्मनी का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. दूसरी तरफ वर्षों के प्रयासों के बावजूद भारत यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार संधि नहीं कर पाया है.
ऐसे में चाहे सोशल डैमोक्रेट नेता ओलोफ शोल्त्स नयी सरकार बनायें या फिर क्रिश्चियन डैमोक्रेट नेता आमिन लाशेत, दोनों को भारत की मनमोहन सिंह सरकार की तरह अपने अंतर्विरोधों को पाटते हुए घरेलू और विदेशी मामलों पर कई महत्वपूर्ण फैसले करने होंगे. इनमें चीन और अमेरिका के बीच संबंधों का संतुलन बनाने से लेकर भारत जैसी उभरती लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ रिश्तों में नयी गर्मजोशी पैदा करना शामिल है.
ग्रीन पार्टी ने ओलोफ शोल्त्स की एसपीडी के साथ सरकार बनाने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन शोल्त्स को ग्रीन पार्टी के साथ लिबरल एफडीपी के समर्थन की जरूरत भी पड़ेगी, जो ग्रीन पार्टी की कई नीतियों को नापसंद करते हैं. लेकिन यदि एसपीडी, एफडीपी और ग्रीन पार्टी के गठबंधन की सरकार बनती है, तो भारत को इन पार्टियों के उन वामपंथी सांसदों से सावधान रहना होगा, जो भारत में मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थिति के मुखर आलोचक रहे हैं.
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