राजनीति का बेलगाम अपराधीकरण, उच्चतम न्यायालय को ही आगे आकर उठाने होंगे कठोर कदम

उच्चतम न्यायालय को ही आगे आकर उठाने होंगे कठोर कदम

Update: 2021-11-05 12:36 GMT

यशपाल सिंह। देश के विभिन्न हिस्सों से रह-रहकर ऐसे समाचार आते ही रहते हैं कि किसी आपराधिक मामले में किसी सांसद या विधायक अथवा अन्य किसी जनप्रतिनिधि को गिरफ्तार किया गया या फिर उनकी तलाश में छापेमारी की गई। पिछले दिनों ही महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री अनिल देशमुख को सौ करोड़ रुपये की अवैध उगाही में गिरफ्तार किया गया। इसी तरह घोसी, उत्तर प्रदेश के बसपा सांसद अतुल राय गैंगस्टर एक्ट में रिमांड पर भेजे गए। उन पर एक युवती ने दुष्कर्म का आरोप लगाया था और कोई सुनवाई न होने पर उसने आत्मदाह कर लिया था।


यह किसी से छिपा नहीं कि देश में तमाम ऐसे जनप्रतिनिधि हैं, जिन पर गंभीर अपराधों में लिप्त होने के आरोप हैं। इनमें से कई बाहुबली छवि वाले हैं। आम तौर पर अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति पहले अपराध कर अपनी 'हनक' बनाते हैं। फिर अवैध उगाही, फिरौती इत्यादि हर प्रकार के गलत धंधे कर बाहुबली से 'धनपशु' बनते हैं। इसके बाद वे राजनीति में आकर जनप्रतिनिधि बनते हैं, ताकि समाज में वे 'माननीय' कहे जाएं। फिर वे अपने सारे केस साम, दाम, दंड, भेद से खत्म कराते हैं। ऐसे बाहुबली अपना एक आपराधिक निजी तंत्र खड़ा कर चुनाव जीतते रहते हैं। देश में पहले यह समस्या नहीं थी, क्योंकि अधिकतर अपराधियों को सजा हो जाती थी या वे एनकाउंटर में मारे जाते थे। गवाह तोड़ना आसान नहीं था। सामाजिक मान्यताएं कुछ अन्य थीं। पुलिस की 'हनक' उनकी 'हनक' पर भारी पड़ती थी। राजनीतिक पार्टियां भी अपराधियों से दूर रहती थीं।

वास्तव में पिछली सदी के नौंवे दशक से राजनीति की गरिमा में गिरावट प्रारंभ हुआ। उसके बाद से यह सिलसिला बना हुआ है। आज देश में 43 प्रतिशत से अधिक सांसद-विधायक ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। आज ऐसे लोग भी सांसद-विधायक हैं जिन्होंने अपने हलफनामे में स्वयं स्वीकार किया है कि वे दुष्कर्म, हत्या, लूट के मामले में आरोपी हैं और न्यायालय में केस चल रहा है। जब तक इस प्रकार के अपराध करने वालों का संसद और विधानसभाओं में पहुंचने पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक यह संख्या बढ़ती ही रहेगी।

दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई गई थी। उन्हें देश के आपराधिक कानूनों की समीक्षा कर सुझाव देने को कहा गया था कि उनमें क्या सुधार किए जाएं कि दुष्कर्म जैसे अपराधों में त्वरित कार्रवाई का कठोर सजा दी जा सके। जेएस वर्मा ने अपनी रिपोर्ट में चुनावी सुधारों के संबंध में एक अलग अध्याय भी लिखा था, जो विशेष रूप से उल्लेखनीय था, परंतु उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसके दुष्परिणाम सबके सामने हैं। उन्होंने देश का ध्यान इस पर भी आकर्षित किया था कि आजादी के 50 साल पूरा होने के बाद 1997 में संसद ने स्वयं राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध सर्वसम्मति स जो प्रस्ताव पारित किया था, उसे प्रभावी रूप दिया जाए। यह बात जब एक जनहित याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में उठाई गई तो न्यायालय ने कहा कि कानून बनाना संसद का कार्य है। हम केवल अनुरोध कर सकते हैं। उसने अनुरोध किया भी कि ऐसे कानून की आज देश और समाज हित में घोर आवश्यकता है।

केंद्रीय चुनाव आयोग के पास कम से कम इतना अधिकार तो होना ही चाहिए कि वह किसी सांसद-विधायक के आपराधिक इतिहास की अपनी मर्जी से छानबीन कर सके और यह पता लगा सके कि उसे चुनाव लड़ने के लिए पार्टी से टिकट कैसे मिला? क्या पार्टी में उनकी इतनी वरिष्ठता थी या कोई असाधारण योगदान था? अगर मात्र पैसे के आधार पर टिकट दिया गया पाए तो चुनाव आयोग संबंधित पार्टी का 'सिंबल' कुछ वर्षों के लिए निलंबित कर सके या अन्य कोई कार्रवाई कर सके। इसमें दो राय नहीं कि पैसा देकर टिकट हासिल करने वाले और पैसे के दम पर चुनाव जीतने वाले जनप्रतिनिधि ही समाज में सारी गंदगी ऊपर से नीचे तक फैलाते हैं। वही कार्यपालिका में भी भ्रष्टाचार को पनपाते हैं और राजनीति के अपराधीकरण का सिलसिला कायम रखते हैं। आखिर समाज की शुचिता बनाए रखना और सोच को सही दिशा देना भी सरकार/चुनाव आयोग की ही नैतिक जिम्मेदारी है।

बिहार विधानसभा चुनावों में प्रत्याशियों का आपराधिक इतिहास न प्रकाशित करने/या आयोग को सूचना न देने पर सुनवाई करते हुए कुछ समय पहले उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि 'अपराधीकरण रोकने के लिए सरकार ने न कुछ किया और न कुछ करेगी।' बाद में उसने इस प्रकार की पार्टियों पर पांच-पांच लाख रुपये तक का जुर्माना भी लगा दिया था। इसके बाद भी राजनीतिक दलों का हाल यह है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर एक पार्टी फूलन देवी की मूर्ति हर जनपद में लगाने की बात कर रही है, जबकि उसके द्वारा किए गए बेहमई कत्लेआम को कौन नहीं जानता, जिसमें एक जाति विशेष के 24 लोगों को लाइन में खड़ा कर मौत के घाट उतार दिया गया था। एक और पार्टी ब्राह्मणों के साथ हो रहे कथित अत्याचार के नाम पर कानपुर के बिकरू कांड के मुख्य आरोपित विकास दुबे को 'हीरो' बना रही है, जबकि सभी जानते हैं कि उसे पकड़ने गई पुलिस के डिप्टी एसपी समेत चार-पांच पुलिसकर्मी और मारे गए थे, जिसमें आधे ब्राह्मण थे।

राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश अंतत: उच्चतम न्यायालय को ही लगाना पड़ेगा, क्योंकि देश में कानून का राज स्थापित करना उसी की नैतिक जिम्मेदारी है। संविधान ने उसे इसीलिए इतना शक्तिशाली बनाया है। नए मुख्य न्यायाधीश महोदय के बेबाक और साहसिक बयानों ने एक आशा की किरण सी दिखाई है। हाल में उन्होंने स्पष्ट कहा कि 'न्यायपालिका को आम लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अत्याचारी समूहों की सामूहिक शक्ति से निडर होकर लड़ने के लिए तैयार रहना होगा।' जस्टिस जेएस वर्मा ने भी अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा था कि 'संसद में जब तक दागी लोग बैठेंगे, तब तक देश को कानून बनाने की शैली और तौर-तरीके पर विश्वास करना संभव नहीं होगा।' समय आ गया है कि संगीन आरोपों से घिरे विधायकों और सांसदों के गलत कामों का संज्ञान संसद और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारी भी लें।

(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं)
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