यूक्रेन संकट : मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता की दरकार, क्या अब इस दिशा में बढ़ेंगे हम

बिजनेस घरानों और अन्य उद्यमियों के लिए एक अवसर भी है और चुनौती भी।

Update: 2022-03-19 01:51 GMT

यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद जब वहां फंसे भारतीयों की बात सामने आई, तो एक बात जिसकी जानकारी सरकार और कुछ अन्य लोगों को थी, लेकिन आम समाज इस बात से अनभिज्ञ था कि यूक्रेन में 20 हजार भारतीय विद्यार्थी रह रहे थे, जिसमें अधिकांश मेडिकल विद्यार्थी थे। यूक्रेन अकेला देश नहीं है, जहां भारतीय विद्यार्थी मेडिकल की शिक्षा के लिए जाते रहे हैं। इसके अलावा चीन, रूस, किर्गीस्तान, फिलीपींस और कजाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में विद्यार्थी मेडिकल की शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते हैं।

गौरतलब है कि उन देशों से एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने के बाद इन विद्यार्थियों को भारत में एक परीक्षा से गुजरना होता है, जिसका नाम है फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एक्जामिनेशन (एफएमजीई), जिसे नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन आयोजित करता है। विडंबना यह है कि इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों का प्रतिशत अभी तक 10.4 प्रतिशत से 18.9 तक ही रहा है। यदि पिछले पांच वर्षों की बात की जाए, तो यह प्रतिशत औसतन 15.82 प्रतिशत रहा। जबकि पिछले पांच वर्षों के दौरान इस परीक्षा में भाग लेने वालों की संख्या में लगभग तीन गुना की वृद्धि हुई है।
वर्ष 2015 में जहां 12,116 विद्यार्थियों ने इस परीक्षा में भाग लिया था, वहीं वर्ष 2020 में यह संख्या बढ़कर 35,774 तक पहुंच गई थी। वर्ष 2021 में कोरोना के प्रकोप के चलते हालांकि यह संख्या घटकर 23,349 रह गई थी। मेडिकल के ये विद्यार्थी डिग्री हासिल करने के लिए विदेश क्यों जाते हैं? वर्ष 2021 में आयोजित एमबीबीएस हेतु नीट की परीक्षा में लगभग 16 लाख विद्यार्थी शामिल हुए, जबकि देश में कुल एमबीबीएस सीटों की संख्या मात्र 83 हजार थी। इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में मेडिकल डॉक्टरों की भारी जरूरत है।
यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों को देखा जाए, तो हर 1,000 व्यक्ति के पीछे एक डॉक्टर होना चाहिए, यानी हमें कुल 13,08,000 डॉक्टरों की आवश्यकता है, जबकि देश में अब भी सिर्फ 12 लाख पंजीकृत चिकित्सा कर्मी ही हैं। ऐसे में, यह माना जा सकता है कि अब भी हमारे देश में 1,08,000 डॉक्टरों की कमी है। ऐसा नहीं कि देश में मेडिकल की सीटों में वृद्धि नहीं हुई है। वर्ष 2014 में देश में मेडिकल सीटों की संख्या मात्र 54,358 थी, जो अब तक बढ़कर 88,120 तक पहुंच गई है।
विडंबना यह है कि इनमें से लगभग आधी सीटें सरकारी कॉलेजों में हैं और शेष निजी कॉलेजों में हैं। इन निजी कॉलेजों में 4.5 साल के कुल एमबीबीएस शिक्षा हेतु हालांकि 50 लाख से डेढ़ करोड़ रुपये तक की फीस वसूली जाती है, उनमें भी प्रवेश के लिए विद्यार्थियों को अत्यंत कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है। हाल तक अधिकांश प्राइवेट कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया अत्यंत अपारदर्शी और भ्रष्टाचार युक्त थी। यह माना जा रहा है कि नीट की परीक्षा आयोजित होने के बाद मेडिकल में प्रवेश में भ्रष्टाचार कम हुआ है।
हालांकि मेडिकल में प्रवेश परीक्षा अब पहले से अधिक पारदर्शी हो गई है और इसमें भ्रष्टाचार भी काफी कम हुआ है, इसके बावजूद सच्चाई यह है कि देश में जितने विद्यार्थी मेडिकल शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, एमबीबीएस सीटों में काफी वृद्धि होने के बावजूद उनमें से मात्र पांच प्रतिशत विद्यार्थियों को ही प्रवेश प्राप्त हो पाता है। यही नहीं, निजी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की पढ़ाई अत्यंत खर्चीली है, जबकि सरकारी संस्थाओं में यह पढ़ाई काफी सस्ती है।
देश में एमबीबीएस सीटों की कमी और निजी क्षेत्र में महंगी पढ़ाई के चलते बड़ी संख्या में एमबीबीएस पढ़ने के इच्छुक विद्यार्थी विदेशों में जाकर चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करते हैं। भारत से लगभग एक लाख से भी ज्यादा विद्यार्थी दुनिया के अलग-अलग मुल्कों में मेडिकल की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक विद्यार्थी का एमबीबीएस कोर्स के लिए कुल खर्च 25 से 30 लाख रुपये आता है। यानी देखा जाए, तो लगभग पांच वर्ष की एमबीबीएस डिग्री के लिए करीब 25 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं।
डॉलरों में यह राशि लगभग 3.5 अरब डॉलर है। यदि भारत से मेडिकल समेत अन्य प्रकार के विद्यार्थियों का पलायन कम किया जा सके, तो देश की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा में खासी बचत हो सकती है। यूक्रेन युद्ध से पहले पिछले वर्ष ही नेशनल मेडिकल कमीशन ने यह घोषणा की थी कि निजी मेडिकल कॉलेजों की आधी सीटें विद्यार्थियों को सरकारी कॉलेजों की फीस पर उपलब्ध कराई जाएंगी। इस बाबत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया ट्वीट भी महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने यही बात दोहराई है कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की आधी सीटों को सरकारी कॉलेजों की फीस पर उपलब्ध कराया जाएगा।
स्वाभाविक है कि सरकार के इस कदम से योग्य विद्यार्थियों को, जो धनाभाव के कारण एमबीबीएस की पढ़ाई नहीं कर पाते, राहत मिलेगी। लेकिन देश से योग्य विद्यार्थियों का मेडिकल की शिक्षा हेतु पलायन और विदेशी मुद्रा की भारी बर्बादी रोकने के लिए नए मेडिकल कॉलेज खोलना और वर्तमान कॉलेजों की सीटों में वृद्धि करना ही एकमात्र उपाय है। एमसीआई को भंग करने और नेशनल मेडिकल कमीशन का गठन हो जाने के बाद देश में अतिरिक्त मेडिकल सीटें स्थापित करने की गति में पहले से ही खासी वृद्धि हुई है।
पिछले सात वर्षों में मेडिकल सीटों में हर वर्ष आठ प्रतिशत से अधिक की दर से वृद्धि दर्ज हो रही है। यह गति और ज्यादा तेज करने की जरूरत है। यूक्रेन युद्ध के बाद इस समस्या को समझते हुए जाने-माने उद्योगपति आनंद महिंद्रा द्वारा एक मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा से एक नए प्रकार की शुरुआत हुई है। इसी प्रकार देश में असंख्य उद्यमी हैं, जो मेडिकल कॉलेज खोलने में सक्षम हैं। नीति निर्माताओं में भी इस संबंध में सोच विकसित हो ही रही है। मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता की दिशा में आज निजी और सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों, बिजनेस घरानों और अन्य उद्यमियों के लिए एक अवसर भी है और चुनौती भी। 

सोर्स: अमर उजाला

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