भारतीय संविधान की अस्मिता को जानने-समझने की कोशिश
अपने देश को कम जानने की एक शास्वत समस्या तो अरसे से बनी ही हुई है
Prof.Sanjay Dwivedi
by Lagatar News
अपने देश को कम जानने की एक शास्वत समस्या तो अरसे से बनी ही हुई है, जिसका हल आज तक हमारे विद्यालय, परिवार और संस्थाएं नहीं खोज पाई हैं। इसलिए 'भारत को जानो' और 'भारत को मानो' जैसे अभियान देश में चलाने पड़ते हैं. राष्ट्रीय आंदोलन में समूचे समाज की गहरी संलग्नता के बाद ऐसा क्या हुआ कि आजादी मिलने के बाद हम जड़ों से उखड़ते चले गए. गुलाम देश में जो ज्यादा 'भारतीय' थे, वे ज्यादा 'इंडियन' बन गए. 'स्वराज' के बजाए 'राज्य' ज्यादा खास और बड़ा हो गया. देश में आजादी और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाले नायक ही गहरी अलोकतांत्रिक वृत्तियों के शिकार हो गए. ऐसे में भारतीय संविधान आज भी न जाने कितने भारतीयों के लिए अबूझ पहली बना हुआ है तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं है. जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब हमें अनेक बातों के विहंगावलोकन के अवसर मिले हैं. आजादी के अमृत महोत्सव के साथ ही यह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती का भी साल है. ठीक इसी समय देश के प्रख्यात पत्रकार, समाज चिंतक और विचारक श्री रामबहादुर राय की किताब 'भारतीय संविधान- एक अनकही कहानी' हमारे सामने आती है. जिसने संविधान से जुड़े तमाम सवालों को फिर से चर्चा में ला दिया है.
भारत की त्रासदी है कि बंटवारे की राजनीति आज भी यहां फल-फूल रही है. आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो पाए हैं. यह सोचना कितना व्यथित करता है कि जब हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही बंट गए. यह बंटवारा सिर्फ भूगोल का नहीं था, मनों का भी था. इसकी कड़वी यादें आज भी तमाम लोगों के जेहन में ताजा हैं. आजादी का अमृत महोत्सव वह अवसर है कि हम दिलों को जोड़ने, मनों को जोड़ने का काम करें. साथ ही विभाजन करने वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंकें और राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ आगे बढ़ें. भारत चौदहवीं सदी के ही पुर्तगाली आक्रमण के बाद से ही लगातार आक्रमणों का शिकार रहा है. 16वीं सदी में डच और फिर फ्रेंच, अंग्रेज, ईस्ट इंडिया कंपनी इसे पददलित करते रहे. इस लंबे कालखंड में भारत ने अपने तरीके से इसका प्रतिवाद किया. स्थान-स्थान पर संघर्ष चलते रहे. ये संघर्ष राष्ट्रव्यापी, समाजव्यापी और सर्वव्यापी भी थे. इस समय में आपदाओं, अकाल से भी लोग मरते रहे. गोरों का यह वर्चस्व तोड़ने के लिए हमारे राष्ट्र नायकों ने संकल्प के साथ संघर्ष किया और आजादी दिलाई. आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय सवाल उठता है कि क्या हमने अपनी लंबी गुलामी से कोई सबक भी सीखा है? हमारे संविधान की प्रेरणाएं कहां लुप्त हो गई हैं. अगर आजादी के इतने सालों बाद हमारे प्रधानमंत्री ने 'संविधान दिवस' को हर साल समारोह पूर्वक मनाने और उस पर विमर्श करने की बात कही है तो इसके खास अर्थ हैं.
पद्मश्री से अलंकृत और जनांदोलनों से जुड़े रहे श्री रामबहादुर राय की यह किताब कोरोना काल के विषैले और कड़वे समय के वैचारिक मंथन से निकला 'अमृत' है. आजादी का अमृत महोत्सव हमारे राष्ट्र जीवन के लिए कितना खास समय है, इसे कहने की जरूरत नहीं है. किसी भी राष्ट्र के जीवन में 75 साल वैसे तो कुछ नहीं होते, किंतु एक यात्रा के मूल्यांकन के लिए बहुत काफी हैं. वह यात्रा लोकतंत्र की भी है, संविधान की भी है और आजाद व बदलते हिंदुस्तान की भी है. आजादी और विभाजन दो ऐसे सच हैं जो 1947 के वर्ष को एक साथ खुशी और विषाद से भर देते हैं. दो देश, दो झंडे, विभाजन के लंबे सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक असर से आज भी हम मुक्त कहां हो पाए हैं. आजादी हमें मिली किंतु हमारे मनों में अंधेरा बना रहा. विभाजन ने सारी खुशियों पर ग्रहण लगा दिए. इन कहानियों के बीच एक और कहानी चल रही थी, संविधान सभा की कहानी. देश के लिए एक संविधान रचने की तैयारियां. कांग्रेस- मुस्लिम लीग के मतभेदों को बीच भी 'आजाद होकर साथ-साथ जीने वाले भारत' का सपना तैर रहा था. वह सच नहीं हो सका, किंतु संविधान ने आकार लिया. अपनी तरह से और हिंदुस्तान के मन के मुताबिक. संविधान सभा की बहसों और संविधान के मर्म को समझने के लिए सही मायने में यह किताब अप्रतिम है. यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है. किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती है, तो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है. यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके. संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है.