मजहब के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश उतनी ही खतरनाक है, जितनी क्षेत्र-भाषा के आधार पर की जाने वाली विभाजनकारी राजनीति
मजहब के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश उतनी ही खतरनाक
संजय गुप्त। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के बीच कर्नाटक में उभरा हिजाब विवाद इसका ही प्रमाण है कि अपने देश में जाति और मजहब के नाम पर लोगों को बरगलाकर किस तरह संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। प्राय: ऐसी राजनीति के केंद्र में मुस्लिम समाज होता है, क्योंकि वह थोक वोट बैंक मान लिया गया है। मजहब के आधार पर देश के बंटवारे के बाद यह सोचा गया था कि धार्मिक विभाजन की खाई समाप्त हो जाएगी, लेकिन वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने इस खाई को बनाए रखा और उसे बढ़ाया भी। मुस्लिम तुष्टीकरण के जरिये यह काम पहले कांग्रेस ने किया, फिर क्षेत्रीय दलों ने। तुष्टीकरण के मामले में पानी सिर से ऊपर चले जाने का परिणाम यह हुआ कि हिंदू समाज खुद को उपेक्षित महसूस करने लगा और समान नागरिक संहिता की पैरवी करना लगा। यह एक प्रश्न है कि जब लोकतंत्र और समानता की मिसाल दी जाती है, तब फिर समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ा जा सका? आखिर सभी समुदायों के लिए विवाह, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मामलों में एक जैसे नियम क्यों नहीं हैं? स्वतंत्रता के बाद से ही समान नागरिक संहिता की आवश्यकता महसूस की जा रही है, लेकिन यह अब भी एक स्वप्न बनी हुई है। ऐसी कोई संहिता न बन पाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि कथित सेक्युलर दल तुष्टीकरण के तहत मुस्लिम समाज को यह कहकर बरगलाते हैं कि इससे उसे नुकसान होगा, जबकि सच यह है कि इससे इस समाज को आगे बढऩे और साथ ही राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने में मदद मिलेगी। यह ठीक है कि देश में विभिन्न समुदायों का एक हिस्सा पुरानी परंपराओं से जुड़ा है, लेकिन सच यह भी है कि समय के साथ वह रूढि़वादी तौर-तरीकों से बाहर निकल रहा है। उसने जहां खुद को अपनी जड़ों से जोड़े रखा है, वहीं आधुनिक सोच को भी अपनाया है।
कर्नाटक के हिजाब विवाद को तूल देने की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि अधिकांश मुस्लिम महिलाएं हिजाब-बुर्के से बाहर आ चुकी हैं। जो अभी तक उसे अपनाए हुए हैं या फिर उसकी वकालत कर रही हैं, वे धार्मिक एवं राजनीतिक तत्वों के संकीर्ण इरादों को पूरा करने में सहायक बनने के साथ अपने ही हितों की अनदेखी कर रही हैैं। हिजाब विवाद को हवा दे रहे लोग अपने दोहरे रवैये का परिचय दे रहे हैं। वे जिस हिजाब-बुर्के को महिलाओं की आजादी के खिलाफ बताते थे, उसे अब मुस्लिम समाज का अनिवार्य अंग कह रहे हैं। यही काम मीडिया का एक वर्ग भी कर रहा है। यह वर्ग झूठ और छल के सहारे यह भी साबित करने में जुटा है कि भारत में हिजाब-बुर्के पर पाबंदी लगाकर मुसलमानों को सताया जा रहा है। यह शरारत के अलावा और कुछ नहीं, क्योंकि तथ्य यह है कि केवल स्कूली कक्षाओं में हिजाब न पहनने को कहा गया है। यह वर्ग इस सच से भी मुंह मोड़ रहा कि जहां कई मुस्लिम देशों में महिलाएं हिजाब-बुर्के को अपनी आजादी में बाधक मानकर उसके खिलाफ संघर्ष कर रही हैं, वहीं यह अनेक देशों में प्रतिबंधित भी है।
हिजाब विवाद पर कर्नाटक सरकार ने हाई कोर्ट में यह स्पष्ट किया कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं और स्कूलों में इसका इस्तेमाल रोकना धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी वाले संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन नहीं। इस तर्क का विरोध करने वाले मुस्लिम लड़कियों के हितैषी नहीं, क्योंकि हिजाब-बुर्का उनकी तरक्की में बाधक ही है। हिजाब की पैरवी करने वाले यह देखने को भी तैयार नहीं कि जैसे-जैसे समाज खुलेपन का अभ्यस्त हो रहा, वैसे-वैसे वह तमाम ऐसी पुरानी परंपराओं को पीछे छोड़ रहा है, जो दकियानूसी हैं और जिनका आज के जीवन में कोई महत्व नहीं। हिंदुओं समेत अन्य समुदायों ने अपने ऐसे तमाम पुराने रीति-रिवाजों से मुक्ति पा ली है।
यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि हिजाब विवाद को हवा देने का मकसद यह झूठ फैलाना है कि भाजपा मुसलमानों के खिलाफ है। मुस्लिम समुदाय को भाजपा के खिलाफ भड़काने की कोशिश इसके बाद भी की जा रही है कि मोदी सरकार के साथ भाजपा शासित राज्यों ने 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' मंत्र के साथ यह सुनिश्चित किया है कि जाति-मजहब के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव न हो। मजहब के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश उतनी ही खतरनाक है, जितनी क्षेत्र के आधार पर की जाने वाली विभाजनकारी राजनीति।
जाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने प्रियंका गांधी की मौजूदगी में जिस तरह यह कहा कि यूपी, बिहार और दिल्ली के भइयों को राज्य में घुसने नहीं देना है, उससे न केवल उनकी संकीर्ण क्षेत्रवादी मानसिकता उजागर हुई, बल्कि राष्ट्रीय दल कांग्रेस की रीति-नीति पर भी सवाल उठे। वास्तव में चन्नी ने महाराष्ट्र के राज ठाकरे सरीखे नेताओं वाली मानसिकता का परिचय दिया। अपने बयान पर बुरी तरह घिरने के बाद उन्होंने सफाई देने की कोशिश की, लेकिन उससे क्षति की भरपाई होना कठिन लगता है।
भारत विविध संस्कृतियों वाला देश है। इस विविधता के साथ राष्ट्रीयता के भाव को सबल करना सबका साझा दायित्व होना चाहिए। देश में विभिन्न समुदायों के अपने-अपने रीति-रिवाज हैं, पर उन सबमें भारतीयता का गहरा बोध भी है। भारत में भाषा के कारण भी जब-तब भाषाई विवाद भी उभरते रहते हैं। ऐसे विवाद भी राष्ट्रीय एकता के लिए चुनौती बनते हैं। जब राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी है कि वे जाति, मजहब, क्षेत्र या भाषा के नाम पर विभाजनकारी भावनाओं को पनपने न दें, तब यह अफसोस की बात है कि कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय दल के एक मुख्यमंत्री उलट व्यवहार करते दिखे। देश के हर राज्य के नागरिक आजीविका के लिए कहीं भी आने-जाने को स्वतंत्र हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों ने पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, कर्नाटक आदि में अपनी मेहनत के बल पर एक मुकाम हासिल करने के साथ इन प्रांतों के विकास में महती योगदान भी दिया है। इससे शर्मनाक और कुछ नहीं कि उनके योगदान का निरादर किया जाए। यदि भारत को सशक्त और समृद्ध बनना है तो प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रीय बोध से लैस होना होगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक दल अपनी रीति-नीति बदलें और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाएं। उन्हें विभाजन के बजाय समावेशन की राजनीति को बल देना होगा।