चालबाज चीन का लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों का पैरोकार होने का स्वांग

युक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) में चीन का चुना जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है

Update: 2020-10-19 08:20 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) में चीन का चुना जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अब संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों के शोषकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। भविष्य में वह मानवाधिकारों की लड़ाई चीन जैसे देशों के खिलाफ सख्ती से नहीं लड़ पाएगा। चीन के समर्थन से पाकिस्तान और नेपाल भी चुने गए हैं। रूस और क्यूबा जैसे अधिनायकवादी देश भी इस परिषद के सदस्य हैं। इस कारण यूएनएचआरसी की विश्वसनीयता लगातार घट रही है।


पाकिस्तान में हिंदुओं पर निरंतर अत्याचार : अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने बयान दिया है कि ऐसे हालातों के चलते परिषद से अमेरिका के अलग होने का फैसला उचित है। दरअसल जब अमेरिका ने परिषद से बाहर आने की घोषणा की थी, तब संयुक्त राष्ट्र ने सदस्य देशों से परिषद में तत्काल सुधार का आग्रह किया था, परंतु किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया। आज स्थिति यह है कि अधिकतम मानवाधिकारों का हनन करने वाले देश इसके सिरमौर बन बैठे हैं। पाकिस्तान में हिंदुओं और इसाइयों के साथ-साथ अहमदिया मुस्लिमों पर निरंतर अत्याचार हो रहे हैं। वहीं चीन ने तिब्बत को तो निगल ही लिया है, उइगर मुस्लिमों का भी लगातार शोषण कर रहा है।

चीन के साम्राज्यवादी मंसूबों से वियतनाम चिंतित है। हांगकांग में वह एकतरफा कानूनों से दमन की राह पर चल रहा है। इधर चीन और कनाडा के बीच भी मानवाधिकारों के हनन को लेकर तनाव बढ़ना शुरू हो गया है। भारत से सीमाई विवाद तो सर्वविदित है ही। लोक-कल्याणकारी योजनाओं के बहाने चीन छोटे से देश नेपाल को भी तिब्बत की तरह निगलने की फिराक में है। साफ है, चीन वामपंथी चोले में तानाशाही हथकंडे अपनाते हुए हड़प नीतियों को बढ़ावा दे रहा है।

मानवाधिकारों के समर्थन में वह मजबूती से खड़े रहेंगे : चीन की स्थितियों को देखते हुए हाल ही में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो ने कहा है कि उनका देश चीन में होने वाले मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ हमेशा खड़ा रहेगा। कनाडा में चीन के राजदूत कोंग पियू ने हांगकांग छोड़कर आ रहे लोगों को शरण नहीं देने के मामले में ओटावा को चेतावनी देते हुए कहा है कि कनाडा हांगकांग में रहने वाले तीन लाख कनाडाई नागरिकों के बारे में और वहां कारोबार कर रही कंपनियों के बारे में सोचता है तो उसे चीन के हिंसा से लड़ने के प्रयासों में सहयोग करना होगा। टूडो ने स्पष्ट किया है कि मानवाधिकारों के समर्थन में वह मजबूती से खड़े रहेंगे। फिर चाहे बात कनाडाई नागरिकों की हो या उइगर समुदाय के शोषण की?

ताइवान से टकराव : भारत के साथ टकराव के बीच अब वियतनाम पर चीन अपना संयम खो रहा है। वियतनाम की राष्ट्रपति साई इंग वेन को चिंता है कि अमेरिका में यदि चुनाव के बाद सत्ता परिवर्तन होता है तो कहीं उससे जो सुरक्षा संबंधी समझौता है, वह संकट में न पड़ जाए। उल्लेखनीय यह भी है कि ताइवान को लेकर चीन और अमेरिका के बीच हमेशा टकराव रहा है। चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है और उसे पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना में मिलाने की महत्वाकांक्षा पाले हुए है, जबकि अमेरिका ताइवान की स्वतंत्रता का पक्षधर है। जहां तक वियतनाम की बात है तो अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप वियतनाम को लेकर चीन की खोटी नीयत को कई बार लताड़ लगा चुके हैं।

साम्यवादी देशों की हड़प नीति के चलते ही छोटा सा देश चेकोस्लोवाकिया बरबाद हुआ। चीनी दखल के चलते बरबादी की इसी राह पर नेपाल है। नेपाल ने बिना सोचे-समङो भारत से भी संबंधों में बिगाड़ शुरू कर दिया है, जो उसके लिए नुकसानदायी साबित हो सकता है। पाकिस्तान में भरपूर निवेश करके चीन ने मजबूत पैठ बना ली है। बांग्लादेश को भी वह बरगलाने में लगा है। श्रीलंका में हंबन टोटा बंदरगाह में निवेश कर उसे अपने जाल में फांसने की कोशिश की थी, लेकिन उसने चीन के मंसूबे को भांप लिया और इस योजना से दूरी बना ली।

चीन सार्क देशों का सदस्य बनने की फिराक : दरअसल पड़ोसी देशों को अपने नियंत्रण में लेकर चीन सार्क देशों का सदस्य बनने की फिराक में भी है। ऐसा संभव हो जाता है तो उसका क्षेत्रीय दखल दक्षिण एशियाई देशों में और बढ़ जाएगा। इन कूटनीतिक चालों से इस क्षेत्र के छोटे-बड़े देशों में उसका निवेश और व्यापार तो बढ़ेगा ही, सामरिक भूमिका भी बढ़ेगी। यह रणनीति वह भारत से मुकाबले के लिए रच रहा है। चीन की यह दोगली कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन बार-बार जो आक्रामकता दिखा रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं, दुनिया के लिए चिंता का कारण बनी हुई है।

दुनिया जानती है कि भारत-चीन की सीमा पर चीन निरंतर विवाद खड़े करता रहा है। सीमा विवाद सुलझाने में चीन की कोई रुचि नहीं हैं। वह केवल घुसपैठ करके अपनी सीमाओं के विस्तार की मंशा पाले हुए है। चीन भारत से इसलिए नाराज है, क्योंकि उसने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब भारत ने तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बतियों को भारत में शरण दी थी। जबकि चीन की इच्छा है कि भारत दलाई लामा और तिब्बतियों द्वारा तिब्बत की आजादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई का विरोध करे। दरअसल भारत ने तिब्बत को लेकर शिथिल व असमंजस की नीति अपनाई है। जब हमने तिब्बतियों को शरणार्थियों के रूप में जगह दे ही दी थी, तो तिब्बत को स्वतंत्र देश मानते हुए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समर्थन की घोषणा करने की जरूरत भी थी।

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