श्रद्धांजलि निदा फ़ाज़ली: जब पीएम मोदी ने संसद में निदा की पूरी ग़ज़ल ही सुना दी!
आज निदा फ़ाज़ली की बरसी है. निदा फ़ाज़ली उर्दू-हिन्दी के मकबूल शायर हैं उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए कई खूबसूरत गीत भी लिखे हैं और गज़लें भी
आज निदा फ़ाज़ली की बरसी है. निदा फ़ाज़ली उर्दू-हिन्दी के मकबूल शायर हैं उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए कई खूबसूरत गीत भी लिखे हैं और गज़लें भी. कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता और होश वालों को खबर क्या का जि़क्र उनकी फिल्मी पहचान के लिए काफी हैं.
उनकी शायरी पर, उनके शेरों पर, दोहों पर, ग़ज़लों पर बात करें इससे पहले उन्हीं की ज़ुबानी ग़ज़ल लेखन के बारे में एक किस्सा सुन लेते हैं. ये किस्सा निदा के रचनाकार से सीधा साक्षात्कार कराने में सक्षम है.
निदा कहते हैं 'गज़ल क्या है ? गज़ल क्यूं है ? ये एक लंबी तारीख है, जो हज़ार साल फैली हुई है. तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शागिर्द अमीर खुसरो ने ग़ज़ल का पहला एक्सपरीमेंट किया था आधी परशियन और आधी हिंदोस्तानी ज़बान में लिखा था
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां…
(मेरे हाल पे मेरे मेहबूब रहम खा, आँखे फेरके और बातें बनाके मेरी बेबसी को नजरअंदाज (तगाफ़ुल) मत कर…हिज्र (जुदाई) की ताब (तपन) से जान नदारम (निकल रही) है, तुम मुझे अपने सीने से क्यों नही लगाते.)
वे कहते हैं. वहां से चलती हुई ग़ज़ल यहां तक आई है. ग़ज़ल क्या, क्यूं है और कैसी है. इसके बारे में मुझे उन्नीसवीं सदी एक वाक्या याद आ रहा है. दाग़ देहलवी बड़े मशहूर शायर थे उनके समकालीन अमीर मीनाई थे. अमीर मीनाई ने एक बार दा़ग़ साहब से कहा के दाग़ साहब क्या बात है आप भी उसी जु़बान में शेर कहते हैं जिसमें हम कहते हैं. आपके शेर महफिल में बहुत जागते हैं, तालियॉं आती हैं, लेकिन जब हमारे शेर सामने आते हैं तो लोग सो जाते हैं.
दाग़ साहब ने कहा मीनाई साहब मैं आपके सवाल का जवाब दूंगा लेकिन पहले मेरे दो सवालों का जवाब दीजिए. दाग साहब ने कहा 'क्या आपने सूरज गुरूब होते हुए, शाम होते हुए कभी गिलासों को रंगीन किया है.' अमीर मीनाई ने दाढ़ी खुजलाई और कहा 'लाहौल बिला कुव्वत' (कोई भी गलत काम करने से पहले अल्लाह से तो डरिए) आप कैसी बात कर रहे हैं ? दाग ने कहा अच्छा अब ये बतलाईए के 'आपने घर के अलावा भी नज़रों का इस्तेमाल इधर-उधर किया है.'
अमीर मीनाई ने फिर दाढ़ी खुजाई और कहा 'लाहौल बिला कुव्वत''. दाग साहब ने कहा मियां, बीवी को देखकर शेर कहोगे तो ऐसे ही होंगे. वे आगे बोले मैं ये कहना चाहता हूं के ग़ज़ल घर तक महदूद (सीमित) नहीं होती, वो जि़ंदगी की तरह लामहदूद होती है. उसमें अपना दर्द भी होता है और जि़ंदगी का दर्द भी.
निदा की पहचान अपनी बात पूरी बेबाकी से और ईमानदारी से कहने वाले शायर की थी. उनके मिज़ाज़ को उनके ही शब्दों में यूं बयां कर सकते हैं. 'बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी , सलीक़ा चाहिए आवारगी में.
दिल्ली में 12 अक्टूबर 1938 को पैदा हुए निदा का नाम उनके माता-पिता (मुर्तुज़ा हसन और जमील फ़ातिमा) ने मुक्तदा हसन रखा. निदा फ़ाजली उनका लेख्न का नाम है. निदा का मतलब स्वर या आवाज होता है फ़ाजली शब्द काश्मीर से आया. जिस इलाके से उनके पुरखे दिल्ली आकर बस गए थे. बाल्यकाल ग्वालियर में गुज़रा जहां उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज या लक्ष्मीबाई कॉलेज से स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की.
वो कहते हैं ना कि दिल टूटने या बड़ा ग़म झेलने के बाद ही आदमी बड़ा लेखक या शायर बनता है. निदा के साथ ठीक ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ. लेखन का कीड़ा यूं तो उन्हें बचपन से ही लग गया था लेकिन सही माने में वो शायर कैसे बने इसका किस्सा उन्होंने खुद एक बार सुनाया. किस्सा यूं है. जब वह पढ़ते तो उनके आगे की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी. जिससे उनका अनजाना और अबोला रिश्ता कायम हो गया था.
एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर नोटिस देखा कि 'कुमारी टंडन का एक्सीडेंट में देहांत हो गया है.' निदा बहुत दुखी हुए. इस बात से ज्यादा दुखी थे कि वे ऐसा कुछ नहीं लिख पा रहे थे जिससे उनके दुख और दिल की भावना पूरी तरह सामने आ सके. एक दिन की बात है वे सुबह-सुबह एक मंदिर के पास से गुज़र रहे थे वहां उन्होंने किसी को सूरदास का भजन गाते सुना. बोल थे – मधुवन तुम क्यों रहत हरे ? विरह वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे ? इसमें श्रीकृष्ण के मथुरा से द्वारका जाने से उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियां फुलवारी से पूछ रही हैं कि 'ए फुलवारी तुम हरी क्यों बनी हुई हो?
कृष्ण के वियोग में तुम खड़ी-खड़ी जल क्यों नहीं गईं.' यह सुनकर निदा को मेहसूस हुआ कि उनके अंदर के दुख की गिरह खुल रही हैं. बस क्या था उन्होंने कबीर दास, तुलसीदास, बाबा फरीद आदि कवियों को पढ़ना शुरू किया और उनसे सीखा कि इन कवियों ने कैसे बिना लाग लपेट के सीधी भाषा में दिल को छू लेने वाली रचनाएं लिखी हैं. उन्होंने इसी शैली को अपनाया और अपनी शायरी को देशज टच दिया. उनके लिखे दोहे, उनकी बिना लाग लपेट वाली दो टूक शैली का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं.
सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर,
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फकीर
एक और दोहा
मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार
या फिर
चाहें गीता बांचिए या पढि़ए कुरआन पढ़िए
मेरा तेरा प्यार ही, हर पुस्तक का ज्ञान
गज़ल गायक जगजीत सिंह ने निदा को खूब गाया. दौनों एक दूसरे के तगड़े फैन थे. फिल्मी हों या गैर फिल्मी निदा और जगजीत की जोड़ी जब भी मिली कमाल ही किया.
आहिस्ता-आहिस्ता की उनकी गज़ल जिंदगी के फलसफे को इस तरह सामने लाती है कि इससे हर कोई अपने को जुड़ा जानता है 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं ज़मीं तो कहीं आस्मां नहीं मिलता'.
फलसफे को लेकर उनकी इन लाइन्स में गहरी बात है.
वक्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से
किसको मालूम कहों के हैं, किधर के हम हैं
इसी गज़ल का मुखड़ा भी बहुत खूब है
अपनी मर्जी़ से कहॉं अपने सफर के हम हैं
रूख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
इससे बड़ी दार्शनिक बात क्या हो सकती है
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना हैमिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है
दो लाइनें और
नक्शा उठा के कोई नया शहर ढूंढिए
इस शहर में तो सबसे मुलाकात हो गई…
अपने पसंदीदा गायक जगजीत और ग़ालिब के संदर्भ बात करते हुए निदा रचनाधर्मिता को लेकर मार्के की बात कहते हैं 'शास्त्रों में रचना को चमत्कार कहा गया है. चमत्कार मानव के अधिकार में नहीं होता. वो कभी कभी आसमान से उतरता है और जब नूर बनके जगमगाता है तो किसी बिस्मिल्ला खां की शहनाई, किसी एफएम हुसैन की तस्वीर बन जाता है. और कभी कबीर दास में भजन बनकर गाता है, कभी जगजीत सिंह बनकर गज़ल जगमगाता है. ये ग़ालिब भी है.
ग़ालिब एक महान शायर थे उनसे किसी की तुलना नहीं की जा सकती निदा की भी कतई नहीं. लेकिन निश्चित ही निदा हमारे दौर के अज़ीम शायर थे. उनको भुलाया नहीं जा सकता. उनकी शायरी में लोगों को मदहोश करने की अद्भुत क्षमता थी. अपनी शायरी से इश्क करने की दावत देते हुए वो अपने चाहने वालों से कह गए हैं ' होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज़ है, इश्क कीजे फिर समझिए जि़ंदगी क्या चीज़ है.
निदा की रचनाधर्मिता का कमाल देखना हो तो इसे देखें-सुनें. आप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जिस रूप में भी जानते होंगे इस रूप में संभवत: नहीं ही जानते होंगें. ऐसा कोई किस्सा तो सुनने में नहीं आता कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी निदा फ़ाज़ली के जबरिया फैन थे. लेकिन उनकी एक राज्यसभा की स्पीच सुनें तो लगेगा, अरे ऐसा क्या अपने घोषित स्वभाव से परे जाकर मोदी जी निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल को अपने ज़ुदा, शायराना अंदाज़ में पेश करते और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति देते दिखे. मोदी जी ने ग़ज़ल के सहारे अपनी पूरी बात भी कह दी.
सफर में घूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहां बदलती हैं
तुम अपने आपको खुद ही बदल सको तो चलो
यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सम्भल सको तो चलो
यही है जि़ंदगी कुछ बात, चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनो से तुम भी बहल सको तो चलो
दार्शनिक अंदाज़ में लिखी निदा की गज़ल गाते हुए मोदीजी को सुनना राज्य सभा का दिलचस्प और दुर्लभ नज़ारा था. राज्यसभा ने मोदीजी को दिल खोल कर तालियों से नवाज़ा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान फिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.