चंदे में पारदर्शिता
राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे के संबंध में आने वाली कोई भी सूचना न केवल सुखद, बल्कि स्वागतयोग्य भी है।
यह भी गौर करने की बात है कि टाटा समूह का 'प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट' देश में राजनीतिक चंदा देने के मामले में सबसे आगे है। उन तमाम कंपनियों का पता देश के लोगों को होना ही चाहिए, जो राजनीतिक दलों को चंदा दे रही हैं। इसमें कोई बुराई नहीं। राजनीतिक दलों को चंदे या सरकारी मदद की जरूरत पड़ती ही है। चूंकि हमारे देश में सरकारी मदद का प्रावधान नहीं है, इसलिए राजनीति चंदा आधारित है। पहले चंदे के बारे में बहुत साफ जानकारी नहीं हुआ करती थी, लेकिन अब कुछ संस्थाएं चुनावी चंदे या धन पर नजर रखती हैं। जनता को समय-समय पर यह पता लगते रहना चाहिए कि राजनीति में दान की क्या वस्तु-स्थिति है। एक समय था, जब राजनीतिक पार्टियों को भी सूचना के अधिकार के दायरे में लाया जा रहा था, यदि वैसा हो पाता, तो भारतीय लोकतंत्र की चमक और ज्यादा होती। लेकिन अभी जो भी व्यवस्था है, उसमें 20,000 रुपये से ज्यादा के चंदे का हिसाब ही सामने आ पाता है, उससे कम के चंदे के बारे में पता लगाना टेढ़ी खीर है। राजनीति में आने वाले एक-एक पैसे का हिसाब सार्वजनिक होना चाहिए, लेकिन राजनीतिक दलों को इसके लिए तैयार करने में अभी काफी वक्त लगेगा। अभी स्थिति यह है कि बड़ी कंपनियां सीधे अपने नाम से चंदा देना पसंद नहीं करतीं। एक अलग कंपनी, संस्था या ट्रस्ट बनाकर दान देने की परंपरा अलग ही आशंका की ओर इशारा करती है। कभी वह दिन आएगा, जब बड़ी कंपनियां और अमीर लोग सीधे अपने नाम से चंदा देंगे और लोगों को दानदाताओं को पहचानने में परेशानी नहीं होगी।
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2012-13 से 2018-19 के बीच छह वर्षों में भाजपा को कुल 2,319 करोड़ रुपये, कांग्रेस पार्टी को 376.02 करोड़ और एनसीपी को 69.81 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को 45.02 करोड़ रुपये मिले हैं। एडीआर के माध्यम से सामने आए ये आंकड़े भारतीय राजनीति की अधूरी छवि ही दर्शा रहे हैं। जब गठबंधनों का दौर है, तब केवल चार-पांच दल ही क्यों, देश के सभी सक्रिय दलों का हिसाब-किताब जनता के सामने आना चाहिए।