किसके भरोसे ये झूठ?

नरेंद्र मोदी सरकार से सच की अपेक्षा तो अब शायद ही किसी विवेकशील व्यक्ति को रहती होगी।

Update: 2021-07-22 01:30 GMT

नरेंद्र मोदी सरकार से सच की अपेक्षा तो अब शायद ही किसी विवेकशील व्यक्ति को रहती होगी। जिस सरकार ने अपनी पहचान ही आंकड़ों को छिपाने, उन्हें गलत ढंग से पेश करने और वैकल्पिक असत्य आंकड़े गढ़ने को लेकर बनाई हो, उससे ये अपेक्षा नहीं हो सकती कि वह तथ्य जनता के सामने रखेगी। मगर वह जगह-जगह मची लोगों की चित्कार को भी स्वीकार करने से इनकार कर देगी, यह उम्मीद फिर भी नहीं थी। दो-तीन महीने पहले इस देश में ऑक्सीजन की कमी के कारण मरते लोगों का जो नजारा दुनिया ने देखा, उसे भुलाना किसी के लिए मुश्किल है। मीडिया रिपोर्टों को जो कहानियां उस समय दिखाई गईं, वो आज की पीढ़ी के मन पर इस तरह दर्ज हो चुकी हैं, जिससे ताउम्र उबरना संभव नहीं होगा। इसके बावजूद सरकार ने संसद में ये हिमाकत की कि किसी व्यक्ति की मौत ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई।

ये बात कहने के लिए जो तकनीकी भाषा गढ़ी गई, वह बेमतलब है। असल बात यह है कि सरकार ने सच के विरुद्ध एक और वैकल्पिक कहानी गढ़ने की कोशिश की है। सवाल है कि ये सरकार ऐसी हिम्मत कैस कर पाती है? आखिर उसे किन लोगों पर ऐसा भरोसा रहता है कि उन्हें वह जो बताएगी वे उसे ही मानेंगे, भले उनकी अपनी आंखों ने कुछ देखा हो और उनके अपने मन ने कुछ महसूस किया हो? यहां ये बात जरूर याद करनी चाहिए कि सरकार ने इस बार भूलवश या जानकारी के अभाव में ऐसी बात नहीं कही है।
बल्कि जब देश कोरोना महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहा था और नदियों में लाशें तैर रही थीं, तभी सत्ता पक्ष की तरफ से 'कांग्रेस की टूलकिट' का मसला उछाला गया था। उसके जरिए भी यही पैगाम दिया गया था कि देश में सब कुछ ठीक है, जो गलत दिख रहा है वह दरअसल कांग्रेस की फैलाई झूठी कहानियां हैं। उसके बाद सरकार समर्थक कथित बुद्धिजीवियों से लगातार ऐसी चर्चाएं कराई गईं, जिनमें विदेशी मीडिया पर गलत रिपोर्टिंग करने और भारत की छवि खराब करने का दोष मढ़ा गया। यह सब सरकार इसीलिए कर पात है, क्योंकि उसके प्रचार और सामाजिक नफरत फैलाने के तंत्र ने देश में एक बड़ा ऐसा समर्थक वर्ग बना लिया है, जिसके लिए एक समुदाय से नफरत बाकी तमाम बातों पर भारी पड़ती है।


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