टाइटैनिक: फ्लॉप शो पर हिट फिल्म
सलाम के हकदार ये जांबाज़ कलाकार अपने मिशन में कामयाब होते हैं और खुशी खुशी मौत को अपने गले लगा लेते हैं
'शो मस्ट गो ऑन', 'शो बिज़नेस' में यूज़ किया जाने वाला यह मशहूर फ्रेज़ है. थिएटर और लाइव शो के संबंध में इसे खासतौर पर यूज़ किया जाता है. परिस्थितियां कैसी भी हों शो चालू रहना चाहिए. 'कैसी भी हों' शब्दों की गहराई में जाएं तो जो सीन यूं बनता है. किसी कलाकार के निकट प्रियजन की मौत हो चुकी है और उसे शो करना है. ऐसे अनेक किस्से फिल्म और थिएटर की दुनिया में सुनाई देते रहे हैं. लेकिन ऐसा किस्सा बिरला है जब अपनी ही जान पर बन आई हो और कलाकार जान बचाने का उपक्रम न करते हुए संगीत की स्वरलहरियों से लोगों का मनोरंजन करे, ताकि मौत को सामने देख लोगों में अफरा-तफरी न मचे. सलाम के हकदार ये जांबाज़ कलाकार अपने मिशन में कामयाब होते हैं और खुशी खुशी मौत को अपने गले लगा लेते हैं.
ये किसी फिल्म या नाटक का दृश्य नहीं है एक प्रशंसनीय सच्चाई है जिसे टाइटैनिक शिप दुर्घटना में बचे लोगों ने दुनिया से साझा किया है. 'कभी न डूबने वाले जहाज' के नाम से प्रचारित यात्रा पर निकले 'आरएमएस टाइटैनिक' अपनी पहले ही सफर में समुद्र की गहराईयों में समा गया था. टाइटैनिक को इंगलैण्ड की व्हाइट स्टार लाइन कंपनी द्वारा बनाया गया शिप का पूरा नाम आरएमएस टाइटैनिक (रॉयल मेल शिप) था. बार-बार कहा जाता रहा है कि सच कल्पना से ज्यादा रोमांचक होता है. कई बार सच इतना हतप्रभ करता है कि भरोसा करने को दिल नहीं करता. लेकिन भरोसे से क्या होता है, सच तो सच होता है.
टाइटैनिक के मामले का हतप्रभ करने वाला सच ये है कि टाइटैनिक 14 अप्रेल 1912 को दुर्घटनाग्रस्त हुआ. लेकिन इससे 14 बरस पहले इसकी पटकथा लिखी जा चुकी थी. 1898 में उपन्यासकार मोर्गन रॉबर्टसन ने एक नॉवेल लिखा. यह एक भव्य और आलीशान जहाज की कहानी थी जो एक आइसबर्ग से टकराने के बाद नार्थ एटलांटिक में डूब जाता है. ये कहानी एक नॉवेल का हिस्सा थी और पूरी तरह काल्पनिक भी थी. लेकिन हैरान करने वाला सच तो देखिए.टाइटैनिक हादसे से 14 बरस पहले मोर्गन रोबर्टसन ने एक नॉवेल लिखते हैं 'फ्युटिलिटी'. इसका कथानक एक भव्य जहाज के बारे में था जिसका नाम टाईटेन था जो एक आईसबर्ग से टकराने के बाद नार्थ एटलांटिक में डूब जाता है. बाद में इसका नाम 'द रेक ऑफ द टाईटेन' किया गया. ये काल्पनिक कहानी रियल टाइटैनिक हादसे से आश्चर्यजनक रूप से मिलती है. कहानी का हैरान करने वाला सच तो देखिए कहानी का जहाज अप्रैल के महीने में समुद्र में समाता है और रियल टाइटैनिक भी अप्रैल के महीने में ही डूबता है. काल्पनिक जहाज नॉर्थ अटलांटिक में डूबता है और वास्तविक जहाज की जल समाधि भी वहीं बनती है. चौंकाने वाले तथ्य और भी हैं, दोनों जहाज में हजारों यात्री शामिल थे और दोनों में ही यात्रियों को बचाने के लिए पर्याप्त मात्रा में लाईफबोट नहीं थीं. दोनों का आकार भी लगभग समान था.
बता दें कि टाइटैनिक जहाज 10 अप्रेल 1912 को इंगलैंड के साउथम्प्टन से न्यूयार्क की तरफ अपनी पहली और आखिरी बन गई यात्रा पर रवाना हुआ. यह नार्थ अटलांटिक में 14 अप्रेल की रात 11.40 बजे एक आइसबर्ग से टकरा गया. टकराने के पूरे दो घंटे चालीस मिनिट बाद 15 अप्रेल को यह पूरी तरह डूब गया. जब केप्टेन को आइसबर्ग के सामने होने की सूचना मिली तब उसके पास एक्शन के लिए सिर्फ 37 सेकंड्स थे. जहाज को लेफ्ट में मोड़ने के प्रयास किए गए लेकिन ये नाकाफी रहे. सूत्रों का कहना है कि अगर 30 सेकंड्स पहले और आईसबर्ग की जानकारी मिल जाती तो इसे बचाया जा सकता था. वैसे कैप्टेन को पहले ही मार्ग में आइसबर्ग होने की जानकारी दी गई थी, फिर भी जहाज की रफ्तार कम नहीं की गई. गति कम होती तो शायद यह दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाया जा सकता था.
दुर्भाग्य की बात ये है दूरबीन भी जिम्मेदारों के पास उलब्ध नहीं थी. कुल मिलाकर भव्य और आलीशान जहाज में सुरक्षा संबंधी भारी चूकें थीं. इस जहाज पर कुल 2224 यात्री सवार थे जिसमें 908 क्रू मेंबर और बाकी यात्री थे. इसमें से सिर्फ 706 यात्री बच पाए और लगभग 340 लोगों के शव ही मिल पाए. टाइटैनिक इस तरह से डिज़ाइन किया गया था कि दुर्घटनाग्रस्त होने की दशा में इसमें सवार लोगों को बचाने के लिए लगभग 64 लाईफ बोट की जरूरत पड़ती. लेकिन वास्तव में जहाज पर महज 20 लाईफ बोट थीं. इनका भी अगर पूरा और सही तरीके से उपयोग किया जाता तो ये 1178 लोगों की जान बचा सकती थीं. पर ऐसा नहीं किया गया.
कुछ पावरफुल और बुजदिल लोग अपनी जान बचाने की जल्दी में कम लोगों के साथ बैठकर लाईफ बोट में भाग गए. वो कहते हैं ना मरता तो हमेशा गरीब ही है. यहां भी गरीब ही मारा गया. फर्स्ट क्लॉस, सेकंड क्लॉस और थर्ड क्लॉस केटेगरी के यात्रियों में विभाजित इस जहाज में जहां फर्स्ट क्लॉस के लिए विलासिता की पूरी सुविधाएं तो उपलब्ध थीं हीं, जान बचाने के मामले में भी उन्हें ही प्रायरिटी मिली. फर्स्ट क्लॉस के 60 प्रतिशत, सेकंड के 42 प्रतिशत और थर्ड क्लॉस के सिर्फ 25 प्रतिशत यात्री ही जिंदा बच पाए. कुछ अच्छे लोग भी जहाज पर सवार थे जिन्होंने बच्चों और महिलाओं को पहले जाने देने के लिए अपना चांस स्वत: गंवाया और अंतत: अपनी आहूति दे दी. इसीलिए तो कहते हैं अच्छे लोग संख्या में भले ही कम हों, दुनिया इनसे ही चल रही है. टाइटैनिक के मलबों की खोज 1985 में यूनाईटेड स्टेट नेवी फ्रेंको अमेरिकन अभियान द्वारा की गई. इस पर अनेक डाक्युमेंट्रीज़ बनीं कुछ फिल्में भी.
डिस्कवरी चैनल के लिए भी एक खूबसूरत डाक्युमेंट्री देखने को मिलती है. दूर दुर तक फैला समुद्र का अथाह नीला जल, जहाज के सबसे ऊपरी और आगे के हिस्से में एक बेहद खूबसूरत जवान जोड़ा अपनी बाहें फैलाए खड़ा है. इस आईकेनिक सीन का जि़क्र करो तो सीधे जेम्स कैमरून की फिल्म टाइटैनिक याद आती है. अभिनेता लियोनार्डो डि कैप्रियो और सुंदर अदाकारा कैट विंसलेट की छवि ज़ेहन में कौंधती है. टाइटैनिक शिप की बात, टाइटैनिक मूवी के बिना पूरी नहीं होती. बल्कि सच कहें तो दुर्घटना के 110 साल बाद भी अगर दुनिया इसे याद कर रही है तो फिल्म महत्वपूर्ण कारण है.
हादसे पर डाक्युमेंट्री तो बन सकती है पर फिल्म नहीं. सिद्धहस्त लेखक और निर्देशक जेम्स कैमरून इस बात को बखूबी जानते थे इसीलिए उन्होंने जैक डॉसन (लियोनार्डो) और रोज़ डिविट (कैट) की काल्पनिक प्रेम कहानी का तड़का इस ऐतिहासिक फिल्म में लगाया. प्रेम कहानी प्रमुखता से दिखाने के बावजूद फिल्म अपने मुख्य विषय से नहीं भटकती और टाइटैनिक जहाज के डूबने की कहानी पूरी ईमानदारी से बयान करती है. 1997 की इस फिल्म को एपिक रोमांस और डिज़ास्टर फिल्म के नाम से इसीलिए पुकारा गया. जिस तरह ओरिजनल जहाज में गरीब अमीर का वर्ग भेदभाव था, उसे फिल्म में फिल्मी अंदाज़ में दोहराया गया. गरीब हीरो का अमीर विलेन की खूबसूरत मंगेतर से प्यार, दर्शकों की यह कमजोर नस है, जिस पर जैम्स ने खूबसूरती से अपना हाथ रखा था.
जब दुर्घटनाग्रस्त टाइटैनिक जहाज पर फिल्म निर्माण की बात मीडिया को पता चली तो सबने एक स्वर में इस फिल्म के फ्लॉप होने की घोषणा कर दी. मीडिया को पूरा यकीन था कि फिल्म न सिर्फ डूबेगी, बल्कि इसकी निर्माता कंपनी द्वय फॉक्स और पैरामाउंट को भी ले डूबेगी. लेकिन 'टाइटैनिक' ने आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए न सिर्फ दर्शकों का दिल जीता और बॉक्स ऑफिस पर सिक्कों की बौछार करवाई, बल्कि प्रतिष्ठित पुरस्कारों पर भी कब्जा किया. इसने कुल ग्यारह ऑस्कर जीते और 2.202 बिलियन डॉलर की रिकार्ड कमाई की. इसका बजट सिर्फ 200 मिलियन डॉलर था.
टाइटैनिक जहाज को पॉवरफुल मार्केटिंग स्ट्रेटजी के साथ समुद्र में उतारा गया था. इसे एक विराट शो कह सकते हैं जिसे हादसे ने फ्लॉप शो में बदल दिया. जबकि उस पर बनी काल्पनिक फिल्म 'टाइटैनिक' एक सुपर डुपर हिट फिल्म थी. यानि फ्लॉप शो पर हिट फिल्म. बेशक टाइटैनिक मूवी एक बेहद खूबसूरत, प्रभावशाली और अपने मूल विषय से न्याय करने वाली सफलतम फिल्म थी. लेकिन चलते चलते एक किस्सा सुनते जाएं और तय करें कि इस पर आप कैसे रिएक्ट करेंगे.
किस्सा यूं है. मेरे एक मित्र उन दिनों एक महानगर के प्रवास पर थे, जब टाइटैनिक सिनेमाघरों की शोभा बढ़ा रही थी. फिल्मों के शौकीन थे, सो काम से फ्री होने के बाद नाईट शो जाने प्रोग्राम बना. परदेश में थे सो अकेले ही जाना था. पता चला कि शो खत्म होने के बाद लौटने के लिए सवारी ऑटो मुश्किल से मिलेगा. उन्होंने इसका तोड़ निकाला. ऑटो वाले से कहा चलो तुम्हें फिल्म दिखाते हैं. आने जाने के पैसे तो अलग से देंगे. ऑटो वाला तैयार हो गया. फिल्म हिंदी में डब्ड थी.
फिल्म खत्म होने के बाद लौटते समय ऑटो वाले से पूछा फिल्म कैसी लगी? जवाब देने के बदले वो बोला 'पहले आप बताओ आपको कैसी लगी?' फिल्म की खुमारी में गहरे डूबे मित्र ने तारीफों के पुल बांधते हुए कहा ' लाजवाब, शानदार फिल्म थी.' ऑटो वाला संजीदगी से बोला 'वाह साहब आप लोग भी खूब हो, इतने दर्दनाक हादसे पर भी फिल्म बना लेते हो और मज़े से देख भी लेते हो, बहुत खूब.'
मित्र को जवाब नहीं सूझा, आपको सूझ रहा हो तो बताइए!
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान फिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.