म्यांमा पर कसता शिंकजा

दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन आसियान का उनतालीसवां शिखर सम्मेलन सदस्य देश म्यांमा की गैर-मौजूदगी में संपन्न हो गया।

Update: 2021-10-30 00:48 GMT

दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन आसियान का उनतालीसवां शिखर सम्मेलन सदस्य देश म्यांमा की गैर-मौजूदगी में संपन्न हो गया। ऐसा नहीं कि म्यांमा इसमें शिरकत नहीं करना चाहता था, लेकिन आसियान संगठन ने ही उसे सम्मेलन से दूर रखा। म्यांमा के सैन्य शासक मिन आंग लेंग के लिए यह एक बड़ा झटका है। म्यांमा को आसियान का यह स्पष्ट संदेश है कि लोकतंत्र के बिना क्षेत्रीय सहयोग संभव नहीं है।

हालांकि म्यांमा को लेकर आसियान सदस्य देशों में भी एक राय नहीं है, लेकिन लोकतांत्रिक प्रभाव वाले सदस्य देशों ने म्यांमा के सैन्य शासन को साफ संकेत दे दिया है कि जब तक वह लोकतंत्र बहाली के लिए कदम नहीं उठाता, तब तक उसे ऐसा बहिष्कार झेलना पड़ सकता है। इस बार आसियान की सालाना बैठक इस लिहाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण रही कि बैठक को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी संबोधित किया। उन्होंने अपने भाषण में चीन और म्यांमा की नीतियों को लेकर चिंता जताई।

इस साल के शुरू में म्यांमा में हुए तख्तापलट के बाद ही आसियान के कुछ सदस्य देशों ने म्यांमा के घटनाक्रमों को लेकर सैन्य शासन के प्रति नाखुशी जाहिर की थी। बेशक म्यांमा में सैन्य शासन उसका अंदरूनी मामला हो, पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इससे दक्षिण-पूर्व एशिया की अन्य देशों की अंदरूनी राजनीति भी प्रभावित होती है।

थाईलैंड इसका उदाहरण है जहां लंबे समय से सेना और लोकतंत्र समर्थकों के बीच टकराव हो रहा है। वहां भी सैन्य शासकों ने तख्तापलट कर सत्ता कब्जा ली थी। ऐसे में म्यांमा में लोकतांत्रिक शासन के अंत को महज उसकी आंतरिक घटना मानना भारी भूल होगा, साथ ही लोकतंत्र के प्रति अन्याय भी।

यही कारण है कि आसियान के उन सदस्य देशों जहां लोकतंत्र खासा मजबूत है, ने म्यांमा के सैन्य शासन के प्रति खुल कर अपनी नाराजगी जताई। क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उनके यहां भी इस तरह तानाशाही की प्रवृति न उभरने लगे। आसियान के सदस्य देश इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन और सिंगापुर पूर्ण लोकतांत्रिक देश हैं जहां सरकारें चुनी जाती हैं। सेना पूर्णरूप से निर्वाचित सरकार के अधीन काम करती है। इसलिए इन्हीं चार देशों ने म्यांमा के सैन्य शासन को लेकर ज्यादा नाराजगी दिखाई और उस पर लोकतंत्र बहाली के लिए दबाव बना रखा है। लेकिन म्यांमा के सैन्य शासक इन देशों की अपील की अनदेखी ही कर रहे हैं।

दरअसल आसियान के सदस्य देश और म्यांमा के पड़ोसी थाईलैंड का रवैया म्यांमा को लेकर स्पष्ट नहीं है। थाईलैंड में भी लोकतंत्र पर सेना हावी है। यहां भी सेना द्वारा तख्तापलट का इतिहास रहा है। 2014 में थाईलैंड में सेना ने तख्तापलट दिया था। फिर 2016 में थाईलैंड की सेना ने अपनी सहूलियत के हिसाब से नया संविधान बनाया, जिसमें देश पर सेना की पकड़ को और मजबूत कर दिया गया।

हालांकि आसियान जैसे क्षेत्रीय संगठन के स्थापित सिद्धांत में स्पष्ट किया गया है कि इसके सदस्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। यही कारण है कि आसियान के सदस्य देश इस बात को लेकर अभी तक एक राय नहीं बना पाए हैं कि अगर किसी सदस्य देश की सीमा में घटी किसी राजनीतिक घटना या सत्ता परिवर्तन से क्षेत्रीय शांति प्रभावित होती हो तो उससे कैसे निपटा जाए। कुछ सदस्य देश म्यांमा के प्रति सख्त हैं, तो कुछ का रवैया नरम है।

यही कारण है कि म्यांमा में सैन्य तख्तापलट के बाद भी उसे आसियान की सदस्यता से निलंबित नहीं किया गया। आसियान के अन्य मंचों पर म्यांमा के सैन्य शासकों के प्रतिनिधि जा रहे हैं, बैठकों में भाग ले रहे हैं। उनकी उपस्थिति को रोका नहीं गया है। कुछ बैठकों में म्यांमा सैन्य शासन के निवेश मंत्री और उपयोजना मंत्री ने भाग लिया। लेकिन तख्तापलट के लिए जिम्मेवार म्यांमा के सैन्य तानाशाह मिन आंग लेंग को सदस्य देशों के प्रमुखों की बैठक में आमंत्रित न कर साफ-साफ यह संदेश दिया गया है कि उसे अंतरराष्ट्रीय नियमों और मूल्यों का पालन करना होगा।

तख्तापलट के बाद से म्यांमा में मानवाधिकारों के हनन की घटनाएं लगातार बढ़ती जी रही हैं। राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी को लेकर आसियान गंभीर है। हालांकि सैन्य शासक मिन आंग लेंग तर्क दे रहे हैं कि म्यांमा में लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट कानून के अनुरूप हुआ है। पर दुनिया जान रही है कि म्यांमा के तख्तापलट में चीन का परोक्ष सहयोग रहा है। लेंग भी अच्छी तरह जानते हैं कि पश्चिमी देश उन्हें आसानी से शासन नहीं करने देंगे। अमेरिका और ब्रिटेन ने सैन्य शासक को निशाने पर ले लिया है। संयुक्त राष्ट्र ने भी म्यांमा की सेना से संबंधित व्यापारिक कंपनियों के साथ दुनिया भर के देशों को संबंध खत्म करने की अपील की है।

लंबे समय बाद म्यांमा में लोकतंत्र बहाली और लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की सत्ता वापसी से लोकतंत्र मजबूत होने के संकेत मिलने लगे थे। पर लोकतांत्रिक सरकार सेना के दखल से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई थी। महत्त्वपूर्ण मंत्रालय सेना के पास ही थे। सेना शासन पर पूरा नियंत्रण हासिल करने की कोशिश में थी और अंतत: सेना तख्तापलट से ऐसा करने में कामयाब हो गई। इस घटना से पड़ोसी देशों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। म्यांमा में जब लोकतंत्र था तब भी सेना बेलगाम थी।

तख्तापलट के बाद देश के रखाइन प्रांत में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों का दमन हुआ। इस प्रांत के संसाधनों और भूमि पर सेना की कंपनियों और इसके साथ कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियों की नजर थी। रोहिंग्या मुसलमानों के दमन का असर यह हुआ कि लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को बांग्लादेश, भारत, नेपाल, थाईलैंड में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा।

रोहिंग्या शरणार्थियों से सबसे ज्यादा प्रभावित बांग्लादेश है। इस समय वहां करीब नौ लाख रोहिंग्या शरणार्थी हैं। इसका असर बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ने लगा है। म्यांमा के एक और पड़ोसी देश थाईलैंड में एक ल

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