सहकारिता के जरिये कृषि उपज के भंडारण के लिए गांवों में बड़ी संख्या में गोदाम बनाकर किसानों की सुधार सकते हैं दशा
गांवों में बड़ी संख्या में गोदाम बनाकर किसानों की सुधार सकते हैं दशा
कैप्टन आर विक्रम सिंह। वित्त वर्ष 2022-23 के लिए पेश केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गेंहू और धान आदि के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए 2.37 लाख करोड़ रुपये का प्रविधान किया है। इससे एमएसपी पर मोदी सरकार की मंशा स्पष्ट हो गई है। इस विशाल धनराशि ने कुछ लोगों द्वारा एमएसपी के संबंध में व्यक्त किए जा रहे दुष्प्रचार पर भी विराम लगा दिया है। इसके साथ ही कृषि एवं सहकारिता के लिए 1.4 लाख करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित हुई है। राजनीतिक दुष्प्रचार का कितना व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है यह हमने एक वर्ष तक चलाए गए कथित किसान आंदोलन के रूप में देखा है। जो कृषक हित का इतना बहुआयामी कानून था उसे बिना पढ़े हुए काला कानून कह दिया गया। अब आप मंडियों के शिकंजे से मुक्ति के लाभ ही न समझ पाएं तो क्या किया जा सकता है। सरकार द्वारा राजनीतिक दुष्प्रचार के मद्देनजर वे तीनों कृषि कानून वापस ले लिए गए। परिणामस्वरूप कृषि उत्पादकों को राष्ट्रीय बाजार का संभावनाओं से भरा प्लेटफार्म नहीं मिल सका। वे मंडियों, आढ़तियों, बिचौलियों के बंधुआ बने रहे। इससे कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरणएवं भारतीय उद्योग-व्यवसाय में कृषि उत्पादों की बड़ी भागीदारी के सपने देखने वालों को बड़ा झटका लगा है।
भले ही कृषि का भाग हमारी जीडीपी में मात्र 16.40 प्रतिशत रह गया हो, लेकिन देश की आंशिक और पूर्ण बेरोजगारी का एक बड़ा अनुपात कृषि क्षेत्र ही संभालता है। आज भारत में रोजगारों का लगभग 46 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र में है। कोविड के चलते नगर से पलायन के कारण यह संख्या पहले से लगभग तीन प्रतिशत बढ़ गई है। निश्चय ही इसमें छिपी हुई बेरोजगारी की एक बड़ी संख्या समाहित है। सवाल यह है कि अब भविष्य का रास्ता क्या है? सरकारी खरीद को जारी रखना समझ में आता है, लेकिन क्या हमारा ग्रामीण परिवेश यथास्थितिवाद का स्थायी शिकार बना रह जाएगा?
कृषि पर मंडियों का सामंती नियंत्रण एक बड़ी समस्या बन गई है। मंडियों में आढ़तियों का वर्चस्व है। आढ़तियों और बड़े किसानों की दुरभिसंधि किसी से छिपी नहीं है। समस्या सीमांत, छोटे और मझोले किसानों की है। दूसरी समस्या किसान के पास अपनी उपज की भंडारण क्षमता के न होने की है। भंडारण से किसान को क्रेताओं से भाव-ताव करने की सुविधा मिल जाती है। यदि वह अपनी उपज के तत्काल विक्रय को बाध्य हो गया तो मंडी में उसे आढ़ती के शोषण का शिकार होने से रोका न जा सकेगा। सवाल यह है कि उपज मूल्य के निर्धारण में कृषक समाज की भूमिका का सशक्तीकरण कैसे किया जाए? यह तभी हो पाएगा जब किसान सरकारी बैसाखी के बगैर आढ़तियों, क्रेताओं से उपज की सीधे सौदेबाजी कर पाएगा। क्या कृषि उत्पादक वर्ग को अपनी उपज के भंडारण के लिए राज्य सरकारें या केंद्र सरकार ग्राम सभाओं के माध्यम से सहकारी गोदाम बनवाने की सुविधा देने पर विचार कर सकती है? सहकारिता को आधार बनाकर प्रत्येक ग्राम सभा में उपज भंडारण क्षमता के दृष्टिगत गोदाम बनाने पर विचार कृषक आत्मनिर्भरता के लिए आवश्यक है। इस तरह उनकी फसल का जो भी मंडी शुल्क बनता है वह ग्राम सभाओं के माध्यम से सीधे सरकारी खजाने में जमा करा दिया जाएगा। इससे राज्य की मंडी व्यवस्था भंग नहीं होगी, बल्कि मंडियों में हो रही शुल्क की चोरियां भी एक बड़ी सीमा तक समाप्त हो जाएंगी। यदि राज्य मंडी शुल्क की दरों में कमी कर देंगे तो भी उन्हें आवक की मात्रा बहुत बढ़ जाने से आय में कोई कमी नहीं होगी।
इस व्यवस्था से क्रेता या आढ़ती सीधे गांव में आकर क्रय करने को स्वतंत्र होगा। किसान को अपनी उपज ट्रालियों पर लादकर मंडी में पहुंचाने, फिर वहां बैठकर विक्रय होने तक उसकी चौकीदारी की जहमत के साथ आढ़तियों के शोषण से भी मुक्ति मिल जाएगी। इससे हमारे प्रदेशों में निष्प्रभावी हो चुकी सहकारिता की भावना को ग्रामस्तरीय उत्पादकों की सहकारी समितियों के माध्यम से पुनर्जीवित करने में मदद मिलेगी। केंद्रीय सहकारिता मंत्रालय बजट में आवंटित धनराशि को आंतरिक समायोजन के माध्यम से कृषि उत्पादकों के हित में सहकारी ग्राम कृषि भंडारण योजना चला कर अपनी सहयोगी भूमिका की तलाश कर सकता है। हो सकता है कि यह पहल हमारे ग्राम्य परिवेश को सहकारिता के नए मंत्र से जागृत कर ग्राम अर्थव्यवस्था में नवजीवन का संचार कर दे। हमें सहकारिता के दूषित हो चुके ढांचे को छोड़कर राजनीतिविहीन आर्थिक सहकारिता पर ध्यान केंद्रित करना होगा। प्रत्येक जनपद में प्रगतिशील वैज्ञानिक कृषि के प्रोत्साहन के लिए कृषि विज्ञान केंद्र स्थापित हैं। इसकी सहयोगी संस्था के रूप में प्रगतिशील कृषकों को साथ लेकर उत्पादक आधारित आर्थिक सहकारिता का स्वरूप विकसित किया जा सकता है।
नेहरूवाद के चरम काल की सहकारिता में कम्युनिस्ट रूस की कम्यून आधारित कृषि के प्रति एक रोमांटिक भाव था। उनकी अव्यावहारिक सहकारिता ने सहकारिता को आम जनता से दूर व्यवस्थागत सहकारिता बना दिया। जिस देश के ग्र्राम स्वयं में जनसहयोग सहकारिता के वैश्विक उदाहरण हों वहां कृषि के लिए यह कम्युनिस्ट सोच सहकारिता की असफलता का कारण बना। आम जन सरकारी सहकारिता से दूर हो गया, लेकिन सरकारी सहकारिता आज भी हमारी समस्या है। इस नवीन प्रयोग में केंद्र सरकार के नवगठित सहकारिता मंत्रालय की भूमिका बन सकती है। ग्राम अर्थव्यवस्था आधारित जनसहकारिता ही कृषि और कृषक की समृद्धि का आधार और उसका भविष्य है। शर्त यह है कि इसमें अब पुन: जातितंत्र और वर्चस्ववादी निकृष्ट राजनीति का प्रवेश न हो।
(लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)