महामारी के तीन साल : जनस्वास्थ्य का दायरा बढ़ाने की जरूरत, जो हो चुका उसे बदला नहीं जा सकता
आखिर इसका संबंध भारत के भविष्य से है और इसे राजनीतिक एजेंडे में शीर्ष पर होना चाहिए।
कोरोना वायरस से फैली महामारी के तीसरे वर्ष में प्रवेश करने के बाद से हममें से अनेक लोग पहले से बेहतर ढंग से सांस ले पा रहे हैं। वायरस से मौत की आशंकाएं कम हुई हैं। जिन लोगों का पूर्ण टीकाकरण हो चुका है और जो लोग लगातार मास्क पहनते हैं तथा पूरी सतर्कता बरतते हों, तो उनके कोविड-19 के खतरनाक वैरिएंट के संपर्क में आने और अस्पताल में भरती होने की आशंकाएं कम हैं। ऐसे लोगों के संक्रमित होने से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उनके गंभीर रूप से बीमार होने की आशंकाएं कम हैं।
निस्संदेह यह अच्छी खबर है। फिर भी, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा सामूहिक ध्यान जहां कोविड-19 पर केंद्रित है, वहीं महामारी के अनेक अप्रत्यक्ष प्रभाव भी हुए हैं। इन पर हमें ध्यान देने की आवश्यकता है। इसका सबसे गंभीर प्रभाव हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़ी नियमित सेवाओं में आई बाधाओं से जुड़ा है। आखिर महिलाओं और बच्चों के लिए इसका क्या मतलब है? हम इस बारे में अब तक अच्छी तरह से नहीं जानते। सरकार के आधिकारिक डाटा रुझान को दिखाते तो हैं, मगर वास्तव में ये रियल टाइम डाटा नहीं हैं, जिनसे मौजूदा हालात के बारे में पता चले।
मसलन, मार्च की शुरुआत में रजिस्ट्रार जनरल ने आंकड़े जारी किए थे, जो मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) में गिरावट दिखा रहे थे। इसके मुताबिक राष्ट्रीय स्तर पर 2016-18 के 113 से गिरकर एमएमआर 2017-19 में 103 (8.8 फीसदी) हो गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक मातृत्व मृत्यु उसे कहते हैं, जब किसी महिला की गर्भावस्था या प्रसव के 42 दिनों के भीतर गर्भावस्था से जुड़े किसी कारण से मौत हो जाए। इसमें दुर्घटना या अन्य कारणों से होने वाली मौत को शामिल नहीं किया जाता।
प्रति एक लाख जीवित बच्चों के जन्म पर होने वाली माताओं की मृत्यु को मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) कहते हैं। नवीनतम आंकड़ा प्रगति दिखाता है, लेकिन यह महामारी और लॉकडाउन से पहले का है, जिसके कारण व्यवधान उत्पन्न हुआ। इसमें संदेह नहीं कि महामारी ने हाल के कुछ वर्षों में हासिल की गई उपलब्धियों पर प्रभाव डाला है, भले ही हम यह न जान पाएं कि इसका आने वाले वर्षों पर आबादी के समग्र कल्याण पर कैसा प्रभाव पड़ेगा। इस संदर्भ में इस विषय पर हाल के कुछ शोध और विशेष रूप से उनके निष्कर्षों पर गौर करना समीचीन होगा।
इनमें से सबसे ताजा शोध तो पिछले महीने ही जारी हुआ है। 'एविडेंस बेस्ड रिस्पांस टू अर्ली चाइल्डहुड (ईसीडी) ड्यूरिंग द कोविड-19 क्राइसिस' (कोविड-19 संकट के दौरान शुरुआती बचपन के विकास (ईसीडी) पर साक्ष्य आधारित प्रतिक्रिया) शीर्षक से जारी किए गए इस शोध में 2020 में भारत में कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान छोटे बच्चों, उनकी देखभाल करने वालों और अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं पर प्रभाव की पड़ताल की गई है, जब प्रारंभिक वर्षों से जुड़ी अनेक सेवाएं बाधित हो गई थीं।
यह अध्ययन दिसंबर, 2020 से फरवरी, 2021 के बीच पूरे भारत के 11 राज्यों में 10,112 प्राथमिक और द्वितीयक देखभाल करने वालों और 2,196 अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं के बीच किया गया था। यह अध्ययन नीति आयोग के सहयोग से डलबर्ग एडवाइजर्स और कांतार पब्लिक ने किया था, जिसे बर्नार्ड वैन लीयर फाउंडेशन, पोर्टिकस, एचिडना गिविंग और डलबर्ग ने सहयोग किया। शोधकर्ताओं ने लिखा, 'हमने जब शोध किया था, तब स्वास्थ्य तक पहुंच आम तौर पर महामारी से पहले के स्तर तक बहाल हो गई थी।
पोषण संबंधी मदद में कुछ कमी रह गई थी। हमारे सर्वे ने पाया कि 94 फीसदी परिवारों को बच्चे के लिए चिकित्सा संबंधी मदद आवश्यक होने पर मिल गई, एक वर्ष तक की उम्र के 96 फीसदी बच्चों का जन्म स्वास्थ्य केंद्रों में हुआ। एक गर्भवती महिला की प्रसव पूर्व देखभाल का औसत समय ऐतिहासिक औसत के अनुरूप था। ये आंकड़े महामारी से पहले के स्तर के समकक्ष हैं। हालांकि आंगनबाड़ी आधारित पोषण सेवाओं में बाधाएं जारी थीं।'
इंटरनेशनल जर्नल ऑन एप्लाइड सोशियोलॉजी में प्रकाशित मैटरनल हेल्थ इन इंडिया ड्यूरिंग कोविड-19 : मेजर इश्यूज शीर्षक से प्रकाशित एक अन्य शोध ने कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष पेश किए हैं। यह अध्ययन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के तहजीब अनीस और मोहम्मद अकरम ने किया था। उनका निष्कर्ष है, 'यातायात सुविधाओं के निलंबित रहने, प्रतिबंधित आवाजाही, सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं और दवाओं की सीमित उपलब्धता ने गर्भवती महिलाओं की प्रसव सुरक्षा, संस्थागत प्रसव और प्रसव बाद की सुरक्षा तक पहुंच को बाधित किया।'
आंकड़ों से परे, लेखक स्वास्थ्य तैयारियों के बारे में एक बड़ी बात करते हैं, जो मुझे लगता है कि इस समय का प्रमुख संदेश है। वह आगाह करते हैं, 'सार्वजनिक आपात स्थितियों से निपटने के दौरान, सरकार को लोगों के स्वास्थ्य के अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए, और यह तभी किया जा सकता है, जब सामान्य दिनों में, स्वास्थ्य प्रणाली पूरी तरह से दक्षता और निष्पक्षता के साथ काम करती है।' इसका अर्थ यह हुआ, जैसा कि उन्होंने रेखांकित किया, कि सार्वजनिक आपात स्थितियों में भी गर्भवती महिलाओं को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलनी चाहिए और उन तक उनकी पहुंच होनी चाहिए।
जो हो चुका उसे बदला नहीं जा सकता। हालांकि यह जरूरी है कि सरकार प्राथमिकता के साथ ऐसी सारी महिलाओं की पहचान करे, जिन्हें लॉकडाउन और उसके बाद की अवधि के दौरान महत्वपूर्ण चिकित्सा देखभाल प्राप्त नहीं हो सकी थी, और अब उन्हें इसका कोई हर्जाना दे, जिससे परिस्थितियों को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। छोटे बच्चों को भी निश्चय ही आने वाले समय में अतिरिक्त देखभाल की जरूरत होगी। आखिर इसका संबंध भारत के भविष्य से है और इसे राजनीतिक एजेंडे में शीर्ष पर होना चाहिए।
सोर्स: अमर उजाला