बेहतरीन सिनेमा की बेअकल नकल ऐसी दिखाई देती है
इन दिनों जब ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर हर अगली हिंदी फिल्म या सीरीज की रिलीज के बाद मन में एक ही सवाल आता है कि
मनीषा पांडेय।
इन दिनों जब ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर हर अगली हिंदी फिल्म या सीरीज की रिलीज के बाद मन में एक ही सवाल आता है कि अकाल कहानियों का है या कहानी कहने की कला का, बीते हफ्ते नेटफ्लिक्स पर एक नई हिंदी फिल्म रिलीज हुई. नाम है- धमाका. फिल्म के शुरुआती दस मिनट आपको बांधे या न बांधे, लेकिन इतना तो समझ में आ ही जाता है कि इस बार कहानी में कहने के लिए कोई नई बात है. कहने का अंदाज भी नया लगता है. फिल्म शुरू होते ही बांध भी लेती है.
लेकिन जैसे ही 15 मिनट गुजरते हैं, एक डेजावू का सा एहसास होने लगता है. अरे, ये सबकुछ पहले भी कहीं देखा, सुना सा क्यों लग रहा है. ये सब पहले भी होकर गुजर चुका है. कुछ वैसा ही एहसास, जैसा साल 2010 में संजय लीला भंसाली की फिल्म गुजारिश देखते हुए हो रहा था. ऐसा क्यों लग रहा है कि ये कहानी मैं पहले भी देख चुकी हूं.
2004 में जिस स्पेनिश फिल्म द सी इनसाइड को बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म के एकेडमी अवॉर्ड से नवाजा गया था, गुजारिश उस महान फिल्म की थोड़ी ठीक-ठाक नकल थी.
ठीक वैसे ही जैसे ये राम माधवानी की फिल्म धमाका 2013 में आई किम ब्युंग वू की अवॉर्ड विनिंग फिल्म द लाइव टेरर की बेअकल किस्म की नकल है, जिसका एहसास आपको फिल्म के 15 मिनट गुजर जाने के बाद होता है. जिस शुरुआती आइडिया के आइडिया ने पहले बांधा था, अब वही आइडिया हाथ और दिमाग से फिसलने लगता है. ये एहसास और भी ज्यादा भारी हो सकता है, अगर आप द लाइव टेरर पहले देख चुके हैं. उस फिल्म का सिर्फ आइडिया ही नहीं, एक-एक फ्रेम, डायलॉग और स्क्रीन पर गुजर रहा एक-एक मिनट इतना कसा हुआ है कि एक पल को स्क्रीन से नजर हटे तो लगता है कि कुछ जरूरी छूट न जाए. उसके ठीक उलट धमाका ऐसी है कि आप फिल्म देखते हुए अपने मोबाइल में चार राउंड लूडो भी खेल लेंगे तो कुछ भी जरूरी मिस नहीं करेंगे.
क्या ये अनायास है कि हिंदी सिनेमा में थॉट प्रवोकिंग आइडियाज का इतना अकाल है. पिछले कुछ सालों में आई कुछ माइंड ब्लोइंग फिल्में याद करिए, जिसे देखते हुए लगा हो कि इसका आइडिया वही हीरो-हिरोइन, प्यार-मुहब्बत, इश्क-दोस्ती, अंडरवर्ल्ड, चोर-पुलिस के आइडिया से कुछ अलग है. कहानी का ट्रीटमेंट बाद में चाहे जैसा भी रहा हो, लेकिन आइडिया में कुछ नई बात जरूर थी, जो सीने में धक्क से लगी थी.
2007 में आई सागर बेल्लारी की फिल्म 'भेजा फ्राय,' जिसका आइडिया इतना यूनीक और रिफ्रेशिंग था, वो दरअसल 2007 की एक फ्रेंच फिल्म द डिनर गेम का हिंदी रीमेक था, जो फ्रांसिस वेबर ने बनाई थी. यहां तक कि बेहद टाइपकास्ट और एक ही तरह की फिल्में बनाने वाले महेश भट्ट की मर्डर ट्रायलॉजी की तीसरी फिल्म मर्डर 3 जब रिलीज हुई तो भी उसकी कहानी भी काफी नई सी लगी थी. बाद में पता चला कि वो तो स्पेनिश भाषा की कोलंबियन फिल्म द हिडेन फेस की फ्रेम टू फ्रेम कॉपी है. वो फिल्म इस कदर नकल करके बनाई गई थी कि उसका एक दृश्य, एक कैमरा एंगल भी ओरिजिनल नहीं था.
धमाका भी वैसे ही उस कोरियन फिल्म की नकल है, लेकिन ये हिंदी वर्जन ओरिजनल के पैर के नाखून बराबर भी नहीं है. अगर आप ओरिजिनल फिल्म का ट्रेलर भर यूट्यूब पर देखें तो समझ आता है कि कैसे फिल्म का सेट, कैमरा एंगल और यहां तक कि एक-एक दृश्य ओरिजिनल की पूरी तरह नकल है, लेकिन हिंदी फिल्म में आत्मा नहीं है. वो कनेक्ट और वो इमोशनल पावर नहीं, जिसने इतने सारे अवॉर्ड और रिकग्निशन द लाइव टेरर की झोली में डाल दिए थे. अगर अपना दिमाग लगाना और सोचना न हो तो नकल का काम तो आसान होना चाहिए. लेकिन नकल के लिए भी अकल चाहिए और बिना ओरिजिनैलिटी के नकल भी कुछ खास कमाल नहीं कर पाती.
1980 में दक्षिण कोरिया में जन्मे किम ब्युंग वू जब हान यूनिवर्सिटी में सिनेमा की पढ़ाई कर ही रहे थे, तभी उन्होंने पांच मिनट की एक शॉर्ट फिल्म बनाई- क्राय. यह फिल्म काफी चर्चित रही और इसे कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया. किम ब्युंग चूंकि बिना किसी सपोर्ट और बिना किसी गॉडफादर के अकेले काम कर रहे थे तो उनको दक्षिण कोरियाई सिनेमा में भी अपनी जगह बनाने और सफलता पाने में वक्त लगा. उनकी ज्यादातर फिल्में बहुत कम बजट वाली और सेल्फ फंडेड थीं. 2003 में अपनी पहली फीचर फिल्म एनामॉर्फिक युंग ने सिर्फ 4000 डॉलर में बनाई थी और वो सारा पैसा अपनी जेब से लगाया था. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भले कमाल न दिखा पाई हो, लेकिन क्रिटिक्स की नजर में उस फिल्म के साथ ही युंग का स्थान बहुत ऊंचा हो गया.
2013 में द टेरर लाइव रिलीज होने पर अनगिनत अवॉर्ड युंग की झोली में आ गिरे. न्यू डायरेक्टर के अवॉर्ड से लेकर बेस्ट फिल्म और क्रिटिक्स अवॉर्ड तक इस फिल्म को हासिल हुए. दुनिया की कई भाषाओं में द टेरर लाइव के राइट्स बिके हैं और उम्मीद है, आने वाले समय में स्पेनिश समेत और कई भाषाओं में हमें इस फिल्म का रीमेक देखने को मिले.
रीमेक में कोई बुराई नहीं है. आखिर दुनिया की अब तक की सबसे ज्यादा चर्चित रही, चाही और सराही गई सीरीज होमलैंड भी एक ओरिजिनल इस्राइली सीरीज, द प्रिजनर ऑफ वॉर का रीमेक थी. लेकिन ऐसा कम ही होता है कि रीमेक ओरिजिनल को भी सरपास कर जाए. अब मूल कहानी का नाम सिर्फ इस संदर्भ के लिए आता है कि होमलैंड उस पर आधारित है. होमलैंड ने पूरी दुनिया में किस्सागोई के इतिहास में अपनी जो जगह और नाम कमाया है, वो उस कल्पना के सच हो जाने की तरह है, जो कभी मुमकिन नहीं लगती थी.
द लाइव टेरर उसके मुकाबले कहीं नहीं ठहरती, लेकिन धमाका तो किसी के भी मुकाबले में कहीं नहीं ठहरती. एक बेहद ढीली, सुस्त, कमजोर और लचर सी फिल्म, जिसके आइडिया ने थोड़ी देर की थ्रिल जरूर दी थी, लेकिन बाद में पता चला कि वो आइडिया भी हमारा खुद का सोचा, कल्पना किया हुआ आइडिया नहीं था. वो हमने कहीं और से उड़ाया था और उड़ाकर उसका कबाड़ा कर दिया.