कुतर्क के जरिये कृषि कानूनों का हो रहा विरोध, मंडियों और आढ़तियों के वर्चस्व वाली व्यवस्था से निजात दिलाने वाले हैं ये कानून

मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों पर तकरार जारी है।

Update: 2021-02-12 05:32 GMT

मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों पर तकरार जारी है। इन तीनों कानूनों के समग्र आकलन से यही सार निकलेगा कि उनका विरोध तार्किक आधार पर न होकर राजनीतिक संकीर्णता के चलते हो रहा है। इन कानूनों का मकसद किसानों को सशक्त कर उन्हें बाजार से जोड़ना है। इस प्रक्रिया में यह भी सुनिश्चित किया गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और मंडी समितियों पर भी कोई आंच नहीं आएगी। इनमें पहला कानून किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020 है। यह किसानों को अपने क्षेत्र में कृषि उत्पाद विपणन समितियों यानी एपीएमसी से इतर अपनी उपज बेचने की आजादी देता है। इसकी धारा 3 किसानों को अपने राज्य या राज्य की सीमा से बाहर उपज को ले जाने की स्वतंत्रता देती है। एक अन्य धारा के अनुसार किसानों के साथ लेनदेन करने वाले व्यापारी को उसी दिन या अधिकतम तीन कार्य दिवसों में किसान को हर हाल में भुगतान करना होगा।



यह कानून केंद्र सरकार को समयबद्ध विवाद निस्तारण के लिए कृषि उपज मूल्य सूचना एवं बाजार आसूचना (इंटेलीजेंस) तंत्र विकसित करने की गुंजाइश देता है। इस कानून में जहां किसानों को स्थानीय एपीएमसी या उससे इतर विकल्प चुनने की आजादी है, वहीं व्यापारियों के लिए किसानों को उनकी उपज का तय समय पर भुगतान सुनिश्चित करने का प्रविधान है। इन प्रविधानों का विरोध समझ से परे है, क्योंकि इसमें अगर किसी पर शिकंजा कसा गया है तो आढ़तियों और दलालों पर। यही कारण है कि वे किसानों को गुमराह कर उनके आंदोलन को सभी संसाधन उपलब्ध करा रहे हैं।

पूर्व निर्धारित कीमत पर फसल के अग्रिम अनुबंध का अधिकार प्रदान करता है यह कानून

दूसरा कानून मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाएं अधिनियम, 2020 है। यह कानून कृषि उत्पादों के कारोबारियों-निर्यातकों को एक पूर्व निर्धारित कीमत पर फसल के अग्रिम अनुबंध का अधिकार प्रदान करता है। इसकी धारा 3(1) के अनुसार किसान अपनी उपज के लिए लिखित अनुबंध कर सकते हैं। यह अनुबंध अधिकतम पांच वर्षों के लिए किया जा सकता है। इस कानून का सबसे महत्वपूर्ण अंश यह है कि इसमें जमीन के किसी भी प्रकार के सौदे का उल्लेख नहीं। कृषि अनुबंध में न तो जमीन को पट्टे पर लिया जा सकता है, न उसे गिरवी रखा जा सकता है और न ही उसे बेचा जा सकता है। इसकी धारा 13(1) में भी विवाद निस्तारण तंत्र की व्यवस्था है।
तीसरा कृषि कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन से जुड़ा है। इसमें प्रविधान है कि खाद्य उत्पादों की आपूर्ति केवल असाधारण परिस्थितियों में ही नियंत्रित की जाएगी। यानी युद्ध, अकाल, भारी मूल्य वृद्धि और विकराल प्राकृतिक आपदाओं में ही ऐसा हो सकेगा। आखिर ऐसी किसी भी पहल से आपत्ति क्यों?

किसानों को मंडियों और आढ़तियों के वर्चस्व वाली व्यवस्था से मिलेगी निजात
वास्तव में ये कानून किसानों और कारोबारियों को पुरातन व्यवस्था से मुक्ति दिलाते हैं। ये प्रतिस्पर्धा को बढ़ाते हैं ताकि किसान स्थानीय बाजार के मोहताज न बने रहें। दूसरे शब्दों में कहें तो इनसे बाजार की ताकतें प्रभावी हो जाएंगी और उसमें मंडियों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनना होगा। इस बीच एमएसपी का सहारा निरंतर मिलता रहेगा। इससे किसानों को मंडियों और आढ़तियों के वर्चस्व वाली व्यवस्था से निजात मिलेगी। इन नए कृषि कानूनों से अगर किसी को चिंतित होना चाहिए तो उपभोक्ताओं को, क्योंकि सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर कुछ प्रमुख उत्पादों की कीमतों और भंडारण के मामले में हस्तक्षेप के अपने अधिकार को सीमित कर लिया है। यानी उपभोक्ता अब पूरी तरह बाजार के रुझान पर निर्भर रहेंगे। इससे भला किसान कैसे प्रभावित होंगे?
नए कृषि कानूनों पर राकांपा के मुखिया शरद पवार ने खाई सबसे बड़ी पलटी

कृषि कानूनों पर तकरार की चर्चा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के उस पाखंड के बिना अधूरी रहेगी, जिसका वह अभी प्रदर्शन कर रहा है। कांग्रेस के नेतृत्व वाला यह गठजोड़ अपने दस वर्षीय शासन में कृषि सुधारों की हिमायत करता रहा, लेकिन अब उनके विरोध पर आमादा है। यह बड़ा विचित्र है। सबसे बड़ी पलटी राकांपा के मुखिया शरद पवार ने खाई है, जो केंद्र में कृषि मंत्री रहते इन सुधारों के लिए दौड़-भाग करते रहे। बतौर कृषि मंत्री पवार ने राज्यों को एपीएमसी अधिनियम में संशोधन करने की जोरदार वकालत की। उनकी दलील दी थी कि निजी क्षेत्र के रूप में एक विकल्प देना किसानों और उपभोक्ताओं, दोनों वर्गों के हितों की पूर्ति करेगा।
कृषि क्षेत्र को बेहतर ढंग से चलने वाले बाजार की है दरकार

उन्होंने तर्क दिया कि कृषि की वृद्धि के लिए एक सुसंचालित बाजार आवश्यक है, जिसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी अनिवार्य होगी। उन्होंने वर्ष 2005 से 2007 के बीच मुख्यमंत्रियों का ध्यान आकर्षण करने के साथ ही अपने मंत्रालय द्वारा सुझाए एपीएमसी नियमों के मसौदे से अवगत कराया। इसी सिलसिले में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को नवंबर 2011 में लिखे पत्र में उन्होंने दोहराया कि समावेशी वृद्धि के लिए कृषि क्षेत्र को बेहतर ढंग से चलने वाले बाजार की दरकार है और उसमें 'निजी क्षेत्र की अहम भूमिका जरूरी होगी।'

किसानों के लिए सरकार को एमएसपी पर उपज बेचने का विकल्प नहीं होगा खत्म

उन्होंने कहा कि इससे फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान को कम करने के साथ ही उपभोक्ता कीमतों से किसानों के पास बड़ा हिस्सा पहुंचेगा। उन्होंने मुख्यमंत्रियों से एपीएमसी अधिनियम में आवश्यकता अनुसार संशोधन का आग्रह भी किया। वही पवार अब नया राग अलाप रहे हैं। अब वह कह रहे हैं कि मंडियां प्रभावित होंगी और कॉरपोरेट को उपज बेचने वाले किसानों के लिए एमएसपी की गारंटी नहीं होगी। उनकी यह बात समझना मुश्किल है, क्योंकि किसानों के लिए सरकार को एमएसपी पर उपज बेचने का विकल्प खत्म नहीं होगा।

किसानों पर ये कानून एकाएक थोपने का दुष्प्रचार भी निराधार है। कृषि सुधारों की बातें दो दशकों से हो रही हैं। कई सरकारों ने इसमें दिलचस्पी भी दिखाई। केंद्र सरकार ने वर्ष 2017 में एक मॉडल कृषि विपणन अधिनियम जारी किया था। उसे 11 राज्यों ने पूरी तरह और छह राज्यों ने आंशिक रूप से अपनाया। इसके बाद 2018 में केंद्र ने मॉडल कृषि अनुबंध खेती अधिनियम पेश किया, जिसे दो राज्यों ने अपनाया। नए कानूनों का मुखर विरोध कर रहे पंजाब में तो कृषि अनुबंध कानून 2013 से ही लागू है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों को समझना होगा कि भारत 28 राज्यों और आठ केंद्रशासित प्रदेशों वाला देश है। कई राज्यों में किसानों ने नए कृषि कानूनों पर खुशी जताई है। महज दिल्ली से भौगोलिक नजदीकी ही पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की बात को निर्णायक नहीं बना सकती।


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