देश में कई राज्यों के बीच है सीमा विवाद, असम-मिजोरम की घटना के बाद अब इन्हें सुलझाना होगा
पिछले दिनों जिस तरह से असम और मिजोरम के पुलिस के बीच सीमा विवाद पर हिंसक झड़पें हुईं
पिछले दिनों जिस तरह से असम और मिजोरम (Assam And Mizoram) के पुलिस के बीच सीमा विवाद पर हिंसक झड़पें हुईं, ऐसा प्रतीत होने लगा था कि यह दो राज्यों के बीच का सीमा विवाद ना होकर भारत और चीन (India And China) के बीच का सीमा विवाद बन गया है. भारत और चीन के बीच झड़पों में दशकों से बन्दूक और गोला बारूद का इस्तमाल नहीं किया जाता. पर असम और मिजोरम का सीमा विवाद इतना भयावह हो गया था कि वो बंदूकें जिन्हें पुलिस को आतंकवादियों और अपराधियों से लड़ने के लिए दिए जाते हैं, वह एक दूसरे पर दाग दिए गए, वह हथियार जो कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए दिया जाता है, उसका इस्तमाल कानून तोड़ने के लिए किया गया, जो बेहद शर्मनाक और निन्दनीय था.
भारत के पूर्वोत्तर (Northeast) में सिर्फ असम और मिजोरम के बीच ही सीमा विवाद नहीं है, असम का सीमा विवाद नागालैंड, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के साथ भी है. कारण साफ है. अंग्रेजों के ज़माने में सिक्किम को छोड़ कर पूरा पूर्वोत्तर सिर्फ असम राज्य के नाम से ही जाना जाता था. त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, मणिपुर और नागालैंड का गठन अलग-अलग समय पर असम को विभाजित करके किया गया.
पूर्वोत्तर के विवाद की जिम्मेदार ब्रिटिश हुकूमत पुरानी कांग्रेस की सरकारे हैं
अगर पूर्वोत्तर के सीमा विवाद की जड़ तक जाएं तो इसकी जिम्मेदारी ब्रिटिश हुकूमत और स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस पार्टी की सरकार की है. अंग्रेजों ने ना सिर्फ भारत और तिब्बत के बीच विवादित नक्शा बनाया जिसके फलस्वरूप आज भी भारत और चीन के संबंधों के कटुता है, बल्कि पूर्वोत्तर के कई जंगली हिस्सों का जहां वह जा नहीं सके ठीक से नक्शा नहीं बनाया गया. आज़ादी के बाद नेहरु सरकार ने राज्य पुनर्गठन के लिए एक आयोग का गठन किया जिसने अंग्रेजों के गलत और अनमने ढंग से बनाये नक्शों के आधार पर ही नये राज्यों का गठन कर दिया. विवाद खत्म नहीं हुआ बल्कि पूर्वोत्तर में आतंकवाद की शुरुआत ही इसी मुद्दे के आधार पर हुई. कांग्रेस सरकार इन विवादों को सुलझाने की जगह उसपर लीपापोती का काम ही करती रही.
देश में अन्य राज्यों के बीच भी है सीमा विवाद
विभिन्न राज्यों के बीच सीमा का विवाद सिर्फ पूर्वोत्तर तक ही सीमित नहीं है. महाराष्ट्र और कर्णाटक, कर्णाटक और केरल, केरल और आंध्रप्रदेश, पंजाब और हरियाणा के बीच भी विवाद है. यह अलग बात है कि असम और मिजोरम के बीच युद्ध जैसे हिंसक झड़पें कहीं और नहीं हुई. पर सच्चाई यही है कि आज तक किन्हीं भी दो राज्यों के बीच का सीमा विवाद सुलझा नहीं है.
फ़िलहाल असम और मिजोरम के बीच का सीमा विवाद सिर्फ थम गया है, ख़त्म नहीं हुआ है. चूंकि केंद्र और पूरे पूर्वोत्तर में बीजेपी या एनडीए के तहत बीजेपी के सहयोगी दलों की सरकार है, केंद्र सरकार इस विवाद पर सिर्फ मिट्टी डालने में ही सफल हुई है. राज्यों का सीमा विवाद एक ऐसा ज्वालामुखी है जो भविष्य में कभी भी फट सकता है. शायद अब वह समय आ गया है कि राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक नए आयोग को गठित की जाए.
कई राज्यों को बांटने की जरूरत है
ऐसा भी नहीं है कि किसी राज्य के विभाजन से सीमा विवाद जुड़ा होता है. गुजरात का गठन बॉम्बे (महाराष्ट्र) से अलग हो कर हुआ पर दोनों राज्यों के बीच ऐसा कोई विवाद नहीं है. सन 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने तीन नए राज्यों का गठन किया – उत्तराखंड, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ पर उत्तराखंड-उत्तर प्रदेश, झारखण्ड-बिहार और छत्तीसगढ़-मध्य प्रदेश के बीच सीमा का कोई विवाद नहीं है. केंद्र में पिछली कंग्रेस पार्टी सरकार ने आंध्र प्रदेश को दो टुकड़ों में करके पृथक तेलंगाना राज्य का गठन किया और इन दोनों राज्यों के बीच भी सीमा का कोई विवाद नहीं है. इतना तो तय है कि अगर सरकार की नीयत साफ़ हो तो इन समस्याओं का समाधान हो सकता है. पर जब समस्याओं की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकी जानी लगे, जैसा कि अब तक होता आया है तो फिर विवाद सुलझने की जगह उलझ जाता है.
एक नए राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि कई राज्यों में दशकों से पृथक राज्य बनाने की मांग लंबित पड़ी है. पश्चिम बंगाल से पृथक गोरखालैंड राज्य की मांग काफी पुरानी है. भले ही पश्चिम बंगाल सरकार राज्य के विभाजन के लिए तैयार ना हो, पर सच्चाई यही है कि गोरखालैंड के नेपाली भाषी लोगों का बांग्ला भाषी पश्चिम बंगाल के लोगों से वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन सब कुछ अलग है. इसी तरह उत्तर प्रदेश से पृथक बुंदेलखंड राज्य के गठन की माग भी काफी पुरानी है. पश्चिम उत्तर प्रदेश को भी अलग राज्य का दर्ज़ा देने की मांग वर्षों से चल रही है.
पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोगों की भी वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन और भाषा राज्य के अन्य हिस्सों से बिलकुल अलग है. वहीं दूसरी तरफ यह तथ्य भी है कि छोटे राज्यों का विकास दर काफी तेज होता है. पंजाब से अलग हो कर हिमाचल प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों का गठन हुआ. जब ये दोनों राज्य पंजाब का हिस्सा होते थे तो इनकी गणना पिछड़े इलाकों में होती थी. पर दोनों राज्यों ने अलग होकर अभूतपूर्व विकास किया. यही हाल छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उत्तराखंड का भी है, जहां अलग राज्य बनने के बाद विकास दर में वृद्धि देखी गयी.
दिल्ली भी एक अलग पृथक राज्य बनेगा?
उत्तराखंड के उत्तर प्रदेश से अलग होने के बावजूद भी उत्तर प्रदेश काफी बड़ा राज्य है. कई बार इसका जिक्र होता रहा है कि प्रदेश को चार अलग-अलग राज्यों में विभजित कर दिया जाएगा, पश्चिम उत्तर प्रदेश- हरित प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश- पूर्वांचल, मध्य प्रदेश से सटे झांसी क्षेत्र को बुंदेलखंड और मध्य उत्तर प्रदेश को अवध नाम से पृथक राज्य बना दिया जाएगा. पिछले कुछ दिनों से यह चर्चा भी चल रही है कि दिल्ली को भी पृथक राज्य का दर्जा दिया जा सकता है. इसके तहत दिल्ली के आसपास के हरियाणा और उत्तर प्रदेश के इलाके जैसे गुरुग्राम, फरीदाबाद, नोएडा, ग़ाज़ियाबाद और मेरठ को मिला कर पृथक दिल्ली राज्य बना दिया जाए और देश की राजधानी क्षेत्र नई दिली ही सिर्फ केंद्र शासित प्रदेश रहे.
बदले में पश्चिम उत्तर प्रदेश के बाकी इलाकों का हरियाणा के साथ विलय कर दिया जाए, क्योंकि हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में काफी समानताये हैं. उस स्थिति में पश्चिम उत्तर प्रदेश पृथक राज्य नहीं बनेगा, बल्कि इसके कुछ हिस्से दिल्ली राज्य में शामिल किये जायेंगे और बाकी इलाकों का हरियाणा में विलय हो जायेगा.बिहार में भी मिथिला को पृथक राज्य बनाने की मांग काफी पुरानी है. महाराष्ट्र में विदर्भ राज्य की मांग भी दशकों पुरानी है.
अब विवादों को सुलझाने का समय आ गया है ना कि उसे कालीन के अंदर छुपाने का
नए राज्य पुनर्गठन आयोग की यह जिम्मेदारी होगी कि वह मौजूदा राज्यों के बीच सीमा विवाद का हल निकाले और नए राज्यों के गठन की मांग को जांचे और इस पर निर्णय ले. इस आयोग का निर्णय सभी को मानना होगा और इसके निर्णय को सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही चुनौती दी जा सकेगी. सुप्रीम कोर्ट से भी यह अपेक्षा होगी कि वह किसी विवाद पर शीघ्र ही निर्णय ले, ना कि उसे ठंडे बस्ते में डाल दे. असम ने नागालैंड के साथ सीमा विवाद पर 1988 में और अरुणाचल प्रदेश के साथ सीमा विवाद पर 1989 में याचिका दायर की थी पर तीस वर्षों से भी ज्यादा समय गुजर गया और सुप्रीम कोर्ट इन याचिकाओं को बड़े आराम से भूल सी गयी है, शायद इसलिए कि न्यायपालिका इस विवाद में नहीं पड़ना चाहती या फिर विभिन्न केंद्र सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट से निवेदन किया हो कि सीमा विवाद मधुमक्खी का छत्ता है जिसमे हाथ नहीं डालना ही बेहतर होगा.
पूर्व में जो भी कारण रहा हो कि इन विवादों को सुलझाने की जगह उसे कालीन के अन्दर डालने का काम किया गया, पर भारत के दो राज्यों के बीच युद्ध एक शर्मनाक घटना है. समय आ गया है कि इन विवादों और मांगों को हमेशा के लिए सुलझा लिया जाये. राज्यों की संख्या बढ़ने से और छोटे राज्यों के गठन से भारत कमजोर नहीं होगा बल्कि भारत में शांति स्थापित हो पाएगी और खुशहाली बढ़ेगी. जरूरत है दृढ़ इक्षाशक्ति और मजबूत इरादों की. देखना होगा कि असम और मिजोरम में बीच हुए हिंसक झड़प के बाद वर्तमान केंद्र सरकार का इस जटिल विषय पर क्या निर्णय होगा.