जो मुश्किल घड़ियों में खुशियां देने वाले उत्पाद बनाते हैं दुनिया हमेशा उन्हें याद रखती है

तकरीबन पांच दशक पहले रेलवे आरक्षण क्लर्क की तनख्वाह बमुश्किल महीना चलाने लायक होती थी

Update: 2022-02-15 11:13 GMT
एन. रघुरामन का कॉलम:
तकरीबन पांच दशक पहले रेलवे आरक्षण क्लर्क की तनख्वाह बमुश्किल महीना चलाने लायक होती थी, वो भी तब जब दंपति बच्चों की खाितर खुद कई चीजें कुर्बान करने के लिए तैयार रहते थे। वह वाकई मुश्किल भरा दौर था। संक्षेप में, हम उस समय के सबसे ज्यादा तंगहालों में से एक थे। पर जब हमारे पारिवारिक डॉक्टर हरिदास नागपुर में हमारे घर पर पिता से रेलवे टिकटों में आरक्षण संबंधी कुछ मदद मांगने आते, तो मैं सबसे खुश शख्स होता था। मैं अपनी खिड़की से देखा करता था कि बाहर खड़े स्कूटर की ओर कौन-कौन देख रहा है।
अगर आपके दरवाजे के बाहर स्कूटर खड़ा है तो ये उन दिनों गर्व की बात होती थी। राहगीर बजाज स्कूटर और मेरा घर देखा करते थे और मेरे अंदर एक अलग ही गर्व की अनुभूति होती थी। उन दिनों बजाज स्कूटर सभी कामकाजी वर्ग और उनके परिवारों के लिए स्टेटस सिंबल हुआ करता था और मैं कोई अपवाद नहीं था। जब मेरे पिता और डॉ. हरिदास चाय के बीच एक-दूसरे से बातों में मशगूल होते, तो मैं बाहर भागकर स्कूटर पर चढ़ जाता और गर्व से हैंडल थामते हुए मुंह से 'बर्रर्रर्रर्रर्रर्र' आवाज करता, जैसे मैं ही स्कूटर चला रहा हूं।
यकीन करें उस बच्चे के लिए असली बजाज स्कूटर पर उस खयाली सवारी के चंद लम्हे 'मैरी-गो-अराउंड' के दो चक्कर जैसे थे। यह उन 'मुश्किल घड़ियों में सच्ची खुशी' थी! ये पुरानी यादें राहुल बजाज को श्रद्धांजलि अर्पित करने का मेरा तरीका है, जिनका इस शनिवार को निधन हो गया और जिनका उत्पाद कामकाजी वर्ग के गर्व का पर्याय था। बजाज नाम के ब्रांड और उनके परिवार की ओर मेरा लगाव उस समय शुरू हुआ, जब मेरे पिता वर्धा के पास सेवाग्राम, गांधी आश्रम में पोस्टेड थे।
इसी आश्रम में मेरे दादा के भाई रहा करते थे क्योंकि वह खुद महात्मा गांधी को तमिल सिखाते थे। वह बताते थे कि कैसे राहुल बजाज के दादा और बजाज समूह के संस्थापक जमनालाल बजाज ने अपने गुरु गांधीजी को सत्याग्रह आश्रम बनाने के लिए पैतृक जमीन दान कर दी थी। हम सब जानते हैं कि सेवाग्राम 1947 तक स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र रहा। और बच्चे के तौर पर वहां रहकर मैंने देखा कि आत्मिक खोज में दुनियाभर से गांधीजी को चाहने वाले वहां आते थे।
बाद में अपने युवा दिनों में मैंने देखा कि जब कई सरकारें देश की बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित थी, राहुल बजाज इस पर चर्चा करते थे कि कैसे उनके स्कूटर में स्टील की मात्रा बढ़ाकर उसे और सुरक्षित बना सकें, ताकि परिवार के चार बच्चे भी उस पर बैठ सकें! उन मजेदार तस्वीरों को याद करें जिसमें परिवार बच्चों को ले जाता था, एक सामने खड़ा रहता, एक माता-पिता के बीच में, एक पीछे मां के कूल्हे कसकर पकड़े रहता कि फिसल न जाए और सबसे दुबला-पतला पिता की गर्दन पर चढ़ा रहता!
जब हर कोई उन तस्वीरों पर हंसता तो राहुल बजाज उनमें से थे, जो अपने इंजीनियर्स को ऐसे परिवारों की खातिर स्कूटर और ज्यादा सुरक्षित बनाने के लिए कहते। संक्षेप में, उस समय की मोटरबाइक्स की तुलना में बजाज स्कूटर में स्टील ज्यादा था। यह वही व्यक्ति हैं, जिनसे मैं एक बार पुणे के एक मॉल में मिला था।
वे अपने लिए जूते खरीद रहे थे और आठ हजार रु. से ऊपर के किसी भी विकल्प के लिए इंकार कर दिया था। जब उनकी बहू ने मजाक में कहा, 'पापा आपको पता है, आपके बेटे के जूते कितने के हैं', तब राहुल बजाज ने मुस्कुराकर कहा, 'मेरे बेटे के पिता अमीर हैं, पर मेरे नहीं!'
फंडा यह है कि अच्छे वक्त में तो हर कोई खुशियां दे सकता है, पर दुनिया हमेशा उन्हें याद रखती है, जो मुश्किल घड़ियों में खुशियां देने वाले उत्पाद बनाते हैं।
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