अकेलेपन से जूझ रही दुनिया, विकास और उन्नति के ढोल के बावजूद अकेले हो रहे लोग
सोर्स- जागरण
क्षमा शर्मा।
जापान के बारे में प्रायः ऐसे समाचार आते हैं कि वहां परिवार लगभग टूट गए हैं और बहुत से युवा परिवार नहीं बसाना चाहते। बड़ी संख्या में लड़के-लड़कियां विवाह के इच्छुक नहीं। कुछ साल पहले जापान में अकेलेपन की समस्या का समाधान करने के लिए एक मंत्रालय बनाया गया था। ब्रिटेन में भी ऐसा मंत्रालय बनाया गया था। वहां 2017 में काक्स कमीशन ने अपने अध्ययन में पाया था कि ब्रिटेन में 90 लाख के आसपास लोग अकेलेपन की समस्या से पीड़ित हैं। चीन की सरकार अब चाहती है कि दंपती तीन बच्चे पैदा करें, लेकिन लड़कियां बच्चे नहीं पैदा करना चाहतीं। वे कहती हैं कि क्या हम बच्चे पैदा करने की मशीनें हैं? जिस परिवार को इन दिनों शोषण का सबसे बड़ा कारण बताया जाता है, उसी परिवार के टूटने से ये आफतें आ रही हैं कि लोग अकेले होते जा रहे हैं।
अमेरिका में परिवार की वापसी के नारे 1993 से लग रहे हैं। कोरोना के दौरान परिवार की जरूरत को बहुत महसूस किया गया, लेकिन पहले जिस संस्था को तमाम विमर्शों के द्वारा ध्वस्त किया गया, क्या उसकी वापसी इतनी आसान है? ध्यान से देखें तो परिवार के टूटने का सबसे अधिक लाभ दुनिया भर के व्यवसायी वर्ग को हुआ है। यदि सब लोग इकट्ठे रहते हैं तो उनके खर्चे भी कम होते हैं। एक घर, एक टीवी, एक कार से काम चल जाता है। जिम्मेदारियां बंटी होती हैं, इसलिए किसी एक पर इसका भार नहीं पड़ता। यह सच है कि परिवार में बहुत सी उलझनें भी होती हैं, लेकिन वे उतनी बड़ी नहीं, जितनी हम इन दिनों देख रहे हैं।
तमाम फिल्मों, धारावाहिकों, साहित्य की विधाओं में अक्सर अकेलेपन की एक गुलाबी तस्वीर दिखाई जाती है, जिसका मुख्य विचार होता है कि दुनिया के लिए नहीं, परिवार के लिए नहीं, अपने लिए जीना सीखो। जब तक हम युवा हैं, यह खुशनुमा तस्वीर बहुत अच्छी लगती है, लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, पता चलता है कि तमाम संसाधनों के बावजूद अकेले रहना कितना मुश्किल है। तब अक्सर ऐसे शिकायती लहजे सामने आते हैं कि कोई पूछता नहीं, कोई फोन तक नहीं करता। अरे भाई जो बोया है, वही तो काटना पड़ता है। जब तक युवा थे, शरीर में ताकत थी, तब तक यह विचार अक्सर ही आता था हमें किसी की जरूरत नहीं।
तब आपको किसी की जरूरत नहीं थी, अब आपकी जरूरत किसी को नहीं है तो शिकायत किससे? कोई भी रिश्ता एक दिन में परिपक्व नहीं होता। रिश्तों में हमेशा निवेश करना पड़ता है। यह निवेश, समय, संसाधन, एक-दूसरे की चिंता और देखभाल का हो सकता है, मगर पश्चिम ने तो तमाम तरह के भावनात्मक लगाव को भी 'केयर इकोनमी' कह दिया और इसे भी पैसे की तराजू में तौला। आप अकूत संपदा के मालिक हो सकते हैं, लेकिन इससे किसी की सदिच्छा और केयर नहीं खरीद सकते। अब पश्चिम की देखादेखी अगर एशियाई देशों में भी लोगों का अकेलापन बढ़ रहा है तो इसका सबसे बड़ा कारण यही स्वार्थपरकता है कि हमें बस अपने लिए जीना है।
संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं परिवार दिवस घोषित कर रही हैं, पश्चिमी देशों में लोगों का अकेलापन दूर करने के लिए तमाम स्वयं सहायता समूहों की मदद से प्रयास किए जा रहे हैं। परिवार सप्ताह मना रहे हैं, मगर इससे क्या होता है, क्योंकि यह विचार नीचे तक जा पहुंचा है कि जब तक परिवार नहीं टूटते, किसी की मुक्ति नहीं हो सकती। जापान में अकेलेपन से ग्रस्त युवा बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। भारत में अकेले लोगों की संख्या छह प्रतिशत बताई जाती है। इनमें से कई गंभीर मानसिक बीमारियों की चपेट में हैं। अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे विकसित देशों की तरह भारत, चीन एवं ब्राजील आदि देशों में भी अकेलेपन की समस्या बढ़ती जा रही है।
पिछले दिनों जापान से आई यह खबर वायरल हुई कि शोजी मोरीमोटो नामक व्यक्ति पैसे लेकर लोगों के साथ समय बिताता है, उनसे बात करता है, उनके संग घूमता है। उसका कहना है कि जिन लोगों के साथ वह समय बिताता है, वे बार-बार उसे बुलाते हैं, क्योंकि उनसे बातचीत करने वाला कोई नहीं।
अकेलेपन से जूझते लोग अब अपने समाज में भी बढ़ते जा रहे हैं। एक तरफ तमाम नई तकनीकों ने हमें दुनिया से जोड़ दिया है, मोबाइल ने बातचीत को इतना आसान कर दिया है कि लोग खूब बात कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जिनका अकेलापन बढ़ता जा रहा है। यह भी देखना दिलचस्प है कि अपनों के मुकाबले बाहर वालों से ज्यादा बातचीत हो रही है, लेकिन उनसे नहीं, जिन्हें इसकी जरूरत है। जिस विकास और उन्नति का ढोल हम लगातार पीटते हैं, वहां ऐसा क्यों है कि मनुष्य हर सुख-सुविधा के होते हुए अकेला हो जाता है?
मशहूर मनोविज्ञानी फ्रायड के बारे में कहा जाता है कि जब कोई उनके पास अपनी समस्या लेकर आता था, तो वह उससे कहते थे कि बताओ। जब वह बोलना शुरू करता, तो फ्रायड उसके पीछे जाकर बैठ जाते। कई लोग घंटों तक बोलते रहते। एक बार किसी ने उनसे पूछा कि वह इतनी देर तक कैसे बातें करते हैं? उन्होंने कहा मैं बातें नहीं करता, सिर्फ उस आदमी के मन में जो चल रहा है, उसे बाहर निकलने का मौका देता हूं। फ्रायड के इस कथन में कितनी सचाई है कि हमारे पास अपनी बात कहने और उसे सुनाने के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं, क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं।