थमी पढ़ाई के अनदेखे अंधेरे
एक घने जंगल में 21 गांव किसी गुच्छे की तरह बसे हुए
एक घने जंगल में 21 गांव किसी गुच्छे की तरह बसे हुए हैं। इनके नजदीक ही एक छोटा शहर है, जो करीब 20 किलोमीटर दूर है। इन गांवों में 20 प्रतिशत से भी कम आबादी को कोविड वैक्सीन की पहली खुराक लग पाई थी। इसके बाद, यहां के 23 सरकारी शिक्षकों ने इस संदर्भ में कुछ करने का फैसला किया। उन्होंने स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (देश में टीकाकरण अभियान की प्राथमिक इकाई) के साथ मिलकर काम करना शुरू किया। नतीजतन, लगभग छह हफ्तों के बाद वहां 80 फीसदी से अधिक आबादी को टीके की पहली खुराक मिल गई है। ये शिक्षक अब यह सुनिश्चित करने में जुटे हैं कि पूरी आबादी को पहली खुराक लग जाए और समय पर सभी को दूसरी खुराक भी मिले।
शिक्षकों का यह समूह महज टीकाकरण के लिए एक टीम की तरह काम नहीं कर रहा, बल्कि ये शिक्षक वर्षों से मिलकर काम कर रहे हैं। वे अपने शिक्षण और स्कूलों की बेहतरी के लिए एक-दूसरे की मदद करते हैं। पठन-पाठन के अलावा भी वे ग्रामीण जनजीवन का हिस्सा हैं, इसलिए टीकाकरण को लेकर पैदा हो रही कठिनाइयों को वे नजरंदाज नहीं कर पाए। उन्होंने अपनी यह कहानी विस्तार से हमें सुनाई, जब हम सब एक स्कूल परिसर के ठीक बगल में खड़े विशालकाय पेड़ के नीचे बैठे थे।
हमारे साथ उस गांव के सरपंच भी थे। उन्होंने महामारी के दौरान शिक्षकों द्वारा किए गए कामों की जानकारी दी। शिक्षकों ने बच्चों के घरों पर जाकर पूरे लगन के साथ राशन बांटा। अगर स्कूल खुले होते, तो इन अनाजों का इस्तेमाल मध्याह्न भोजन में होता। उन्होंने महामारी से निपटने की हरसंभव कोशिशें भी कीं। यहां तक कि जानलेवा दूसरी लहर में उन्होंने आइसोलेशन सेंटर चलाया। उन्होंने यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की कि स्कूल बंद होने के बावजूद बच्चों की पढ़ाई-लिखाई जारी रहे। इनमें से बहुतों ने बच्चों को छोटे-छोटे समूहों में बांटकर उनको पेड़ों की नीचे, आंगन में और गांव के तालाब की सीढ़ियों पर पढ़ाया।
सरपंच बताते हैं, 'इतनी मेहनत के बावजूद, बच्चों की पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाई। कैसे हो सकती है, जब स्कूल लगभग 18 महीने तक बंद थे। बड़े लोगों को यह सीधी सी बात क्यों समझ में नहीं आ रही है कि 18 महीने का नुकसान हुआ है, अभी एक साल लगेगा इसकी भरपाई करने में। और, ये तो इन जैसे टीचरों के साथ है, आप जरा सोचिए, जहां इतनी मेहनत नहीं हुई है, वहां क्या हाल होगा?'
यह सुनकर कि गांव में कहीं दूर के मेहमान आए हैं, सरपंच हमारे पास आए थे। उनको यह भी पता था कि हम कोई सरकारी अधिकारी नहीं हैं। इस इलाके में किसी अधिकारी या अन्य व्यक्ति का आना इतना विरल है कि सरपंच हमारे जरिये अपना संदेश, यानी अपनी 'सीधी बात' सूबे की राजधानी में बैठे फैसले लेने वाले अधिकारियों तक पहुंचाना चाहते थे।
थोड़ी ही देर में शिक्षकगण अपना आकलन बताने लगे। वे कई बातों पर एकमत थे। मसलन, 10 फीसदी बच्चे इस अवस्था में हैं, जहां वे खोई हुई अपनी शिक्षा दो महीने में इस हद तक जरूर पा सकते हैं कि उनको नए साल का पाठ्यक्रम पढ़ाया जा सके। 30 फीसदी बच्चों के लिए यह समय-सीमा छह महीने की हो सकती है और बाकी बच्चों को इस स्तर पर लाने में एक साल का वक्त लग सकता है। इसके अलावा भी शिक्षक कई बुनियादी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। जैसे, कई सारे बच्चे मैदान में खेल रहे थे, क्योंकि कक्षा में बैठने की उनकी आदत छूट चुकी थी। कक्षा में बैठने वाले ज्यादातर बच्चे भी पूरी तरह से ध्यान नहीं लगा पा रहे थे और कुछ छात्रों ने तो स्कूल से ही पल्ला झाड़ लिया था।
सप्ताह की शुरुआत में हम उस राज्य की राजधानी में भी ऐसे ही शिक्षकों के समान समूह के साथ बैठे थे, और उनके अनुमान भी करीब-करीब इसी तरह के थे। उस पूरे सप्ताह में हम सूबाई राजधानी से राज्य के उन इलाकों तक गए, जहां खेती बहुत ज्यादा होती है। हम उस राज्य के बड़े औद्योगिक शहर में भी गए और उसके जंगलों में भी। सभी जगह पठन-पाठन को लेकर आकलन कमोबेश समान थे। कोविड-काल में बच्चों को सीखने का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करने में ज्यादातर बच्चों को एक साल का समय लग सकता है।
जाहिर है, अधिकांश राज्य बच्चों की इस पूरी पीढ़ी को पढ़ाई के स्तर पर हुए भारी नुकसान की भरपाई के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं या कर भी रहे हैं, तो नाममात्र। दिक्कत यह भी है कि कई राज्य शिक्षकों पर बच्चों की परीक्षा लेने और वर्तमान कक्षा के पाठ्यक्रम पढ़ाने का दबाव बना रहे हैं। यदि हमारी सरकारें अपने रुख और कार्यशैली में बदलाव नहीं करती हैं, तो हम आने वाले अंधकार का स्वाभाविक अनुमान लगा सकते हैं। यह अंधेरा न केवल 22 करोड़ बच्चे, बल्कि हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली और पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले सकता है। एक ऐसे शिक्षा तंत्र में, जिसमें कोरोना महामारी से पहले ही स्थिति संतोषजनक नहीं थी, वहां यह चरम उदासीनता हालात को और खराब कर देगी।
दरअसल, इन 22 करोड़ बच्चों को समझ के स्तर पर जो नुकसान हुआ है, वह समय बीतने के साथ गहराता जाएगा। और, जब वे स्कूल छोड़ेंगे, तब इनकी समझ का स्तर महामारी पूर्व के बच्चों के स्तर से पीछे रहेगा। यह उनके कौशल-विकास और जीवन में मिलने वाले अवसरों को भी प्रभावित करेगा। मगर इसका प्रभाव सिर्फ उस बच्चे या उनके परिवारों पर नहीं पड़ेगा, बल्कि देश एक ऐसे श्रम-बल और नागरिकों का गवाह बनेगा, जो अपनी पूर्व की पीढ़ी की तुलना में कम समझदार होंगे। देश के तमाम पहलुओं पर इसका असर पड़ेगा।
यह एक विडंबना है कि जिस मकसद और बदलाव की मंशा के साथ राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 बनाई गई, वह अपना असर इसलिए गंवा रही है, क्योंकि कई जरूरी मुद्दों पर हम ध्यान नहीं दे रहे हैं। उन सरपंच के शब्दों में कहें, तो हम वह 'सीधी बात' नहीं समझ रहे, जिससे पूरे देश के शिक्षक अपने-अपने स्कूल में रोजाना जूझ रहे हैं। क्या हम इसे समझना चाहेंगे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)