आर्थिक शरणार्थियों की त्रासदी
आपके पास न्यूयार्क से आ रहा है यह लेख। लेकिन लेख इस आलीशान महानगर के बारे में नहीं है। इसलिए कि यहां पहुंचने के अगले दिन मैंने यहां का एक अखबार खोला तो उसके पहले पन्ने पर एक भारतीय परिवार की ऐसी कहानी छपी थी, जिसे पढ़ कर मेरा दिल दहल गया।
तवलीन सिंह: आपके पास न्यूयार्क से आ रहा है यह लेख। लेकिन लेख इस आलीशान महानगर के बारे में नहीं है। इसलिए कि यहां पहुंचने के अगले दिन मैंने यहां का एक अखबार खोला तो उसके पहले पन्ने पर एक भारतीय परिवार की ऐसी कहानी छपी थी, जिसे पढ़ कर मेरा दिल दहल गया।
कहानी का शीर्षक था 'एक परिवार की मौत तक यात्रा अमेरिका की उत्तरी निर्जन सीमा पर'। नीचे थी कहानी जगदीश पटेल, उसकी पत्नी और उनके दो बच्चों की। जगदीश पटेल गुजरात में अध्यापक थे। जब कोविड के कारण स्कूल बंद हो गए दो साल तक तो उन्होंने तय किया कि किसी न किसी तरह उन्हें अमेरिका पहुंच कर नए सिरे से अपने जीवन की शुरुआत करनी होगी। अमेरिका पहुंचना आसान नहीं है तो उन्होंने कई लाख रुपए उनको दिए जो इंसानों की तस्करी करते हैं।
मानव तस्करों ने पटेल परिवार को कनाडा और अमेरिका के बीच सीमा तक पहुंचाया, लेकिन तब तक बर्फ तूफानी तरह से गिरने लग गई थी। फिर तस्करों ने अपने 'माल' को वहीं बफीर्ली तूफान के बीच छोड़ दिया और गायब हो गए, यह कह कर कि सीमा पार करने के बाद उनकी मदद के लिए लोग मिल जाएंगे।
कुछ घंटों बाद अमेरिका की सीमा पुलिस ने गिरती बर्फ के बीच अन्य पांच लोगों को देखा और उनको बचा लिया। इसके बाद उन्होंने बर्फ में बच्चों के खिलौने और कपड़े देखे तो अपनी खोज जारी रखी। तब उनको मिले शव जगदीश और वैशाली के और उनके बच्चों के। यह परिवार गुजरात के डिंगचा गांव का था जो गांधीनगर के पास है।
बाद में पता चला कि ग्यारह भारतीय थे इस समूह में और अंदेशा हुआ सीमा पुलिस वालों को कि यह परिवार शायद बाकी लोगों से बिछड़ गया होगा। पुलिस का अंदेशा है कि इस दौरान तूफान तेज हो गया होगा और हवा जानलेवा हो गई होंगी।
पटेल परिवार आर्थिक शरणार्थी था। इस किस्म के आर्थिक शरणार्थी लाखों की तादाद में सालों से देश छोड़ कर जाते हैं उन देशों में, जहां नए सिरे से जीवन शुरू करना आसान माना जाता है। इनके अलावा भी भारत छोड़ने पर मजबूर हैं अन्य कई किस्म के लोग। यूक्रेन के खिलाफ रूस के युद्ध शुरू होने के बाद मालूम हुआ था कि यूक्रेन में कोई बीस हजार भारतीय विद्यार्थी थे वहां के मेडिकल कालेजों में भर्ती।
उनको बचाने के लिए भारत सरकार की ओर से जब 'आपरेशन गंगा' शुरू किया गया और वापस लौटने वाले विद्यार्थियों से पत्रकारों ने बातें की तब पता लगा कि देश छोड़ने पर मजबूर हुए इसलिए कि भारत में मेडिकल कालेज इतने थोड़े हैं कि इतनी विशाल आबादी के लिए सिर्फ 542 हैं। जो थोड़े बहुत निजी कालेज हैं, उनमें पढ़ाई इतनी महंगी है कि पूर्वी यूरोप और रूस जाने पर मजबूर हैं भारत के विद्यार्थी।
उनको जब बचा कर घर लाया गया तो प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया कि हम ऐसा भारत बनाने जा रहे हैं, जिसमें शिक्षा संस्थानों की कोई कमी नहीं होगी, ताकि हमारे बच्चों को विदेशों में जाने की जरूरत न पड़े। भारत के उद्योगपतियों से प्रधानमंत्री ने आग्रह किया कि इस नेक कार्य में उनकी मदद चाहिए।
मोदी की ये बातें सुन कर मुझे उनकी वह बात याद आई जो उन्होंने पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद कही थी पेरिस में प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए। उस समय उन्होंने कहा था कि उनका सपना है कि भारत में इतनी संपन्नता आ जाए कि किसी भी भारतवासी को नौकरी की तलाश में देश को छोड़ कर न जाना पड़े। अफसोस कि उनके इस सपने को वे खुद भूल गए हैं और इन दिनों इसका जिक्र तक नहीं करते हैं।
मोदी का दोष नहीं है कि 75 वर्ष की स्वतंत्रता के बाद भी भारत ऐसा देश है जिससे आर्थिक शरणार्थी लाखों की तादाद में हर साल देश छोड़ने पर मजबूर होते हैं।
इसके अलावा देश छोड़ कर जाते हैं हमारे सबसे कुशल और बुद्धिमान लोग। इसलिए न्यूयार्क के किसी भी बड़े अस्पताल में आपको मिलेंगे भारतीय मूल के डाक्टर और नर्स। शिक्षा संस्थानों में मिलेंगे आपको हमारे सबसे अच्छे अध्यापक। जैसे मैंने कहा शुरू में ही कि इसका दोष हम मोदी को नहीं दे सकते हैं, लेकिन इतनी उम्मीद उनसे अभी भी रख सकते हैं कि अब दोबारा अपने उस पुराने सपने को साकार करने की कोशिश करें, जिसकी बात उन्होंने पेरिस में उन प्रवासी भारतीयों से की थी।
कोविड के आने के बाद उन्होंने बहुत बार आत्मनिर्भरता की बातें की हैं, लेकिन ये कैसे आएगा जब तक हम न अपने बच्चों को अपने देश में उच स्तर की शिक्षा दे सकते हैं और न ही उनको ऐसी नौकरियां, जिनकी तलाश में इतने सारे लोग देश छोड़ कर जाने पे मजबूर हैं आज भी।
मैंने इस लेख के शुरू में बताई थी आपको जगदीश पटेल और उसके छोटे परिवार की कहानी इस उम्मीद से कि मोदी देख सकेंगे कि गुजरात जैसे संपन्न इलाके से भी भागने पर मजबूर हो रहे हैं। ऐसे लोग जिनको आसानी से भारत में नौकरियां मिल सकती हैं। ऐसे लोग जिनके पास लाखों रुपए देने की क्षमता है मानव तस्करों को।
ऐसे लोग जो अपनी बच्चों की जान से खेल कर निकल पड़ते हैं सिर्फ इसलिए कि उन्हें लगता है कि भारत में उनको अपने जीवन में दूर तक नहीं दिखती है उम्मीद की किरण, जिसे देख कर उनको लगे कि उनके बच्चों का जीवन उनसे बेहतर होगा।