Faisal Anurag
"तब्दीली" के नारे के साथ जिस नए पाकिस्तान का एलान इमरान खान ने किया था विपक्ष की एकता, इमरान सरकार के विवादास्पद फैसलों और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का शिकार होता नजर आ रहा है. खबरें तो यह भी आ रही हैं कि जिस पाकिस्तानी सेना ने इमरान खान की जीत और फिर गठबंधन के लिए समर्थन जुटायी वह पाला बदल चुकी है. विपक्ष के तीन धड़े आपसी टकराहट और दुश्मनी को भूल कर इमरान खान के खिलाफ एक हो चुके हैं. दिलचस्प बात तो यह है कि पाकिस्तान का कोई भी प्रधानमंत्री पांच साल कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है.
हर सरकार चौथे साल में पदच्यूत होती रही है. इमरान खान की सरकार का हश्र कुछ इसी तरह होता नजर आ रहा है. पाकिस्तान के लोकतंत्र की त्रासदी यह है कि उसमें निर्णायक भूमिका सेना निभाती है और सेना किसी तरह की भी बुनियादी बदलब को संदेह के नजरिए से देखती है. इमरान खान भारत की विदेश नीति की तरीफ कर रहे हैं. दरअसल पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति के लिए यह एक बड़ा संदेश है. प्रकारांतर से इस बयान से वे अमेरिका के पिछलग्गू बने रहने के लिए पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और सेना को भी कठघड़े में खड़ा करना चाहते हैं.
2018 के चुनावों में इमरान खान की पार्टी ने 155 सीटें जीती थी तब की चुनौती देने वाले तीनों धड़ों के कुल 162 सदस्य हैं. 25 मार्च को नेशनल एसेंबेली में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा होने जा रही है. 22 और 23 मार्च को इस्लामावाद में अंतराष्ट्रीय मुस्लिम संगठन की बैठक होने वाली है.संयुक्त विपक्ष 24 मार्च को इस्लामावाद का घेराव करेगा और 25 मार्च को इमरान खान ने भी दस लाख लोगों को सरकार के समर्थन में जमा होने का आह्वान किया है.
खबर तो यह भी है कि सेना ने इमरान खान को इस्तीफा देने को कह दिया है और इमरान की पार्टी तहरीक ए इंसाफ के भी कुछ नेता नाराज हैं. कुछ नेताओं की सिंध हाउस में विपक्ष के नेताओं से मुलाकात की खबर है.हालांकि पंजाब से एक राहत भरी खबर इमरान खान के लिए यह है कि वहां के विरोधी इंतजार करने की बात करने लगे हैं. यानी वे सरकार के साथ बने रहने का संकेत दे रहे हैं.
इमरान खान के भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए अभियान ने विपक्ष को एकजुट किया है क्योंकि चार साल में एक भी नेता को इमरान सरकार सजा दिलाने में विफल रही. गिरफ्तार किए गए ज्यादातर नेता जेल से छूट गए. तब्दीली के एक भी प्रयास ऐसे नहीं दिखे जिससे आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में बदलाव नजर आए. इमरान खान को अमरिका का साथ भी नहीं है क्योंकि इमरान ने चीन और रूस के साथ संबंध बनाए हैं. इमरान खान ने उस हालात में भी पुतिन से मुलाकात की जब वे यूक्रेन पर हमला करने जा रहे थे.
अफगानिस्तान में भी इमरान की नीतियों को ज्यादा समर्थन नहीं मिला. तालिबान ने इमरान के साथ चलने के बजाय एक दूरी बनायी. जबकि एक जमाने में इमरान खान को तालिबान खान कह कर ही पुकारा जाता था. इमरान ने पाकिस्तान की राजनीति युवाओं के बीच उम्मीद जरूर पैदा की थी, लेकिन जल्द ही निराशा फैलने लगी. भारत के साथ के संबंधों का पाकिस्तान की राजनीति पर गहरा असर है. कश्मीर के सवाल पर इमरान की भूमिका भी पाकिस्तान में एक निराशा पैदा की है.रूपए का कमजोर होना और मंहगाई अनियंत्रित छलांग ने मध्यवर्ग को नराज किया.
इस समय इमरान खान के साथ उनके समर्थकों का वह हूजूम नहीं है जिसने 2018 में सत्ता की राह बनाने में भूमिका निभायी थी. दरअसल सेना के दखल को रोकने में वे भी नाकामयाब रहे और इस सदंर्भ में उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री नवाज शरीफ कहीं ज्यादा कारगर साबित हुए थे. चीनी दूतावास के अधिकरियों ने भी बदले हालात में विपक्ष के साथ गोपनीय बैठक इमरान खान के लिए चिंता का विषय है.
जब इमरान क्रिकेट कैप्टन थे तब भी वे अकेले फैसले लेते थे और चार सालों की सरकार में उनका कोई एक विश्वस्त सलाहकार नजर नहीं आया. लोकतंत्र में एकाधिकारवाद वाले नेताओं की तरह ही वे पाकिस्तान में सक्रिय रहे. लेकिन उनकी समस्या यह है कि उनके साथ इस समय वह समर्थन कमजोर है जो उन्होंने लंबे संघर्ष से हासिल किया था. पिछले साल हुए उपचुनावों में उनके समर्थन वाले राज्य खैबर पकख्तूनवां में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. हार से सबक लेने के बजाय इमरान ने और कड़ाई दिखायी जिससे पार्टी में आंतरिक असंतोष को हवा मिली.
पाकिस्तान का लोकतंत्र एक ऐसा प्रयोग है जिसका एक पहलू सेना तो दूसरा धार्मिक नेता नियंत्रित करते हैं. पाकिस्तानी समाज पर उन बडेरों जमींदारों का प्रभाव है जिनके पास बड़े बड़े जोत हैं. धार्मिक नेता भी लोकतंत्र के विचारों से ज्यादा सहमत नहीं रहे हैं. इन हालातों में किसी बड़ी तब्दीली की मध्यवर्गीय आकांक्षा के लिए रास्ते आसान नहीं हैं. पाकिस्तान अमरिका के साए से निकल नहीं पाया है और बदली विश्व परिस्थिति में अमेरिका के लिए पाकिस्तान का ज्यादा महत्व नहीं रह गया है.
पाक सेना अमेरिका की पक्षधर है और चीन के साथ दोस्ताना संबंध के बावजूद पाकिस्तान की राजनीति में चीन को लेकर संशय मौजूद है. विदेशी उत्पादों पर पाक की निर्भरता में भी कोई बदलाव नहीं आया.इन हालातों में इमरान के लिए 25 मार्च निर्णायक होने जा रहा है. यदि वे अपने समर्थक दलों और पार्टी की एकता बनाए रखने में कामयाब हुए तो पाक राजनीति में भविष्य में बड़ा बदलाव होगा. हालांकि इसकी संभावना कम है. देखना सिर्फ यह है कि इमरान एसेंबली का समाना करते हैं या दबाव में पहले ही इस्तीफा देते हैं.