समाज को 'पढ़े फ़ारसी बेचें तेल' की मानसिकता से बाहर निकलना होगा
कभी किसी ओला या उबर में सफ़र करते वक़्त टैक्सी ड्राइवर (App Based Taxi) अपनी व्यथा बताने लगते हैं
शंभूनाथ शुक्ल
कभी किसी ओला या उबर में सफ़र करते वक़्त टैक्सी ड्राइवर (App Based Taxi) अपनी व्यथा बताने लगते हैं. जैसे दो दिन पहले नोएडा जाते समय टैक्सी ड्राइवर पुनीत ने बताया कि उसने मेरठ के एक निजी कॉलेज से मेकेनिकल इंजीनियरिंग में पढ़ाई की हुई है. लेकिन कोई नौकरी (Employment) नहीं मिली इसलिए उसने यह टैक्सी बैंक से लोन कराई और अब इससे वह कुछ तो कमा ही लेता है. अक्सर जोमैटो, स्वैगी, फ़्लिप कार्ड, जियो और अमेजन के डिलीवरी बॉय भी इसी तरह की कथा बताते हैं. ये लोग न तब खुश थे जब उन्होंने उच्च शिक्षा ग्रहण (Higher Education in India) की और न अब जब यह काम कर रहे हैं. इंजीनियरिंग या एमबीए, बीबीए और जर्नलिज़्म कराने वाले कॉलेज तो खूब खुल गए हैं किंतु कितने लोगों को ये जॉब दिला पाते हैं, ऐसा कोई आंकड़ा किसी के पास नहीं है. पांच से दस लाख रुपए खर्च करवा लेने के बाद भी अगर ये कॉलेज नौकरी नहीं दिलवा पाते तो इनकी उपयोगिता क्या है? और क्या फ़ायदा है ऐसी शिक्षा का? यह सवाल तो उठना ही चाहिए.
कौशल विकास की ज़रूरत
दूसरी तरफ़ मैं पिछली 27 तारीख़ से अपने एसी मैकेनिक नसीर को बुला रहा हूँ कि 'भाई तू सफ़ाई कर जा'. मगर आज-कल करते-करते वह कल शाम को आया. बताया कि बहुत काम है. यूं भी इस बार होली से ही एसी चलने लगे इसलिए उसे दम मारने की फ़ुरसत नहीं मिली और जब मिली तो उसके रोज़े शुरू हो चुके थे. किसी प्लंबर या कारपेंटर को ख़ाली बैठे नहीं देखा होगा. ये सब महीने में एक लाख रुपए के क़रीब कमा ही लेते हैं. जबकि ये कुशल शिक्षित मेकेनिक नहीं होते. लेकिन यदि इनके कौशल को विकसित किया जाए तो यकीनन ये किसी इंजीनियर से रंच मात्र कम नहीं. अब देखिए यूनिवर्सिटीज से डिग्री धारी युवा आठ-दस हज़ार रुपए महीने की नौकरी करते मिल जाएँगे और अपने कौशल में पारंगत युवा लाखों कमा लेंगे. ऐसा क्यों है और हुआ है? इस पर विचार करने का समय है.
काम छोटा या बड़ा नहीं
एक जवाब तो यह है कि लोग ब्लू कॉलर जॉब को ओछा समझते हैं इसलिए हर मां- बाप अपने बच्चे को इंजीनियर, मैनेजर, पत्रकार या डॉक्टर बनाना चाहता है. और बच्चे भी किसी तरह डेस्क जॉब में जाना चाहते हैं. इसीलिए दिल्ली के मुखर्जी नगर में, क़रोल बाग में सरकारी अफ़सरी की आकांक्षा पाले बच्चा 22 की उम्र में आता है और 40 की उम्र में अधेड़ होकर जब वह निकलता है तब उसके पास कुछ नहीं होता. शायद इसीलिए कहावत बनी होगी, पढ़े फ़ारसी बेचे तेल! लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि पढ़-लिख कर आदमी तेल क्यों नहीं बेच सकता?
करोड़ों गवां कर हासिल क्या!
नीट या जेईई की परीक्षा के लिए बच्चे को पहले तो साइंस ले कर बारहवीं दर्जा पास करना पड़ता है, फिर इनकी तैयारी के लिए कोचिंग लेनी पड़ती है. हर कोचिंग सेंटर नौवें दर्जे से कोचिंग की शुरुआत करने को कहता है. चार वर्ष की फ़ीस पांच लाख के क़रीब है. यह डबल मेहनत करने के बाद बच्चा इन दोनों प्रतियोगी परीक्षाओं को पास कर लेगा, इसकी क्या गारंटी है? नतीजा सक्षम लोग दासियों लाख रुपए खर्च कर अपने बच्चे को निजी कॉलेज में भेजते हैं. वहां न तो फ़ैकल्टी बहुत शानदार होती है न उनके पास अच्छी लैब होती हैं. और बच्चा जब वहां से पासआउट हो कर निकलता है तो संबंधित इंडस्ट्री उसे ख़ारिज कर देती है. क्योंकि उनके अनुसार उसकी थ्योरी शिक्षा हमारे लिए अनुपयोगी है. तो क्या ये स्कूल कॉलेज सिर्फ़ बेरोज़गारों की फ़ौज बढ़ाने के लिए खुले हैं?
बच्चे के रुझान को समझने की पहल
इसके लिए ज़रूरी है कि स्कूलिंग के समय ही बच्चे का रुझान देखा जाए और उसी के अनुरूप उसे ढाला जाए. इसीलिए भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग और पातंजलि योग पीठ ने एक अनूठी पहल की है. और वह है भारतीय शिक्षा बोर्ड के तहत एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करने का, जिससे शिक्षा उसके जीवन के लिए उपयोगी हो सके. शिक्षा को उपयोगी बनाने का एक ही तरीक़ा है कि बच्चे की स्कूलिंग उसी के अनुरूप हो. उसे शुरू से ही ऐसी शिक्षा दी जाए, जो उसके स्वयं के पैरों पर खड़ा होने में सहायक हो.
स्वध्याय बच्चे की अपनी रुचि है
आमतौर पर बच्चों के विकास के लिए चार बातें सहायक होती हैं. वे हैं, संस्कार, स्वभाव, स्वाध्याय और स्वावलंबन. अब संस्कार तो परिवार से मिलते हैं पर स्वभाव का आकलन शिक्षक बेहतर तरीक़े से कर सकता है. बच्चे के स्वभाव को समझ लिया जाए तो उसके लिए आगे की राहें आसान हो जाएंगी. स्वभाव के अनुरूप शिक्षा मिलने से वह बच्चा पढ़ाई में भी रुचि लेगा और भविष्य का उसका कैरियर भी सुरक्षित होगा. इसके बाद वह स्वाध्याय अपने रुचि के अनुसार कर लेगा. जब शिक्षा और व्यवसाय स्पष्ट होगा तो बच्चा किसी रेस में नहीं भागेगा और वह आत्म निर्भर बनेगा. परिवार पर बोझ नहीं बनेगा.
डेस्क जॉब को प्रमुखता
सच बात तो यह है, कि भारत में जिस तरह की शिक्षा पद्धति रही है, वह कभी समाज के लिए उपयोगी नहीं रही और न ही इससे विश्वविद्यालयों से डिग्री लाद कर आए युवाओं को रोज़गार मिल पाता था. हर जगह भीड़ ही भीड़. पद कुछ सौ के और आवेदनकर्ता हज़ारों में. इसकी असल वजह यह थी कि यहां लोग कभी भी रोज़गार के मामले में ख़ुद से आगे बढ़ कर कुछ करने का जोखिम मोल नहीं लेते हैं. क्योंकि उसे कभी भी ख़ुद से बढ़ कर कुछ करने का कौशल नहीं सिखाया गया. दूसरे हर युवा बस डेस्क जॉब करना चाहता है, ताकि वह साहब दिख सके. लेकिन कोई कौशल का काम करना, उसे हीन दिखता है.
स्टार्टअप की ज़रूरत
शायद यही कारण है, कि जब प्रधानमंत्री ने स्टार्टअप और कौशल विकास की योजनाएं लांच कीं तब खूब खिल्ली उड़ाई गई और इसे पकोड़े तलना बताया गया. किंतु यह किसी ने नहीं सोचा, कि पकोड़े तलना एक कला है. हर कोई पकोड़े नहीं तल सकता है. उसके लिए भी कौशल चाहिए. अनाड़ी तो चाय तक नहीं बना सकता. क्योंकि उसमें भी पानी, चाय पत्ती, दूध और शक्कर की एक निश्चित मात्रा डालनी पड़ती है और एक फ़िक्स तापमान तक पानी खौलाना पड़ता है. लेकिन जो लोग चाय बना लेते हैं और अपने कौशल में निष्णात हो जाते हैं, वे वाराणसी के असी घाट के पप्पू चाय वाला जैसी प्रतिष्ठा पा लेते हैं. इसी तरह पान लगाना भी एक कला है और जिसे यह कला आ गई वह कभी बेरोज़गार नहीं होगा. और न सिर्फ़ उसे अपने देश में काम मिलेगा बल्कि परदेस में भी वह काम पा जाएगा. इसलिए बच्चे के स्वभाव, उसके रुझान को जाँचना ज़रूरी है.
इंडस्ट्री की ज़रूरत के अनुसार शिक्षा हो
भारतीय शिक्षा बोर्ड बच्चे की प्रारम्भिक शिक्षा से इसी नीति पर जोर देगा. इसी के अनुरूप पाठ्यक्रम बनेगा और माहौल भी. आजकल किशोर युवा भी इस बात को समझते हैं. यही कारण है कि इधर ड्रॉपआउट के कई मामले सामने आने लगे हैं. यहाँ तक कि इंजीनियरिंग और मेडिकल छात्र भी ड्रॉपआउट कर जाते हैं, उन्हें लगता है ख़ुद का कुछ काम किया जाए. रटंत विद्या पढ़ाने का यही परिणाम होता है. इंटरनेट, गूगल, टीवी आदि ने एक ऐसी संचार चेतना पैदा कर दी है, कि छात्र रट-रट कर पास होने की बजाय अपना काम करना चाहता है. यही कारण है कि आजकल पांचवीं-छठी में पढ़ने वाले बच्चे भी यू-ट्यूब बना लेते हैं. उन्हें पता है कि इसके लाइक और सब्सक्राइबर बढ़ने से उनका यू ट्यूब चल निकलेगा और वह मोनेटाइज भी हो सकता है. किंतु इस बात को उसके माँ-बाप नहीं समझते, उसके अध्यापक नहीं समझते. इसी मानसिकता को बदलने के लिए यह पहल हो रही है.
स्थानीय चुनौतियों का स्थानीय समाधान
इस पहल के सफल होने से शिक्षा, कैरियर और स्व-निर्भरता में आमूलचूल क्रांति तो होगी ही वह माहौल बदलेगा जिसमें ख़ुद के काम को हीन समझा जाता है. नौकरी के लिए दर-दर भटकने की बजाय नौकरी देने वाला क्यों न बना जाए, इसी के लिए यह पाठ्यक्रम बनेगा. जब हम इस तरह की शिक्षा के सहारे 'स्थानीय चुनौतियों का स्थानीय समाधान' तलाश लेंगे तो अहम काम होंगे. एक कि पलायन रुकेगा और लोगों को अपने ही शहर में रोज़गार मिलेगा. दूसरे स्मार्ट सिटी योजना भी तभी सफल हो पाएगी. इसलिए शिक्षा नीति में बदलाव ज़रूरी है और सोच में भी. यदि कोई युवा फ़ारसी पढ़ कर तेल बेचता है तो बुरा क्या है. शिक्षा और स्वाध्याय उसके चिंतन, उसके विजन का विकास करती है तो कौशल विकास उसे रोज़गार मुहैया कराता है.