देश को जिस सामाजिक सद्भाव की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति राजनीति ही कर सकती है

इस देश में चुनाव-चर्चा कभी थमती नहीं है। इसलिए नहीं थमती कि चुनावों का सिलसिला कायम ही रहता है

Update: 2022-03-22 11:08 GMT
जगमोहन सिंह राजपूत। इस देश में चुनाव-चर्चा कभी थमती नहीं है। इसलिए नहीं थमती कि चुनावों का सिलसिला कायम ही रहता है। पांच राज्यों के चुनावों के बाद गुजरात और हिमाचल के चुनावों की चर्चा होने लगी है। हर चुनाव में चुनाव आयोग को अत्यंत सतर्कता के साथ बंदोबस्त करना होता है। हजारों सरकारी कर्मचारियों को अपने नियमित दायित्व से अलग कर इस कार्य में लगाना पड़ता है। आचार संहिता लागू होती है, जिसके कारण सभी नीतिगत निर्णय रुक जाते हैं। अन्य देशों की तरह भारत में बार- बार होने वाले चुनावों से बचने की जरूरत है, लेकिन ऐसा तभी होगा, जब सभी दल देशहित को प्रमुखता देंगे। इस समय इसकी संभावना लगभग न के बराबर है, क्योंकि राजनीतिक दल राष्ट्रहित के बजाय दलगत हित को वरीयता देते हैं।
स्वतंत्रता के बाद के 10-15 वर्षों में त्याग, निस्वार्थ सेवा और मानवीय मूल्यों और चरित्र को प्रमुखता देने वाला नेतृत्व हर तरफ दिखाई देता था। उस समय के युवा इसे लेकर आश्वस्त थे कि देश में जाति प्रथा समाप्त हो जाएगी। हिंसा, अविश्वास और सांप्रदायिकता का कोई स्थान नहीं होगा, लेकिन सब कुछ अपेक्षाओं के विपरीत ही होता गया। जाति और क्षेत्रीयता आधारित राजनीतिक दल सत्ता में आने लगे। गांधीजी और उनके द्वारा जीवनपर्यंत प्रतिपादित सत्य, अहिंसा सेवा जैसे मूल्य और सिद्धांत तिरोहित हो गए। इसके जिम्मेदार वही थे, जो जनता के समक्ष गांधीजी के एकमात्र अनुयायी होने का दावा करते रहे और सत्ता में बने रहे।
जब जाति और क्षेत्रीयता की नाव पर सवार होकर कई क्षत्रप राज्यों में सत्ता में आए तो वे कुछ ही वर्षों में सारे देश में चर्चित हो गए। विकास या जनकल्याण में योगदान के लिए नहीं, अपनी और अपने परिवार की समृद्धि में वृद्धि के लिए। लगभग सभी क्षेत्रीय दलों ने अपनी संतानों और संबंधियों को आगे बढाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। साथ ही सत्ता में बने रहने के लिए खुलेआम जातिवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लेने से भी कोई गुरेज नहीं किया। यह एक तथ्य है कि भारत के मुस्लिम समुदाय को पीछे रखने में उन दलों का हाथ है, जिन्होंने उनमें भय और अविश्वास पैदा करने को सत्ता प्राप्ति में सहायक मान लिया। ऐसे प्रयास अभी भी बंद नहीं हुए हैं।
यह कैसी विडंबना है कि मुस्लिम समुदाय आज भी स्थिति का विश्लेषण करने को तैयार नहीं है कि उसके कथित हितैषी अपने स्वार्थ के लिए किस प्रकार उसे हानि पहुंचाते रहे हैं। आखिर सच्चर समिति बनाने वालों ने मुस्लिम समुदाय की स्थिति को कितना बेहतर बनाया? उत्तर प्रदेश के चुनाव विश्लेषण में यह एक बार फिर उभरकर सामने आया कि यहां का मुस्लिम समुदाय अभी भी उस खांचे से बाहर नहीं आ पाया है, जिसमें उसे प्रारंभ से ही डाल दिया गया था। उसने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं बदली तो हैं, पर जो आशंकाएं और अविश्वास स्वार्थवश उसके बीच पैदा किया गया, वह अभी भी बना हुआ है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि देश के विकास के लिए दोनों बड़े समुदायों के मध्य सामाजिक सद्भाव और पंथिक समरसता की सघन उपस्थिति अति आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति राजनीति ही कर सकती है।
प्रश्न यह है कि क्या पांच राज्यों के हालिया चुनाव परिणाम ऐसी किसी राष्ट्रीय समझ को निर्मित करने में योगदान देंगे, जो सामजिक सद्भाव और पंथिक समरसता को बढ़ा सकें? कायदे से यही चुनाव उपरांत विश्लेषण में मुख्य रूप से उभरना चाहिए, मगर ऐसा हो नहीं रहा है। यह निष्कर्ष चौपालों से लेकर दिल्ली की विशिष्ट चर्चागाहों पर विहंगम दृष्टि डालने से स्पष्ट निकलता है। यह उन प्रबुद्ध वर्ग और सभ्यस माज के संवेदनशील वरिष्ठ जनों का उत्तरदायित्व है कि वे लोगों का ध्यान इन आवश्यकताओं की ओर दिलाएं।
पिछले छह-सात दशकों में मतदाता अपेक्षा से अधिक परिपक्व हुआ है, लेकिन अधिकांश नेताओं की समझ अपरिपक्वता की ओर बढ़ी है। अपवाद दोनों में ही हैं और इसके कारण आसानी से समझे जा सकते हैं। इंटरनेट की सुलभता के कारण संचार माध्यमों की सामान्य मतदाता तक पहुंच तेजी से बढ़ी है। अब तो बिना किसी बड़े निवेश के व्यक्तिगत स्तर पर अपना चैनल चलाना संभव हो गया है। इस कारण अब आम मतदाता के विचार भी महत्व पा जाते हैं, लेकिन इस परिवर्तन ने अनेक मीडियाकर्मियों की भी कलई खोल दी। कथित सेक्युलर मीडियाकर्मी जब मतदाता से उसकी जाति और मजहब जानकर अपेक्षित उत्तर पाने के लिए जैसे प्रश्न पूछते थे, वे भूले नहीं जा सकते। यदि कोई नाम के साथ अपनी जाति नहीं बताता था और पूछे जाने पर भी उसे अनावश्यक कहता था, तब भी उससे पूछा जाता था कि आप अमुक जाति या पंथ के हैं या नहीं? लोग ऐसे प्रश्न सुनकर यही याद करते हैं कि स्वतंत्रता के बाद जिन लोगों ने भारत को अपने द्वारा परिभाषित सेक्युलर राष्ट्र बनाने का बीड़ा उठाया था, वे ही इस देश में जातिवाद और सांप्रदायिकता के बीज बोने के लिए जिम्मेदार माने जाएंगे।
गांधीजी चाहते थे कि हर योजना और परियोजना में पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का ध्यान रखा जाए, मगर ऐसा हो नहीं सका। पश्चिम की विकास की अवधारणाएं ही हावी रहीं। आशा है कि पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से सबक लेकर अन्य दल अपने राजनीतिक तौर-तरीके में सुधार करेंगे और देश की राजनीति को बदलने में सहायक बनेंगे।

(लेखक शिक्षा और सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)
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