Written by जनसत्ता: देश में शिक्षा के प्रसार के लिए समय-समय पर अनेक कार्यक्रम और अभियान चलाए गए और इसी का परिणाम है कि अब ज्यादातर बच्चे औपचारिक शिक्षा के दायरे में आ गए हैं। मगर इसी के समांतर इस बात की जरूरत भी महसूस की गई कि पढ़ाई-लिखाई के दायरे के विस्तार के साथ-साथ उसमें गुणवत्ता एक अहम पहलू है और इसे सुनिश्चित किए बिना शिक्षा के प्रसार की कोई खास अहमियत नहीं रह जाएगी।
इसलिए खासकर स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता की समय-समय पर जांच के लिए कुछ मानक तय किए गए और उसके मुताबिक इस बात की पड़ताल की जाती है कि किस राज्य ने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कितनी मेहनत की। स्कूली शिक्षा सूचकांक तैयार करने की इसी व्यवस्था के तहत केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग ने जो ताजा ‘ग्रेडिंग’ सूचकांक जारी किया है, उसमें पंजाब और चंडीगढ़ ने बेहतर प्रदर्शन तो किया है, लेकिन कोई भी राज्य या फिर केंद्र शासित प्रदेश तय दस श्रेणियों में से शीर्ष पांच हासिल नहीं कर पाए। यानी कहा जा सकता है कि शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर देश के सभी राज्यों में स्थिति अभी संतोषजनक नहीं है।
दरअसल, सभी राज्यों में पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ भी जितना हासिल करने में सक्षम हो सके हैं, उसे अधूरी कामयाबी कहा जा सकता है। तय मानकों में इन्हें अभी लंबा सफर तय करना है। गौरतलब है कि सन 2017 में शुरू किए गए इस प्रदर्शन ग्रेडिंग सूचकांक में दस ग्रेड तय किए गए हैं। इसके आधार पर भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की शिक्षा के क्षेत्र में प्रदर्शन की स्थिति का आकलन किया जाता है।
इसका मकसद शिक्षा के मामले में राज्यों का ध्यान निवेश से परिणाम की ओर स्थानांतरित करने के अलावा लगातार वार्षिक सुधारों के लिए मानक तय करना, गुणवत्ता में सुधार, सबसे बेहतर साधनों को साझा करना और राज्य के नेतृत्व वाले नवाचार के प्रयोगों को प्रोत्साहित करना है। इसमें खासतौर पर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है कि इस संबंध में किए गए कार्यों का नतीजा क्या सामने आ रहा है और उसका प्रबंधन कैसे किया जा रहा है। यों भी अगर किसी कार्यक्रम के सालों साल चलते रहने के बावजूद उसकी गुणवत्ता में सुधार नहीं होता है तो उसका कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ सकता।
हालांकि देश में शिक्षा की सूरत में सुधार के लिए लंबे समय से प्रयास चलते रहे हैं। कई ठोस कार्यक्रम भी लागू किए गए, लेकिन हकीकत यह है कि सबसे बेहतर संसाधन वाले राज्यों में भी उम्मीद के अनुरूप नतीजे हासिल नहीं किए जा सके हैं। दरअसल, किसी कार्यक्रम के संचालित करने के समांतर गुणवत्ता के स्तर पर लगातार बेहतरी लाना एक अनिवार्य कसौटी होनी चाहिए।
देश की स्कूली शिक्षा व्यवस्था की तस्वीर का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले कई सालों से लगातार आने वाली रपटों में यही तथ्य सामने आता रहा है कि पांचवीं, छठी या उससे ऊपर की कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे भी दूसरी या तीसरी कक्षा की किताबें ठीक से नहीं पढ़-समझ पाते। जरूरत इस बात की है कि निचली कक्षाओं के बच्चों के बीच सीखने की प्रक्रिया को ज्यादा संगठित तरीके से संचालित किया जाए और उसमें नवाचार को बढ़ावा दिया जाए, ताकि शिक्षा में गुणवत्ता सुनिश्चित हो सके। वरना, सीखने-समझने से वंचित स्कूली बच्चों से समूची शिक्षा व्यवस्था का एक अधूरा पटल ही तैयार होगा।
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