गायब होती कुदरत की छांव
हमारे आसपास जब लोग अलग-अलग वजहों से या किसी परंपरा का पालन करते हुए दान-पुण्य कर रहे होते हैं, उसी के बरक्स कहीं कोई बुजुर्ग भूख से बेहाल होकर कराह रहे होते हैं।
महेश परिमल: हमारे आसपास जब लोग अलग-अलग वजहों से या किसी परंपरा का पालन करते हुए दान-पुण्य कर रहे होते हैं, उसी के बरक्स कहीं कोई बुजुर्ग भूख से बेहाल होकर कराह रहे होते हैं। पर लोगों का ध्यान कई बार उनकी ओर उनके जीते-जी नहीं जा पाता। उनके जाने के बाद लोग पूरी तरह से तैयार हो जाएंगे, उनकी मनपसंद का व्यंजन कौवों को खिलाने के लिए। यह हुई परंपरा और मान्यता की बात, जिसमें कौवे का संदर्भ आया।
लेकिन अब इस बहाने सोचने की जरूरत यह आन पड़ी है कि कौवे हैं कहां? पक्षी विशेषज्ञ सालेम अली ने अपनी किताब में देश में कौवों की स्थिति पर प्रकाश डाला है। मगर इससे इतर विदेशों में भी कौवे लगातार कम हो रहे हैं। अब तो हालत यह है कि यूरोपीय देशों से ठंड में आने वाले सुरखाब जैसे विदेशी पक्षी को भी लोग मारकर खाने लगे हैं।
कुछ संक्रमणशील बीमारियों के जीवाणुओं को खा जाने वाला हमें कितना सुरक्षित करता रहा है, हम इससे अनजान रहे हैं। यही नहीं, चूहों और बिल्लियों जैसे छोटे जानवरों के संक्रमित थूक या उनके मृत शरीर को साफ करके मानव जाति की सेवा करने वाले ये कौवे आज विलुप्ति के कगार पर हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इस काम के लिए कौवे हमसे कुछ भी नहीं मांगते।
वहीं सामाजिक धारणाओं में बदसूरत-सा दिखने वाला कौवा सत्य का प्रतीक है। गांवों-शहरों में आज भी यह कहावत सुनने में आती है कि 'झूठ बोले, कौवा काटे'। यानी मानव ने अगर झूठ का सहारा लिया, तो कौवे उसे अपनी नोंकदार चोंच से वार कर सकते हैं। हम सभी पीपल के पेड़ की पूजा करते हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि पीपल के पेड़ कहीं भी लग कैसे जाते हैं, कभी किसी कुएं में, किसी दीवार पर या फिर किसी पेड़ पर।
वास्तव में पीपल के पेड़ के बीज को पहले कौवा खा लेता है। यह प्रकृति का ही नियम है कि पीपल का बीज कौवे की विष्ठा से ही परिपक्व होकर जब बाहर आता है, तभी वह फलित होता है। यही पीपल का वृक्ष है, जो हमें चौबीस घंटे आक्सीजन देता है। इसीलिए पीपल की छांव पर सुकून की सांस लेने वालों को यह सोचना होगा कि इस छांव को देने में कौवे की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
प्रश्न एक बार फिर हमारे सामने हैं कि आखिर कौवे क्यों धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। इसका उत्तर भी मनुष्य को ही देना है। कंक्रीट के इस जंगल में बड़ी-बड़ी इमारतों में छोटे दिल के लोगों का बसेरा हो गया है। जहां कभी हरियाली थी, वहां गगनचुंबी इमारतें दिखाई दे रही हैं। हरियाली के एवज में हमने अपना आशियाना बना तो लिया, पर इस हरियाली को कायम रखने वाले वे परिंदे कहां गायब होते जा रहे हैं?
एक वृक्ष को पूरी तरह से तैयार होने में करीब पच्चीस साल लगते हैं। उसे आधुनिक मशीन से काटने में पांच मिनट भी नहीं लगते। यह हमारे द्वारा की गई गलतियों का ही परिणाम है कि आज नदियां बिफरने लगी हैं। बाढ़ आना अब आम बात हो गई है। धरती की उर्वरता लगातार कम हो रही है। धरती गर्म होने लगी है। यही गर्माहट परिंदों को हमसे दूर कर रही है। उन्हें भी सहन नहीं होती धरती की उष्मता। इस तरह से कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर हमें ही विचार करना है। पर इसके लिए किसी के पास समय नहीं है।
बहरहाल, पछताने से अच्छा है कि कुछ किया जाए। अगर हम चाहते हैं कि हम अपने पूर्वजों को सचमुच याद करें तो हमें किसी वृद्धाश्रम में जाकर किसी का खयाल रखना चाहिए, जहां समाज के उपेक्षित लोग रहते हैं। वृद्धाश्रमों में रहने वाले अधिकांश अपनों के सताए हुए होते हैं। उन्हें अच्छा खाना खिला खिला सकते हैं। शहरों में वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ रही है। दूसरी ओर, हम प्रकृति से लगातार धीरे-धीरे दूर होते चले जा रहे हैं।
कौवा एक प्रतीक हो सकता है, लेकिन कई पक्षियों के कम होते जाने को लेकर पर्यावरणविदों ने चिंता जताई है। सच यह है कि हम प्रकृति से लगातार धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में हम जीवन-तत्त्व को कितना बचा पाएंगे, कहा नहीं जा सकता। आधुनिक भौतिक संसाधनों से घिरे हम लोग यह अंदाजा भी नहीं लगा पाते कि प्रकृति के सान्निध्य से दूर रहते हुए हम किस तरह की जटिलताओं से घिरते चले जा रहे हैं। हमारे आसपास से पेड़-पौधे, अपने वास्तविक रूप में जमीन, पक्षी और न जाने कितनी प्राकृतिक निर्मितियां छूटती चली जी रही हैं और हमारा जीवन प्रकृति से दूर होता जा रहा है। प्रकृति से दूर होकर हम कितना सचमुच जीवन जी पाएंगे?