संसद की सर्वोच्चता का सवाल
स्वतन्त्र भारत के संसदीय इतिहास में ऐसे कई मौके आये हैं जब सड़कों पर मच रहे कोहराम और कोलाहल की प्रतिध्वनि संसद में इस प्रकार सुनी गई है
आदित्य चोपड़ा| स्वतन्त्र भारत के संसदीय इतिहास में ऐसे कई मौके आये हैं जब सड़कों पर मच रहे कोहराम और कोलाहल की प्रतिध्वनि संसद में इस प्रकार सुनी गई है कि इसकी कार्यवाही पूरे-पूरे सत्र तक नहीं चल सकी। दरअसल यह जीवन्त लोकतन्त्र की निशानी होती है क्योंकि संसद लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों से लोगों के लिए ही बनी होती है। ऐसा इसलिए भी होता है कि संसद की विश्वसनीयता हर प्रकार के सन्देह से परे और मिथ्या प्रचार या अफवाहों से दूर होती है। इसके भीतर संसद का प्रत्येक सदस्य उन विशेषाधिकारों से लैस होता है जो उसे लोकतन्त्र को हर हालत में बुलन्द रखने के लिए मिले होते हैं। ये विशेषाधिकार आम जनता की समस्याओं को संसद में उठाने के लिए इस प्रकार मिले होते हैं कि वह बिना किसी खौफ या खतरे अथवा डर के उनका बेबाकी के साथ उल्लेख कर सके। संसद में प्रकट किये गये उसके विचारों या व्यवहार पर देश की किसी भी अदालत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता और उसकी जांच या तसदीक का अधिकार केवल संसद को ही इसके अध्यक्ष के माध्यम से मिला होता है।