बारात उठने को है, तभी क्यों बनाया जाता है वजीर को प्यादा? हरीश रावत की इस बेचारगी को क्या नाम दें?

हरीश रावत की इस बेचारगी को क्या नाम दें?

Update: 2021-12-23 11:20 GMT
पीयूष शर्मा।
मौसम गुलाबी है पर चेहरों का रंग थोड़ा लाल है. लाल रंग, वो भी सुर्ख़. जहां यह थोड़ा ख़तरा दिखाता है तो वहीं माथे पर लगा इस रंग का टीका शौर्य एवं विजय की गाथा गाता है. चुनावी मौसम है तो चेहरे लाल-पीले होते ही रहते हैं. लेकिन सिर्फ़ एक पार्टी में धीरे-धीरे चेहरों का लाल होना थोड़ा ध्यान तो भटकाता ही है. वो भी तब जब, बारात उठने की तैयारी हो. कहानी है उत्तराखंड वाले हरीश रावत की.
ये वही रावत हैं जो पिछले एक साल से पंज दरिया में उठे तूफ़ान को शांत करने में जुटे हुए थे. वहां भी वही कहानी चल रही थी, जो आज देवभूमि में दुहराई जा रही है. मामला थोड़ा गंभीर है, पर कुछ नया नहीं. कहानी पूरी तरह से अमरिंदर और सिद्धू वाली ही है. शराब पुरानी है, पर बोतल नई है. जो कुछ समय पहले दिल्ली दरबार का मुखौटा लगाए पंजाब में बीच बचाव करते नज़र आ रहे थे, वो अब खुद पटियाला के राजा के माफिक नज़र आ रहे हैं. देवभूमि की सियासत के ये भी सिकंदर ही हैं, जैसे राजा साहब वहां के हैं. पहले वो फ़ंसे थे मझधार में अब ये. तभी तो ये कहते नज़र आ रहे हैं कि… सत्ता ने वहां कई मगरमच्छ छोड़ रखे हैं जिनके आदेश पर तैरना है, उनके नुमाइंदे मेरे हाथ-पांव बांध रहे हैं.

जहां काम बन रहा है वहीं काम लगाने का काम चल रहा है. यूथ का भूत है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी का पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा. माना कि चुनाव क़रीब है तो चकड़म शुरू ही हो जाएगी. पर विरोधियों को मात देने के लिए क्या ये समय मुफ़ीद है? है न अजीब सी बात… चुनाव रूपी समुद्र में तैरना है, सहयोग के लिए संगठन का ढांचा अधिकांश स्थानों पर सहयोग का हाथ आगे बढ़ाने के बजाय या तो मुंह फेर करके खड़ा हो जा रहा है या नकारात्मक भूमिका निभा रहा है. ऐसा हम नहीं उनका कहना है, जिनके बारे में अक्सर उत्तर प्रदेश से नवंबर 2000 में अलग हुए उत्तराखंड में कहा जाता रहा है कि ना खाता ना बही, जो हरीश रावत कहें वो सही.
पुराना प्यार और पुराने पाप रह रहकर सताते हैं. जो किया है उसे तो आख़िर यहीं भुगतना है. तभी तो चुनाव बाद बीजेपी के साथ सत्ता सुख भोगने का ख़्वाब देख रहे राजा साहब ने कह दिया- जो बोएंगे, आख़िर वही तो काटेंगे. अगर मौक़ा है तो वो चूकने वाले हैं भी नहीं. अक्सर उनका मिज़ाज हिसाब किताब बराबर रखने वाला ही माना जाता है. ज़्यादा दूर की बात ना कही जाए तो अमरिंदर जहां वहां वोट काटने वाली भूमिका निभाने में माहिर होंगे वहीं रावत साहब का कद पद दिलाने वाला साबित हो सकता है. बात जब तक दूसरों की होती है तब तक तो नियम क़ायदे ज़ोरों पर होते हैं और जब अपने पर वही आती है तो फिर चुपके से मन के एक कोने (समझ गए होंगे) से आवाज़ उठती है "न दैन्यं न पलायनम्" बड़ी ऊहापोह की स्थिति है.
चुनाव आता है तो कठपुतलियां सामने आ ही जाती हैं. अब ये मानने से नहीं चूकना चाहिए कि राजतिलक की तैयारियां शबाब पर हैं. पहले दरबारी सजेंगे फिर सरदार. पंजाब और उत्तराखंड में ऐसा हो चुका है. अब बारी धीरे-धीरे दूसरे सूबों की है जहां बुजुर्ग अपने हिसाब से हवा का रुख़ मोड़ने की कोशिश करने में जुटे हुए हैं. लग रहा है अब बात भरोसे की नहीं रही. तभी अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाले शासन के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे हैं. मजबूरी का नाम अब महात्मा गांधी नहीं रह गया. समय बदल रहा है. सिद्धांत बदल रहे हैं. मज़बूत हैं तो मोर्चा खुलेगा, मौक़ा मिलेगा तो चौका भी लगेगा. और लोकतंत्र में जब सर्वे साख बनाने लगे तो फिर क्या ही कहना. पसंदीदा का जब तमग़ा लग जाए तो फिर पुलाव तो पकना लाज़िमी ही है. पर यहां ये मायने रखता है कि आंख के तारे आप युवराज के ही रहें ना कि सर्वे के.
हरीश रावत वेटरन लीडर माने जाते हैं. देवभूमि की सियासी पिच के वो माहिर खिलाड़ी हैं. पिछला चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया था. लेकिन इन्हें भी थोड़ा सच का सामना करना ही पड़ेगा. जैसे आपमें सर्वे का सच रह रह कर उफान मार रहा है, वैसे ही दिल्ली वालों को 17 में आया ख़तरा और 19 में हुआ हश्र साल रहा है. भले ही आपके शागिर्द ये कहें कि आप के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए और दिल्ली दरबार के प्रिय ये कहें कि 22 का चुनाव सामूहिक. पर एक बात तो सच ही है कि चाकू कद्दू पर गिरे या कद्दू चाकू पर….नुक़सान इसमें कद्दू का ही है. भले ही अब चाहे रावत के हल्लाबोल के बाद कांग्रेस डैमेज कंट्रोल में जुट गई हो और इसी क्रम में बैठक बुला ली हो. पर एक बात तो तय है कि आज उन्हें पार्टी के पंजाब की सियासत के सूरमा के दुःख का अहसास ज़रूर हो रहा होगा.
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