वर्चस्व की राजनीति अलोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती देती है; ये यूपी-बिहार वाले देश में हर जगह पराए क्यों होते हैं?
ओपिनियन
प्रियदर्शन का कॉलम:
यूपी -बिहार के भैयों पर पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की टिप्पणी से उठा बवाल अभी भले थमा हुआ हो, मगर सवाल बचा हुआ है। चन्नी अकेले मुख्यमंत्री या नेता नहीं हैं जिन्होंने यूपी-बिहार पर निशाना साधा हो। कभी दिल्ली की उदार मानी जाने वाली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी दिल्ली की अव्यवस्था के लिए बिहार-यूपी के लोगों को ज़िम्मेदार ठहरा चुकी हैं।
महाराष्ट्र में शिवसेना की राजनीति अरसे तक बिहार-यूपी वालों के विरोध से ही चलती रही। असम में हंगामा हुआ तो बिहार-यूपी के मजदूर पिटे। बंगाल की किसी भी अपसांस्कृतिकता के लिए बिहार-यूपी को जिम्मेदार ठहराने का चलन पुराना है। यूपी-बिहार के लोगों से दुर्व्यवहार क्यों होता है? क्योंकि जो आर्थिक विकास यूपी-बिहार में होना चाहिए था, वह हो नहीं पाया।
इस ग्लोबल होती दुनिया में आप सिर्फ पलायन करके या मजदूर बन के अपनी अस्मिता बचाए नहीं रख सकते। किसी भी समाज और प्रांत के वर्चस्ववादी तबके कभी भी अपना ठीकरा आप पर फोड़ सकते हैं। बिहार-यूपी में अगर इतना विकास होता कि वहां भी महाराष्ट्र, तमिलनाडु और गुजरात से जाकर लोग नौकरी कर रहे होते तो शायद बिहार-यूपी की हैसियत बराबर की होती।
लेकिन इन इलाकों में यह आर्थिक विकास हुआ क्यों नहीं? क्योंकि जिन दशकों में गुजरात, महाराष्ट्र और केरल तरक्की करते रहे, उसी दौर में बिहार-यूपी के लोग जातिगत वैमनस्य और सांप्रदायिक नफरत की राजनीति का पोषण करते रहे। वे राजनीति में अगड़े, पिछड़े, दलित-मुसलमान वोट गिनते रहे, अपने विद्यालयों-विश्वविद्यालयों को नष्ट होने के लिए छोड़ते रहे और बाहर निकल कर पढ़ाई और नौकरी करते रहे।
यह सिलसिला अरसे से जारी है। यह सच है कि बीते तीस बरस में लालू-नीतीश दोनों के शासनकाल में बिहार अपनी ही गति से चलता रहा- अपनी अराजकता, अपने सामंती अहंकार, अपनी जातिगत जकड़न में घिरा हुआ- सत्ता बदलने से बस इतना हुआ कि हिस्सेदार बदल गए। यूपी की कहानी भी अलग नहीं है। वहां चुनाव में अयोध्या, काशी, हिजाब को मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है, आर्थिक विकास, रोजगार और सामाजिक सद्भाव चुनावी एजेंडे से बाहर हैं।
इन वर्षों में ही यूपी ने देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री को देखा, समाजवादी सरकार का भी स्वाद चखा और अब धर्मवादी-राष्ट्रवादी सरकार के तेवर देख रहा है। लेकिन इस यूपी में गोकशी के नाम पर हो रही मॉब लिंचिंग रोकने गए पुलिस अफसर सुबोध कुमार की हत्या हो जाती है और उसका इंसाफ अधूरा रह जाता है। इस यूपी में कोविड के दौरान गंगा किनारे कब्रें बन जाती हैं और सरकार संसद में बताती है कि उसे ऐसी मौतों की कोई जानकारी नहीं है।
लेकिन इस भ्रम में न रहें कि यह सिर्फ यूपी-बिहार का मामला है। यह सत्ता और वर्चस्व की राजनीति की लगभग स्थिर हो गई मुद्रा है जो अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग रूपों में व्यक्त होती है। यूपी-बिहार में कश्मीर के लड़के पिट जाते हैं। किसान आंदोलन से नाराज सरकारें और जमातें इन किसानों में ख़ालिस्तानी, आतंकवादी, नक्सली सब खोज लेती हैं- यह अलग बात है कि बाद में उन्हें इन्हीं से माफी मांगनी पड़ती है।
दरअसल यह वर्चस्व की राजनीति है जो लोकतंत्र की पोशाक पहन कर अलोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती देती है। इसमें जातिवादी ऐंठ से लैस पुराना सामंती अहंकार नई पूंजीवादी बदनीयती से हाथ मिलाकर मजबूत होता है और चुनावी राजनीति को अपनी तरह से प्रभावित करता है। ऐसी राजनीति को हमेशा एक दुश्मन की तलाश रहती है।
वह हरिद्वार की हेट स्पीच में एक तरह का दुश्मन खोजती है, बंगाल की जुनूनी सियासत में दूसरी तरह का। चन्नी जैसों के बयान से पता चलता है कि इस राजनीति की जड़ें लोकतंत्र में कितनी गहरी हो चुकी हैं। इस पर वोट से ही चोट की जा सकती है, लेकिन सवाल यही है कि क्या बिहार-यूपी इसके लिए तैयार हैं? बिहार-यूपी क्या करते हैं?
पंजाब के खेतों की समृद्धि इनकी मेहनत से आती है। अहमदाबाद, मुंबई की चमक-दमक में इनका पसीना है। बंगाली भद्रजन सांस्कृतिक कंगूरे बनाते हैं तो बिहार-यूपी के मेहनतकश उसकी बुनियाद रखते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)