हिंदी फ़िल्मों में ही हिंदी की दुर्दशा! कौन है इस स्थिति का जिम्मेदार?
नमानस की भाषा होने के बावजूद हिंदी दिवस मनाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ती है इस पर पूरे देश के नागरिकों को विचार करना चाहिए
डॉ मनीष जैसल।
जनमानस की भाषा होने के बावजूद हिंदी दिवस मनाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ती है इस पर पूरे देश के नागरिकों को विचार करना चाहिए। सालों तक ब्रिटिश हुकूमत के ग़ुलाम रहने के कारण इसका असर हमारी भाषा और संस्कृति पर भी पड़ा है। लेकिन अब ग़ुलामी को भी एक लम्बा समय हो चुका है। आज़ादी के इतने लम्बे समय के बाद भी हम कहां आकर खड़े हैं यह प्रश्न इस हिंदी दिवस के मौक़े पर भी ज़रूरी हो जाता है। दुनिया की तीसरी ऐसी भाषा जो सबसे ज़्यादा बोली जाती हो उसके बावजूद इसके प्रसार प्रचार में एक दिन का निर्धारण आज भी चल रहा है? क्यों? सोचना चाहिए हमें।
चीन की भाषा मंदारिन और अंग्रेजी के बाद हिंदी बोलने वाले लोगों की आबादी तीसरे स्थान पर है। हिंदी भारत की संस्कृति की संवाहक है और हिंदी की स्थिति वैश्विक रूप से और प्रसारित हो इसके लिए पूरे देश में 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया।
1949 में शुरू हुई हिंदी दिवस मनाने की परम्परा के तहत संविधान सभा में देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार करने के इरादे से हुई थी। हम अभी भी कहां तक पहुंच पाए हैं इसका जवाब मिलना बाक़ी है। हालांकि आधिकारिक रूप से पहला हिंदी दिवस 14 सितंबर 1953 को मनाया गया था।
वैसे तो सरकारों की तरफ से विभिन्न स्तरों पर राजभाषा के विस्तार और उपयोग को बढ़ाने के लिए लगातार ही काम किये जाते रहते हैं पर जिस स्तर पर आम जन की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए वह अब तक नही पूरी हो सकी है।
हिंदी की स्थिति तमाम जगहों पर जैसी भी हो लेकिन हिंदी फ़िल्म उद्योग की तरफ़ देखा जाए तो स्थिति वाक़ई बुरी हो चली है। हिंदी सिनेमा की कमाई खा रहे निर्देशक, कलाकार, लेखक और इस विधा से जुड़े तमाम लोग अंग्रेज़ी को अपना मान समझते हैं। लेकिन उनका काम हिंदी से ही चलता है, रोज़ी रोटी सब कुछ हिंदी की बदौलत है।
बड़े से बड़े मंचों और समारोहों में जाकर उन्हें अंग्रेज़ी में वक्तव्य देते हुए सुनना अखरता है। उनका अंग्रेज़ी के साथ जिस तरह का एटिट्यूड हमें दिखता है वह हिंदी भाषी होने के नाते अखरने लगता है। फ़िल्मों के लिए लिखी गयी पटकथा का देवनागरी में ना होना भी एक बड़ा संकट है। कई बड़े लेखक ये कहते हैं कि एक्टर को हिंदी समझ में नही आती इसलिए हम देवनागरी में नही लिखते। इंग्लिश मिद्यम में पड़ी हुई अभिनेत्रियां और नए नवेले अभिनेता हिंदी को दुत्कार वाली भाषा जैसा फ़ील करते हुए देखे जा सकते हैं। वहीं दूसरी तरह संतोषजनक बात ये ज़रूर है कि इधर के वर्षों में कुछ ऐसी फ़िल्में ज़रूर बनी हैं जो हिंदी के विकास और प्रचार प्रसार को बड़े परदे पर चित्रित करती है।
हिंदी सिनेमा का विश्व पटल पर अपना दबदबा बताता है कि-हिंदी फिल्में अन्य देशों में जाकर धमाल कर रही हैं, वहीं अन्य देशों को अपनी फिल्मों को डब करके भारत भेजने पर मजबूर होना पड़ रहा है। लेकिन फूहड़ अनुवाद और डबिंग से किसी फ़िल्म का मर्म बदल जाना भी एक नए संकट का रूप ले रहा है।
फ़िल्म इंग्लिश विंग्लिश, नमस्ते लंदन, गोलमाल (1979), चुपके चुपके, हिंदी मीडियम, जैसी कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दिया जाए तो हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में करोड़ों करोड़ रुपए कमाने वाली हिंदी फ़िल्म उद्योग की इस विषय पर अपनी कोई जवाबदेही नही है। जबकि प्रति बर्ष पूरे देश में 2000 से अधिक फ़िल्मों का निर्माण हो रहा है।
दुनिया भर में हिंदी को लेकर तरह तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं लेकिन भारत का यह असंगठित फ़िल्म उद्योग किसी भी स्वरूप में हिंदी के प्रति आगे बढ़ कर आता हुआ नही दिखता। फ़िल्म के पोस्टर से लेकर फ़िल्म के क्रेडिट तक का अंग्रेज़ी में होना यह बताता है कि हम हिंदी के प्रति कितने सजग है। इसमें कुछ फ़िल्मों के पोस्टर और क्रेडिट अपवाद है और उन्हें एक प्रयोग के तौर पर देखा जा सकता है।
उधर संयुक्त राष्ट्र संघ हिंदी में अपनी वेबसाइट बना चुका है, हिंदी में रेडियो प्रसारण की शुरुआत भी हो चुकी है। भारत स्थित अमेरिकी दूतावास से हिंदी की पत्रिका का नियमित प्रकाशन आरम्भ हुआ है। अमेजन, फ़ेसबुक और गूगल जैसी कम्पनियों ने हिंदी को महत्व देना शुरू किया है, भारत का नमस्ते शब्द पूरी दुनिया में मशहूर हुआ है लेकिन हज़ार पांच सौ करोड़ कमाने वाला हिंदी फ़िल्म उद्योग हिंदी भाषा के प्रति किसी भी प्रकार से सजग नही दिखता जिसकी हम जैसे फ़िल्म रसिक को चिंता है और यह उम्मीद और आस भी है कि इस दिशा में काम होगा।
स्क्रीनराईटर एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया की तरफ़ से इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कार्य ज़रूर शुरू हुआ है जिसमें फ़िल्म के लेखकों के साक्षात्कार हिंदी भाषा में भी प्रकाशित किए जाने लगे हैं। इससे हिंदी के प्रचार के साथ लेखकों को उनका मान भी मिल सके इसके अनुमानित निष्कर्ष निकलते दिख रहे हैं।
हिंदी की दुर्दशा पर हिंदी फ़िल्म उद्योग को अब तो आगे आना ही चाहिए। इसके लिए हिंदी सिनेमा के उन सिने दर्शकों को भी इस पर विचार ज़रूर करना चाहिए कि वे सिर्फ़ इस उद्योग से जुड़े लोगों के लिए उपभोक्ता न बनें, नही तो वो हमारे लिए हिंदी में फ़िल्में बना कर हमसे मनोरंजन शुल्क का लाभ लेकर अंग्रेज़ी की दुनिया में लुत्फ़ ऐसे ही उठाते रहेंगे।
(लेखक आई टी एम विश्वविद्यालय में जनसंचार एवं पत्रकारिता में सहायक प्रोफ़ेसर हैं।)