आदि शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन वस्तुत: काल एवं देश की सीमाओं से परे एक विश्व-दर्शन है, जिसमें संपूर्ण जगत एवं मानवता के कल्याण का भाव निहित है। अद्वैत दर्शन सभी संकीर्णताओं से मुक्त चेतना की उदात्त-उच्चतम अवस्था है। आदि शंकराचार्य ने एक ऐसी समन्वयकारी-सुनियोजित-सुसंगत धार्मिक-सांस्कृतिक व्यवस्था दी कि वेश-भूषा, खान-पान, जाति-पंथ, भाषा-बोली की बाहरी विविधता कभी हम भारतीयों को आंतरिक रूप से विभाजित करने वाली स्थायी लकीर नहीं बन पाई। किसी ने ऐसा प्रयास भी किया तो उसे सफलता नहीं मिली। आदि शंकराचार्य के समन्वयकारी दर्शन एवं तर्कशुद्ध-तात्विक चिंतन ने भिन्न एवं विलग धारा को भी कालांतर में शुद्ध-सनातन-मूल धारा में समाहित कर लिया या अपने सर्वसमावेशी स्वरूप के कारण समाहित होने के लिए बाध्य कर दिया। यह उनकी दी हुई दृष्टि ही थी कि बुद्ध भी विष्णु के दसवें अवतार के रूप में घर-घर पूजे गए।
उन्होंने ऐसी राष्ट्रीय-सांस्कृतिक दृष्टि दी कि दक्षिण के कांची-कालड़ी-कन्याकुमारी-श्रृंगेरी आदि में जन्मा व्यक्ति कम से कम एक बार अपने जीवन में उत्तर के काशी-केदार-प्रयाग-बदरीनाथ की यात्र करने की आकांक्षा रखता है तो वहीं पूरब के जगन्नाथपुरी का रहने वाला पश्चिम के द्वारकाधीश-सोमनाथ की यात्र कर स्वयं को कृतकृत्य अनुभव करता है। देश के चार कोनों पर चार मठों एवं धामों की स्थापना कर उन्होंने एक ओर देश को एकता-अखंडता के सशक्त सूत्रों में पिरोया तो दूसरी ओर विघटनकारी शक्तियों एवं वृत्तियों पर लगाम लगाई। तमाम भेदभावों के बीच आज भी गंगोत्री से लाया गया गंगाजल रामेश्वरम में चढ़ाना पुनीत कर्तव्य समझा जाता है तो जगन्नाथपुरी में खरीदी गई छड़ी द्वारकाधीश को अर्पित करना परम सौभाग्य माना जाता है। ये चारों मठ एवं धाम न केवल हमारी आस्था एवं श्रद्धा के सर्वोच्च केंद्र ¨बदु हैं, अपितु आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के सबसे बड़े संरक्षक एवं संवाहक भी हैं। यहां से हमारी चेतना एवं संस्कृति नया जीवन पाती है और पुन: जागृत एवं प्रतिष्ठित होती है।
केवल चार धामों की स्थापना ही नहीं आदि शंकर ने द्वादश (बारह) ज्योतिर्लिंगों का जीर्णोद्धार भी कराया। उन द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं 52 शक्तिपीठों के दर्शन की आशा-आकांक्षा सभी सनातनियों के मन में सदैव पलती-बढ़ती है। अखंड भारत में विस्तारित ये ज्योतिर्लिंग एवं शक्तिपीठ हमारी सांस्कृतिक एकता के लोक-स्वीकृत सर्वमान्य प्रतीक हैं। इनके प्रति पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण के लोगों की समान आस्था एवं अगाध श्रद्धा है। यह आस्था एवं श्रद्धा हमें आत्मिक तल पर सदैव जोड़े रखती है। यह विविधताओं के मध्य एकात्मता की अनुभूति कराती है। यह देश के भूगोल और संस्कृति का सेतु बनती है।
आदि शंकराचार्य ने प्रत्येक बारह वर्ष के पश्चात महाकुंभ तथा छह वर्ष के अंतराल पर आयोजित होने वाले अर्धकुंभ मेले के अवसर पर भिन्न-भिन्न मतों-पंथों-मठों के संतों-महंतों, दशनामी संन्यासियो के मध्य विचार-मंथन, शास्त्रर्थ, संवाद, सहमति की परंपरा को प्रवर्तित किया। उस मंथन एवं संवाद से निकले अमृत रूपी ज्ञान को जन-जन तक ले जाने की दृष्टि और संकल्प दिया। धर्म-दर्शन पर होने वाले मुक्त विमर्श एवं शास्त्रर्थ का ही सुखद परिणाम है कि सनातन संस्कृति एवं हिंदू-चिंतन में परंपरा के लिए तो सम्मान है, परंतु काल-विशेष में प्रचलित रूढ़ियों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह उन जैसे अवतारी-अलौकिक-असाधारण तपस्वियों के प्रयासों का ही सुफल है कि हर कुंभ मेले पर लघु भारत का विराट स्वरूप उमड़ पड़ता है। करोड़ों श्रद्धालुओं का कुंभ स्थलों पर एकत्रित होना, पवित्र नदी में डुबकी लगाना, व्रत-नियम-मर्यादा-अनुशासन का सम्यक पालन करना, तंबू-डेरा डालकर हरिद्वार-प्रयाग-उज्जैन-नासिक में कई-कई दिनों तक निवास करना संपूर्ण विश्व को विस्मित-विमुग्ध कर जाता है। वहां भाषा-जाति-प्रांत-पंथ की सभी बाहरी एवं कृत्रिम दीवारें ढह जाती हैं और पारस्परिक एकता, सद्भाव, सहयोग एवं प्रेम का साक्षात भाव-दृश्य सजीव एवं साकार हो उठता है। आजादी के अमृत महोत्सव के पावन अवसर पर आद्य शंकराचार्य की कृति-मति-गति-दृष्टि का ऐसा चिंतन-मनन, अध्ययन-अनुशीलन निश्चय ही राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की भावना के प्रसार में सहायक सिद्ध होगा।
(लेखक भारतीय संस्कृति के अध्येता एवं शिक्षा प्रशासक हैं)