समरसता का मार्ग: क्रांति से समता नहीं आती, क्रांति में विजयी होने वाले बाद में शोषण करने वाले बन जाते हैं
समाज में कौन समरसता की बात कर रहा है और कौन उसका उपयोग कर रहा है, यह ढूंढ़ना पड़ता है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। समाज में कौन समरसता की बात कर रहा है और कौन उसका उपयोग कर रहा है, यह ढूंढ़ना पड़ता है। इस मामले में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की दृष्टि शुद्ध, साफ और प्रामाणिक थी। यह उनकी नीति नहीं, उनके जीवन की श्रद्धा थी। वैसे ही जैसे डॉ. हेडगेवार के जीवन की श्रद्धा थी, गुरुजी और बाबा साहब आंबेडकर के जीवन की श्रद्धा थी। वह मानते थे कि विषमता धर्म नहीं है। विषमता अगर है तो उसको हम धर्म नहीं कहेंगे। बाला साहब देवरस ने कहा था कि अगर ऐसा कहेंगे कि विषमता गलत नहीं है तो फिर दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है। अस्पृश्यता अगर गलत नहीं है तो फिर कुछ भी गलत नहीं है। यह उनकी साफ कल्पना थी। धर्म यानी जोड़ने वाला, उन्नत करने वाला। आखिर उसमें छुआछूत, ऊंच-नीच, भेदभाव कैसे हो सकता है? यदि होता है तो वह अधर्म का संक्रमण है। उसे उखाड़कर फेंक देना चाहिए।
देश के उन्नति की अनिवार्य शर्त है समरसता
देश को अगर उन्नत होना है, परम वैभव संपन्न होना है, संगठित होना है तो समरसता अनिवार्य शर्त है। यही न्याय है। न्याय की स्थापना इसके बिना हो नहीं सकती। इसलिए सभी प्रकार की विषमता का समूल निर्मूलन उनके जीवन की श्रद्धा थी और इसीलिए वह किसी भी परिस्थिति, किसी भी प्रवाह में रहते हुए यही काम करते रहे। उनकी बातें दो टूक और साफ-साफ हैं। उसके पीछे किसी प्रकार के लोकप्रियतावाद की या राजनीतिक रूप से सही होने की आकांक्षा नहीं है। किसी को अच्छा लगेगा, किसी को बुरा लगेगा। लोग उसे लेकर हो-हल्ला भी खड़ा कर सकते हैं, लेकिन जो वह बोले हैं, वह अपने मन की प्रामाणिकता से बोले हैं। एक प्रामाणिक श्रद्धा लेकर उन्होंने यह प्रतिपादन किया कि समाज में परिवर्तन आना चाहिए।
एक तरफ राजनीतिक और आर्थिक स्वंतत्रता, दूसरी ओर सामाजिक स्वतंत्रता नहीं है, समता नहीं
संविधान सभा के भाषण में बाबा साहब ने भी कहा था कि अब हम विरोधाभासों के दौर में प्रवेश करने जा रहे हैं। नए संविधान में हमने राजनीतिक और आर्थिक स्वंतत्रता लाने वाले नियम बनाए हैं। यह धीरे-धीरे होगा। जहां एक तरफ राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता है वहीं दूसरी ओर सामाजिक स्वतंत्रता नहीं है, समता नहीं है। यदि हम यह समता शीघ्र अति शीघ्र नहीं लाए तो केवल राजनीतिक और आर्थिक सुधार इतने वर्षों से अन्यायग्रस्त समाज का समाधान नहीं कर सकेंगे और अगर अन्यायग्रस्त लोग कुपित हो गए तो सब ध्वस्त हो जाएगा। कोई उसे बचा नहीं सकेगा। इसलिए हमें बंधुत्व भाव पर ध्यान देना होगा। स्वतंत्रता और समता के लिए बंधु भाव आवश्यक है। हमें बंधु भाव का ध्यान रखना चाहिए। हमने इतने दिन अनेक जातियों की कलह में अपने-अपने स्वातंत्र्य को खो दिया था। महत प्रयास से उसे वापस प्राप्त किया है। उन जातियों में अब एक नया जुड़ाव हो गया है। यदि हमने बंधु भाव को बनाने पर ध्यान नहीं दिया तो आगे आने वाला समय कठिन हो सकता है। यह बंधु भाव ही धर्म है। अमुक नियम, अमुक पुस्तक धर्म नहीं हैं।
आंबेडकर कहते थे कि समरसता के बिना समता संभव नहीं
अपने यहां धर्म के दो अंग माने गए हैं। शाश्वत धर्म और आचार धर्म। आचार धर्म युगानुकूल होता है, उसे बदलना पड़ता है। मूल्य कायम रहते हैं। बाबा साहब आंबेडकर बंधु भाव को ही शाश्वत धर्म कहते हैं। संघ उसे सामाजिक समरसता कहता है। वह कानून नहीं है। वह रीति-रिवाज, रूढ़ियां, कुरीति-परंपरा नहीं है। वह संहिता नहीं है। वह मन की भावना है। सामाजिक समरसता भाषण का विषय नहीं, आचरण का विषय है। विषमता की भावना के कारण आचरण में जो विकृति आई, उसे अपने मन से हटाते हुए धीरे-धीरे संपूर्ण समाज में सही आचरण का प्रवाह करना है। जो तत्व में है, उसे व्यवहार में लाना है। तत्व के अनुसार आचरण करना है। दत्तोपंत जी ने यह बात कई जगह स्पष्टता के साथ रखी। इसीलिए वह कहते थे कि समरसता के बिना समता संभव नहीं। इसके लिए अगर मुझे झुकना पड़ता है तो मैं झुकूंगा।
दीनदयाल जी ने कहा था- जो ऊपर हैं, उन्हेंं झुकना है, जो नीचे हैं उन्हेंं ऊपर उठाना है
एक बार दीनदयाल जी उत्तर प्रदेश के दौरे पर कहीं पैदल जा रहे थे। वहां वह खेत के एक गड्ढे में गिर गए। नानाजी और अन्य लोग उनके साथ थे। उनमें से एक किशोर था। वह उनकी मदद के लिए आया तो दीनदयाल जी ने कहा कि भैया तुम झुको, तभी तो मैं ऊपर आ सकूंगा। ऊपर आने के बाद उन्होंने कहा कि यह उत्थान की नीति होती है कि जो ऊपर हैं, उन्हेंं झुकना है, जो नीचे हैं उन्हेंं अपना हाथ ऊपर उठाना है। इन दोनों के मन में जब एक भावना होती है, तब समाज का उत्थान होता है। इस उद्धरण में सामाजिक समरसता का पूरा तत्व ज्ञान आ जाता है।
क्रांति से परिवर्तन नहीं आता, उथल-पुथल जरूर आती है, परिवर्तन लाने के लिए संक्रांति चाहिए
देश के टुकड़े होंगे, इस रास्ते से काम नहीं चलेगा। जो टुकड़े करना चाहते हैं, उनका उद्देश्य तो यही होगा कि भारत माता की संतानों में क्लेश और बढ़े। देश तोड़ने वाली प्रवृत्तियों के हाथों में नहीं खेलना है। समरसता की बात क्रांतिकारी रास्ते से नहीं होती। क्रांतिकारी रास्ते प्रतिक्रांति की ओर जाते हैं। क्रांति से समता नहीं आती। क्रांति में विजयी होने वाले बाद में शोषण करने वाले बन जाते हैं और नई पीढ़ी को उन्हेंं हटाने के लिए फिर से क्रांति करनी पड़ती है। क्रांति से परिवर्तन नहीं आता। उथल-पुथल जरूर आती है। परिवर्तन लाने के लिए संक्रांति चाहिए। उसके लिए समझाने का तरीका है, बताने का तरीका है। तोड़फोड़ का तरीका नहीं है। बाबा साहब आंबेडकर ने संविधान सभा में विधिसम्मत तरीकों से ही समस्याओं के निरसन की बात कही थी। ऐसे में जो भारत के टुकड़े करने की बात करेंगे, हम उनके साथ कैसे जा सकते हैं?
सभी जाति, वर्गों की दोस्ती आवश्यक
जो समाज को सिखाना है, वह अपने घर से शुरुआत करो। एक परिवार का दूसरे परिवार से नाता देखकर बदलाव आता है। सभी जाति, वर्गों की दोस्ती आवश्यक है। एक बड़ी लाइन खींचने का काम संघ ने किया है। आचरण का उदाहरण रखना है। करके दिखाओ और बाद में बोलकर समझाओ। संघ के एक स्वयंसेवक से जुड़ा प्रसंग है, जो किसी कथित पिछड़ी जाति के सज्जन के यहां भोजन कर रहे थे। उन्होंने उनसे कहा कि हमारे यहां भोजन करने से आपकी 42 पीढ़ियां नरक की भोगी बन सकती हैं तो स्वयंसेवक ने उत्तर दिया कि यदि हिंदू समाज संगठित करने के लिए हमारी 42 पीढ़ियां नरक में जाती हैं तो मुझे स्वीकार्य है। ऐसा उत्तर कैसे आता है? यह समरसता की भावना से आता है। प्रतिबद्धता से आता है। हमें इसी दिशा में काम करना है।