अंतत: सिद्धारमैया कर्नाटक के 23वें मुख्यमंत्री बन रहे हैं। डीके शिवकुमार भी उपमुख्यमंत्री बनने पर सहमत हो गए हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी बने रहेंगे। आज उनका शपथ-ग्रहण समारोह है। विपक्षी एकता का बिम्ब भी दिखाई देगा, हालांकि उसमें कुछ दरारें भी दिखेंगी। चार दिनों तक डीके मुख्यमंत्री पद के लिए अड़े रहे। जनादेश की दावेदारी न तो सिद्धारमैया कर सकते हैं और न ही शिवकुमार। जनादेश कांग्रेस को, भाजपा के विकल्प के तौर पर, मिला है। यदि किसी एक नेता का करिश्मा होता, तो बेशक उसका उल्लेख भी किया जाता। सिद्धारमैया का नाम चुनाव के दौरान ही तय कर लिया गया था, क्योंकि आजकल कांग्रेस ने ओबीसी, यानी पिछड़े, का ‘राजनीतिक राग’ अलापना शुरू कर दिया है। सिद्धारमैया कुरुबा समुदाय के हैं, जो कर्नाटक में पिछड़ा समाज माना जाता है। बेशक सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदार शपथ ले रहे हैं, लेकिन दलित, मुसलमान, लिंगायत आदि ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। उनकी पुरजोर मांग रही है कि सत्ता में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, लिहाजा उपमुख्यमंत्री उनके सामुदायिक विधायक को भी बनाया जाए। दलितों की पीड़ा जी. परमेश्वर बयां कर रहे हैं, जो पहले सरकार में उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे हैं।
कद्दावर नेता हैं। बहरहाल कांग्रेस को मनुहार-पुचकार अभी करनी पड़ेगी, क्योंकि इन समुदायों के व्यापक समर्थन से ही कांग्रेस का जनादेश तय हो पाया है। कांग्रेस में नेतागीरी की रस्साकशी की पुरानी परंपरा रही है और हिस्सेदारी का नाटक आज भी जारी है। प्रधानमंत्री रहीं दिवंगत इंदिरा गांधी भी रस्साकशी और विभाजन की देन थीं। आज राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के उदाहरण भी कांग्रेस नेतृत्व के सामने हैं। चिंता भी होती होगी, क्योंकि तीनों राज्यों में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। राजस्थान में तो मंत्रियों ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के लिए बयान देने शुरू कर दिए हैं कि वह अहंकारी हो गए हैं। कर्नाटक में 40 फीसदी कमीशन की सरकार थी। राजस्थान में तो उससे भी ज्यादा दलाली खाई जाती है। सरेआम भ्रष्टाचार है। कांग्रेस के लिए ये विरोधाभास शांत करना आसान नहीं है। कर्नाटक की चुनौती भी कमतर नहीं है। राज्य सरकार को ‘पांच गारंटियां’ मुहैया करानी हैं। महिलाओं और बेरोजगार युवाओं को जो नकदी भत्ते बांटे जाने हैं, उन्हें लेकर कांग्रेस का अन्य राज्यों में रिकॉर्ड खराब रहा है।
करीब एक साल बाद लोकसभा चुनाव भी हैं। कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से मात्र एक सीट कांग्रेस को नसीब है। भाजपा के 25 सांसद हैं और 18 सांसदों से कम उनकी संख्या कभी नहीं रही। यदि कर्नाटक में थोड़ी-सी भी कोताही बरती गई, तो आम चुनाव का जनादेश अपनी दिशा फिर बदल सकता है। कर्नाटक में कांग्रेस की कई स्तरों पर अग्नि-परीक्षा है। यदि सिद्धारमैया और डीके ने आपसी समन्वय और सहयोग से काम किया, तो राजस्थान, मप्र और छत्तीसगढ़ में भी गुटों में बंटी कांग्रेस के काडर के लिए बेहतर होगा। कर्नाटक की पद्धति पर राजनीति करने की प्रेरणा मिलेगी। यदि पार्टी ने वोट पाने के लिए ही कुछ जुमले उछाल दिए थे और सरकार सभी स्तरों पर काम नहीं करेगी, तो जनादेश नाराजगी की मुद्रा में भी जा सकता है।
By: divyahimachal