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हिमाचल के उपचुनावों में नागरिक संवाद की कोई जगह बनेगी या अपने-अपने तिलिस्म खड़े करके दोनों पार्टियां व्यक्तिवाद की ओढ़नी पहन कर मृगतृष्णा पैदा करेंगी। चुनाव अपनी बेबाकी में छिछालेदर तो कर रहे हैं, लेकिन जनता को जुबान देने में कोई नया कारनामा नहीं कर पा रहे। जाहिर है उपचुनाव का तिलिस्म नेताओं के इर्द-गिर्द ही रहेगा और इस तरह प्रचार की रोशनी में हिमाचल भोला तो नहीं दिखाई दे रहा। प्रचार तंत्र को इस्तेमाल करने की कला में भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला स्पष्ट है, तो शब्दों की संपत्ति में मुद्दे हार रहे हैं। आश्चर्य यह कि कारगिल युद्ध अगर मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) खुशाल सिंह को एक नायक के रूप में पेश कर रहा है, तो इस पहलू का विरोध संयमित भाषा के सही-सही उपयोग से ही होगा।
कारगिल युद्ध पर बेवजह टिप्पणी करके कांग्रेस उम्मीदवार प्रतिभा सिंह ने कुछ तो उल्लंघन किया है। दूसरी ओर पंजाब की संस्कृति पर चुनावी टिप्पणी करके भाजपा ने भी प्रचार की लक्ष्मण रेखा लांघी है। अब सवाल यह भी कि कन्हैया कुमार का विरोध उसके तर्कों को धीमा कर देगा या राष्ट्रीय उलझनों के बीच कांग्रेस का प्रहार प्रासंगिक हो जाएगा। यह प्रचार का करिश्मा ही माना जाएगा कि विरोधी पार्टी ने मंच की भाषा को राष्ट्रीय पैगाम बनाया है। इस तरह राष्ट्रीय विरोध की तर्ज में हिमाचल भी अपनी कुंठाओं को जोड़ सकता है, जबकि भाजपा का देशीपन प्रदेश के नागरिकों के बीच अपनत्व जोड़ रहा है। उपचुनाव का गणित किसी कन्हैया या सिद्धू के आगमन से भले ही अप्रभावित रहे, लेकिन कांग्रेस देश के सामने अपने विकल्प को श्रेष्ठ जरूर कर रही है। ऐसे में भाजपा की लाठी का सहारा भी अगर एक-दो हस्तियां बनें तो उपचुनाव का उच्चारण और दूर तक असर करेगा। खासतौर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की हस्ती में करिश्मा खोज रहे हिमाचली नागरिक प्रतीक्षारत रहेंगे कि वह आएं और राज्य के रोडमैप में अपनी भूमिका दर्ज करें। हिमाचल का आत्मसम्मान जाहिर तौर पर बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से जुड़ता है।
ऐसे नेतृत्व के संयोग को उपचुनाव जरूर पढ़ना चाहेंगे, जबकि प्रचार की भूमिका में भाजपा नेताओं का मतदाताओं से होने वाला आह्वान अगले साल के विधानसभा चुनावों की वकालत सरीखा है। हिमाचल में भाजपा की फील्डिंग भले ही कांग्रेस से बेहतर हो सकती है, लेकिन पार्टी का करिश्मा जब तक स्पष्टता से दर्शन नहीं देगा, प्रचार की सामग्री सशक्त नहीं होगी। प्रदेश का नागरिक समाज या समाज का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के प्रचार में राष्ट्रीय नेताओं को देखता रहा है। राज्य में गैर कांग्रेसवाद पैदा करने की आरंभिक कोशिशों में भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं का आगमन काफी हद तक पहचान पैदा करता रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं की अनेक नुक्कड़ सभाओं ने कांग्रेस का विकल्प ढूंढा था। अब नागरिक रिश्ते अगर केवल सरकारी हैं, तो पार्टी की यह शक्ल अभिजात्य वर्ग की तरह है। दुर्भाग्य से बड़े नेता ही अगर प्रदेश के कद को छोटा मानेंगे, तो करिश्मा नहीं होगा। चुनाव में अटल टनल का जिक्र अपने ऐतिहासिक लम्हों को भाजपा के साथ जोड़ सकता है, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री के संपर्क में हिमाचल आज भी सम्मानित महसूस करता है। राष्ट्रीय नेताओं के साथ हिमाचल का करिश्मा जो भी पार्टी जोड़ती है, उसका राजनीतिक लाभ अवश्य ही मिलता है। हो सकता है जगत प्रकाश नड्डा की व्यस्तता राष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिकताएं बदल रही हों, लेकिन नन्हा हिमाचल उनका राष्ट्रीय करिश्मा देखना चाहेगा। इन उपचुनावों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की गृह राज्य के प्रति प्राथमिकता का विश्लेषण भी होगा।