खेती में आमदनी बढ़ाने की चुनौती

साठ फीसद आबादी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और खेती से जुड़ी हुई है। मगर विकास की भरपूर संभावना वाला कृषि क्षेत्र हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है। कृषि को अभी तक सरकारें सिर्फ देश की जनता का पेट भरने का साधन मानती आई हैं। इसके माध्यम से देश की जीडीपी बढ़ाने पर कभी गहन मंथन नहीं हुआ।

Update: 2022-12-22 04:44 GMT

Written by रवि शंकर: साठ फीसद आबादी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और खेती से जुड़ी हुई है। मगर विकास की भरपूर संभावना वाला कृषि क्षेत्र हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है। कृषि को अभी तक सरकारें सिर्फ देश की जनता का पेट भरने का साधन मानती आई हैं। इसके माध्यम से देश की जीडीपी बढ़ाने पर कभी गहन मंथन नहीं हुआ।

इस समय किसानों की स्थिति में भले कुछ परिवर्तन नजर आता हो, पर इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। गौरतलब है कि 2016 में केंद्र सरकार ने कहा था कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी, जब देश अपनी आजादी के पचहत्तर साल पूरे करेगा। यह ठीक है कि सरकार का इस दौरान पूरा ध्यान पैदावार और किसानों की आमदनी बढ़ाने पर रहा है। वह कृषि क्षेत्र को पटरी पर लाने में जुटी है।

यह कोशिश सिर्फ उत्पादन के लक्ष्यों तक सीमित नहीं है। अन्य कई मोर्चों पर भी पहल की जा रही है। आय बढ़ाने से जुड़े अभियान में उत्पादन को ऊंचे स्तर पर ले जाने, जुताई का खर्च घटाने और फसल का मूल्य बढ़ाने पर जोर है, ताकि किसानों को ज्यादा मुनाफा मिल सके। इस दृष्टि से कई योजनाएं शुरू की गई हैं और नीतिगत स्तर पर भी काफी सुधार हुए हैं। साथ ही, इन योजनाओं को वित्तीय मदद मुहैया कराने के लिए कृषि क्षेत्र से जुड़े बजटीय आबंटन में बढ़ोतरी की गई है। मगर किसानों की आय दोगुनी होने का लक्ष्य अब भी काफी पीछे है। अब तो वह समय सीमा भी खत्म हो रही है, जो सरकार द्वारा निर्धारित की गई थी।

मार्च 2022 में कृषि पर बनी संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में दो सर्वेक्षणों के आंकड़े बताए थे, जो 2015-16 और 2018-19 के थे। इनके आधार पर संसदीय समिति ने बताया था कि 2015-16 में देश के किसानों की महीने की औसत आमदनी 8059 रुपए थी, जो 2018-19 तक बढ़ कर 10,218 रुपए हो गई। यानी चार साल में महज 2159 रुपए की बढ़ोतरी हुई है। किसानों की आमदनी अगर बढ़ी है, तो खर्च भी बढ़ रहा है। पिछले साल नवंबर में सरकार ने बताया था कि किसान हर महीने 10,218 रुपए कमाते हैं, तो 4,226 रुपए खेती पर खर्च हो जाते हैं।

किसान हर महीने 2959 रुपए बुआई और खाद-पानी पर और 1267 रुपए पशुपालन पर खर्च करता है। यानी, किसानों के हाथ में छह हजार रुपए भी नहीं आते। इसी में उसे अपना घर चलाना पड़ता है, बच्चों की पढ़ाई, मां-बाप की दवाई, सब कुछ उसे उन्हीं पैसों में करना पड़ता है। छह हजार रुपए होते क्या हैं, यह सब जानते हैं। इतनी कम कमाई के चलते ही किसान कर्ज लेने को मजबूर हो जाता है।

सबसे ज्यादा कमाई मेघालय के किसानों की है। वहां के किसान की हर महीने की आमदनी 29,348 रुपए है। दूसरे स्थान पर पंजाब है, जहां के किसान 26,701 रुपए महीना कमाते हैं। तीसरे स्थान पर 22,841 रुपए की कमाई के साथ हरियाणा के किसान हैं। देश में चार राज्य ऐसे हैं जहां किसानों की आमदनी कम हो गई है। वे हैं- झारखंड, मध्यप्रदेश, ओडिशा और नगालैंड।

झारखंड के किसानों की हर महीने की कमाई 2173 रुपए कम हो गई है। वहीं, नगालैंड के किसानों की आमदनी 1551 रुपए, मध्यप्रदेश के 1400 रुपए और ओड़ीशा के किसानों की आमदनी 162 रुपए घट गई है। किसान को यों तो देश का अन्नदाता कहा जाता है, मगर हकीकत यह है कि वह अपना पेट भरने के लिए जिंदगी भर संघर्ष करता रह जाता और कभी-कभी इतना मजबूर हो जाता है कि उसके सामने आत्महत्या के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता है।

आजकल किसानों को ऋण बड़ी आसानी से उपलब्ध हो जाता है, पर फसल बर्बाद होने पर उस कर्ज की भरपाई कैसी की जाए इसका कोई उपाय किसानों के पास नहीं होता और न ही सरकार इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाती है। इसलिए किसानों का जीवन बहुत अधिक सुखद नहीं माना जा सकता। संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि सरकार को एक विशेष टीम बनानी चाहिए, जो इन राज्यों में किसानों की घटती आमदनी के कारणों का पता लगाए। इन राज्यों को सही कदम उठाने का सुझाव भी दिया है। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि किसानों के हालात अब भी दयनीय बने हुए हैं। इसलिए किसानों की स्थिति सुधारने और आय को बढ़ाने के लिए भगीरथ प्रयास की जरूरत है।

देश की दो तिहाई जनसंख्या ग्रामीण है। साठ फीसद आबादी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और खेती से जुड़ी हुई है। मगर विकास की भरपूर संभावना वाला कृषि क्षेत्र हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है। कृषि को अभी तक सरकारें सिर्फ देश की जनता का पेट भरने का साधन मानती आई हैं। इसके माध्यम से देश की जीडीपी बढ़ाने पर कभी गहन मंथन नहीं हुआ। देश के अलग-अलग हिस्सों में किसानों की समस्याएं अलग हो सकती हैं, लेकिन कुछ समस्याएं सारे किसानों की समान हैं।

पिछले कई सालों से खेती पर लागत जिस तेजी से बढ़ रही है, उस अनुपात में किसानों को फसलों के दाम बहुत कम बढ़े हैं। सरकार की हर संभव कोशिश रहती है कि फसलों के दाम कम से कम रहें, ताकि मंहगाई काबू में रहे। इससे किसान बीच में पिस जाता है और देश की जनता को सस्ते में भोजन उपलब्ध कराने की सारी जिम्मेदारी किसान के कंधों पर डाल दी जाती है। इसका परिणाम किसान पर बढ़ते कर्ज के रूप में दिखता है। यही वजह है कि इस वक्त देश के किसानों पर 16.80 लाख करोड़ रुपए का कृषि कर्ज बकाया है।

फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देना समय की मांग है, ताकि किसानों के हितों की रक्षा हो सके। हताश और निराश किसान को जब तक कीमत की कानूनी गारंटी नहीं मिलती है, तब तक न किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य पूरा होगा और न ही किसानों की खुदकुशी रुकेगी। खेती की जमीनी हकीकत यही है कि सभी राज्यों में कृषि की लागत बढ़ी है।

खाद, बिजली, डीजल के दाम को एक साथ जोड़ें तो खेती पर लागत पहले के मुकाबले 8.9 फीसद बढ़ गई है। बैंक आफ अमेरिका सिक्योरिटीज ने खेती पर लागत बढ़ने संबंधी रिपोर्ट इस साल मई में जारी की थी। उसमें कहा गया था कि 2020-21 के मुकाबले 2021-22 में खेती पर लागत बीस फीसद तक बढ़ गई। यह रिपोर्ट उपभोक्ता मांग पर आधारित थी। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि महंगाई बढ़ने से कंपनियों की आमदनी में तो इजाफा होगा, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों से उत्पाद की मांग कम होगी, क्योंकि किसानों के पास उत्पाद खरीदने के लिए पैसा नहीं होगा। खेती से उनकी आमदनी इसलिए नहीं बढ़ पा रही है, क्योंकि खेती पर लागत बढ़ रही है।

पिछले कुछ वर्षों से कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का एकमात्र चमकता क्षेत्र रहा है। खेती समग्र अर्थव्यवस्था की विकास दर का भार उठा रही है। कोरोना महामारी के दौरान भी, कृषि क्षेत्र ने उत्पादन और निर्यात के मोर्चे पर आशा के संकेत दिखाए। ऐसे में यह साफ हो जाना चाहिए कि आने वाले समय में खेती-किसानी ही अर्थव्यवस्था की बड़ी ताकत रहेगी। सरकार को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा। पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था का चुनौतीपूर्ण लक्ष्य हासिल करने के लिए कृषि विकास दर का ग्राफ लगातार ऊपर की ओर चढ़ना जरूरी है।


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