'ब्लैक फंगस' का काला संसार

कोरोना महामारी किस हद तक भयानक रूप ले सकती है इसका प्रमाण देश में फैलती ‘ब्लैक फंगस’ बीमारी है।

Update: 2021-05-24 02:45 GMT

आदित्य चोपड़ा | कोरोना महामारी किस हद तक भयानक रूप ले सकती है इसका प्रमाण देश में फैलती 'ब्लैक फंगस' बीमारी है। यह उन लोगों को हो रही है जिन्हें कोरोना संक्रमण हो चुका है और वे कमोबेश इससे ठीक भी हो चुके हैं। इस बीमारी का खतरा उन लोगों को सबसे ज्यादा है जो मधुमेह या शुगर के मरीज हैं। भारत में इस समय पूरी दुनिया में शूगर के सबसे ज्यादा मरीज हैं और विश्व की 'शुगर राजधानी' कहा जाता है। बीमारी अभी तक केवल भारत में ही पायी गई है । केवल इक्का-दुक्का ही कोई ऐसा दूसरा देश होगा जहां ब्लैक फंगस का पता चला है। इसकी वजह क्या है यह तो चिकित्सा विशेषज्ञ ही बता सकते हैं परन्तु इतना निश्चित है कि अब यह बीमारी तेजी से फैल रही है। अभी तक पूरे भारत के विभिन्न राज्यों में इसके नौ हजार से ज्यादा मामले प्रकाश में आये हैं जिनमें ढाई सौ से अधिक लोगों की मृत्यु भी हो चुकी है। चिकित्सा विज्ञानियों का बेशक यह कहना है कि यह 'छूत' की बीमारी नहीं है परन्तु बड़ी उम्र के लोगों को इससे सबसे ज्यादा खतरा है। यह मरीज की आंख में होती है और उसे एक प्रकार की काही या फंगस के नीचे दबा देती है, जिससे उस व्यक्ति की न केवल आंखों की रोशनी ही चली जाती है बल्कि उसकी जान बचाने के लिए शल्य चिकित्सा करके आंख को भी निकालना पड़ता है। एक के बाद एक राज्य सरकारें इसे 'देशज' महामारी घोषित कर रही हैं। इसके इलाज की प्रारम्भिक अचूक दवा का भी अभी तक पता नहीं चला सका है और इसके फैल जाने पर चिकित्सक शल्य चिकित्सा करके या कारगर दवाइयां देकर इसका इलाज करते हैं और किसी प्रकार मरीज की जान बचा पाने में सफल हो पाते हैं। मगर इसका इलाज इतना महंगा होता है कि किसी गरीब आदमी के बस से बाहर की बात होती है।

इतना ही नहीं इस नई बीमारी को चिकित्सा बीमा कम्पनियों ने भी अपने हिसाब-किताब में नहीं लिया हुआ है। इस प्रकार गरीब व मध्यम दर्जे के लोगों के बूते से इसका इलाज बाहर है। अतः विपक्ष मांग कर रहा है कि ब्लैक फंगस के मरीजों का सरकार मुफ्त इलाज कराये। हकीकत यह है कि ब्लैक फंगस के मरीज का दाखिला किसी निजी अस्पताल में तभी हो सकता है जब वह पहले लाखों रुपए की फीस जमा करा दे। इसका उपचार सामान्य अस्पतालों मे संभव नहीं है। दूसरी तरफ इस बीमारी के उपचार में जो दवाएं प्रयोग में आ रही हैं उनकी देश में भारी कमी है। अतः सबसे पहले आवश्यक दवाइयों का घरेलू उत्पादन बढ़ाने और विदेशों से इसे शुल्क मुक्त आधार पर आयात किये जाने की जरूरत है। आगामी 28 मई को जीएसटी कौंसिल की बैठक होनी है उसमें एक बार में ही कोरोना से जुड़ी हुई हर बीमारी के उपचार में जरूरी दवा अथवा उपकरण या संयन्त्र पर उत्पाद शुल्क को घटा कर न्यूनतम किये जाने का फैसला किया जाना चाहिए और साथ ही सरकार के इन्हें भारत में बनाने के लिए आवश्यक कच्चे माल से आयात शुल्क या वस्तु कर खत्म करना चाहिए। यह कार्य प्राथमिकता के आधार पर किया जाना इसलिए जरूरी है जिससे कोरोना से जुड़ी बीमारियों का इलाज सस्ता हो सके। परन्तु जहां तक ब्लैक फंगस का सवाल है तो राज्य सरकारें इसे महामारी घोषित करके अपने दायित्व से छुटकारा नहीं पा सकती हैं। इसके सस्ते से सस्ते इलाज का प्रबन्ध भी उन्हें करना होगा। राज्य सरकारों का यह तर्क रहा है है कि कोरोना एक वैश्विक या अन्तर्राष्ट्रीय महामारी ( पैंडेमिक) है अतः भारत की राष्ट्रीय सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए । इस मामले में उनका सबसे बड़ा तर्क यह है कि भारत की केन्द्र सरकार को कोरोना महामारी से बचाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए वैक्सीन की व्यवस्था करनी चाहिए और राज्यों की मशीनरी या चिकित्सा तन्त्र द्वारा उनका वितरण कराया जाना चाहिए। यदि इस तर्क को जायज मान लिया जाये तो देश में महामारी ( इपेडेमिक) की जिम्मेदारी तो उन्हें लेनी होगी और लोगों को ब्लैक फंगस के प्रकोप से बचाना होगा। इस बारे में स्पष्टता बहुत जरूरी है क्योंकि वैक्सीन को लेकर देश में जो अराजकता का माहौल बना हुआ है उससे सबसे ज्यादा आम व्यक्ति ही प्रभावित हो रहा है। भारत संविधान से चलने वाला देश है और हमारा संविधान कोई आसमानी किताब नहीं है बल्कि इसी जमीन पर पैदा हुए विद्वानों ने उसे जमीनी सच्चाई को परखते हुए लिखा है। फिलहाल ब्लैक फंगस के सबसे ज्यादा मामले गुजरात राज्य से आये हैं । सबसे पहला मामला भी इसी राज्य मे प्रकाश में आया था। इसके बाद अब तक यह रोग 15 राज्यों में फैल चुका है। हमें याद रखना चाहिए कि विगत वर्ष मार्च महीने में हमने लाकडाऊन तब लगाया था जब पूरे देश मे कोरोना के कुल मामले बामुश्किल 576 के करीब थे। मगर इसके बाद जो हालात बने उसे हम सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं। अतः ब्लैक फंगस को किसी भी सूरत में हल्के में लेने की जरूरत नहीं है। बेशक यह संचारी रोग नहीं है मगर आबादी के विशेष वर्ग को तो अपना निवाला बनाने की कूवत रखता है। इनकी रक्षा करना सरकार का प्राथमिक दायित्व बनता है क्योंकि इस देश मे एसे जाहिल राजनीतिज्ञों की कमी नहीं है जो गंगा नदी मे तैरती लाशों की तुलना 'जल समाधि' से कर रहे हैं। हे-राम !सद्बुद्धि ।


Tags:    

Similar News

-->