शिक्षक-शिक्षा की फिक्र
जातिवाद का पागलपन अब भी देश में पसरा पड़ा है। अछूत जैसे रुग्ण शब्द से तो सभी परिचित हैं, पर इस देश में ऐसी भी जातियां रही हैं, जिन्हें देखना तक वर्जित था। केरल को स्वामी विवेकानंद ने ‘जातिवाद का पागलखाना’ कहा था।
चैतन्य नागर: जातिवाद का पागलपन अब भी देश में पसरा पड़ा है। अछूत जैसे रुग्ण शब्द से तो सभी परिचित हैं, पर इस देश में ऐसी भी जातियां रही हैं, जिन्हें देखना तक वर्जित था। केरल को स्वामी विवेकानंद ने 'जातिवाद का पागलखाना' कहा था। वहां कुछ लोगों को सिर्फ दिन के बारह बजे बाहर निकलने की अनुमति थी, क्योंकि उस समय उनकी परछाईं दूर तक नहीं फैलती थी। उनकी परछार्इं भी किसी 'ऊंची जाति' वाले को छू जाए, तो वह अशुद्ध हो जाता था।
उन्हें अपनी गर्दन में एक घंटा लटका कर निकलना और उसे लगातार बजाते रहना पड़ता था, जिससे सवर्ण दूर से ही उनके आने की आहट पा जाएं और दूर हो जाएं। आज भी ये बातें सच हैं, दूर के गांवों में हैं, इक्का-दुक्का हैं, खबरों में नहीं आतीं, पर उनकी जड़ें बरसों से हमारे सामूहिक मन में बनी हुई हैं।
बच्चे और युवा जब इन पुरानी और कई नवविकसित कुरीतियों का शिकार होते हैं, तो दुख अधिक बढ़ जाता है। हाल में ऐसी कई ऐसी खबरें आईं, जिनमें स्कूल और कालेज के बच्चों की खुदकुशी का जिक्र था। छात्रों में गुटबाजी और हिंसा, एक-दूसरे की हत्या, सड़क पर नशे और गुस्से में की जाने वाली हिंसा, बेरोजगारी और कभी-कभी उसकी वजह से होने वाली घरेलू हिंसा-ऐसी कई बातें मन को भीतर तक छील देती हैं। सबसे अधिक चिंता जाति, धर्म के नाम पर शैक्षणिक संस्थानों में बच्चों के साथ-साथ भेदभाव किए जाने की घटनाओं को लेकर होती है।
शैक्षणिक संस्थानों की वर्तमान और भविष्य की ऐसी पीढ़ियां तैयार करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जिनमें जिम्मेदार और कुशल व्यक्ति हों, उनके पास ज्ञान और समझ हो, सकारात्मक दृष्टिकोण और सह-अस्तित्व की गहरी भावना हो। अगर स्कूल और कालेज ही हिंसा के केंद्र बन जाएंगे, चाहे वे दूसरों के प्रति हो या स्वयं के प्रति बिल्कुल शुरुआती स्तर पर ही जातिवाद, संप्रदाय, नस्लवाद और स्त्री संबंधी विषाक्त बातें, शिक्षक छात्रों तक और छात्र एक-दूसरे तक पहुंचा देंगे, तो ऐसे में देश और समाज का भविष्य गहरे अंधेरे में ही डूब जाएगा।
बचपन में ही अगर इस तरह के अनुभव हों, तो वे बच्चों के अचेतन मन का हिस्सा बन जाते हैं, और फिर हिंसा, मारपीट वगैरह उन्हें सामान्य आचरण की तरह लगने लगता है। आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षकों को एक आदर्श बनने की जरूरत है, जो इन बीमारियों से ऊपर उठ चुका हो, या कम से कम ऊपर उठने का ईमानदार प्रयास कर रहा हो।
इस तरह की घटनाएं यह भी दर्शाती हैं कि आर्थिक-सामाजिक स्तर पर हम भयंकर विषमता का शिकार हैं। लोकतंत्र के आदर्श के रूप में समानता, आत्मसम्मान, व्यक्ति की गरिमा आदि की बातें सिर्फ किताबों में देखने को मिलती हैं। हमारे वास्तविक सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के साथ उनका कोई वास्ता नहीं।
हमारी आबादी का एक तिहाई हिस्सा अपने हर दिन का बड़ा हिस्सा स्कूल या कालेज में बिताता है। यह समय उनको समझने, समझाने और उनमें आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन लाने के लिए सबसे सही है। यही समय है जब शिक्षक बच्चों को बौद्धिक लब्धि (आइक्यू) के साथ भावनात्मक लब्धि (ईक्यू) के महत्त्व को समझा सकता है।
नाकामी का सामना करना, नकारात्मकता के गहरे कुएं में न उतरना, हिंसा को उसे शैशव काल में ही समझना और खत्म करना, तब नहीं जब वह एक राक्षसी रूप से ले- इस तरह की समझ किताबों की पढ़ाई के साथ-साथ भी दी जा सकती है। पर इसके लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण उन लोगों द्वारा जरूरी है, जो शिक्षा के इस आयाम को गहराई से समझते हैं, इस दिशा में उन्होंने काम किया है।
विकसित देशों ने इन सभी जरूरतों को समझा और उनमें से कई ने इन मुद्दों पर सजगता के साथ काम भी किया है। फिनलैंड का एक बड़ा उदाहरण हमारे सामने है। फिनलैंड में इस बात का महत्त्व बखूबी समझा गया कि देश के विकास के लिए युवा पीढ़ी के भीतर सही समझ पैदा करना बहुत जरूरी है। शैक्षणिक संस्थानों ने खासतौर पर शिक्षण माडल और प्रशिक्षण के कार्यक्रम तैयार किए, जिनकी मदद से बच्चों में व्यवहार, सोच और दृष्टिकोण में परिवर्तन आ सके।
इन कार्यक्रमों को तैयार करने में अभिभावक, नेता, शैक्षणिक संस्थान, राजनीतिक दल और समाज सेवी संगठन सभी शामिल हुए। सवाल है कि क्या हम अपने शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षकों और छात्रों में इस तरह का अंदरूनी बदलाव लाने को तैयार हैं। क्या इसके लिए हमारे पास राजनीतिक इच्छाशक्ति है या फिर हम इस तरह के परिवर्तन इसलिए नहीं लाना चाहते, क्योंकि इसके राजनीतिक नुकसान हैं? जाति के नाम पर वोट लूटने की आदत इतनी पुरानी और इतनी फायदेमंद है कि उसे खत्म करने में राजनीतिक दलों का ही नुकसान है। शिक्षकों का बौद्धिक और नैतिक स्तर बदलने, बढ़ाने की जरूरत है।
साथ ही संस्थानों में काम करने वाले अन्य कर्मियों के साथ भी नियमित रूप से बातचीत की जानी चाहिए। जातिवाद और सांप्रदायिकता का जहर फैलाने का काम ये भी खूब करते हैं। शिक्षकों के किए-धरे पर पानी फेरना इनके बाएं हाथ का खेल है। बुनियादी रूप से यह प्रक्रिया शिक्षक की समझ और प्रशिक्षण से शुरू होती है। उनकी दिलचस्पी इस बात में होनी चाहिए कि समाज में गहरे बदलाव आएं।
जातिवाद और सांप्रदायिकता का जहर शांत हो। समानता, आजादी, भाईचारे में उनकी वास्तविक रुचि होनी चाहिए, सिर्फ बौद्धिक और मौखिक नहीं। शैक्षणिक संस्थानों के बाकी गैर-शिक्षक कर्मियों में यह समझ लाने का काम भी शिक्षक ही कर सकते हैं, अगर वे लगातार सतर्क और सजग रहें। स्कूल कालेजों को इन मूल्यों को संप्रेषित करने के लिए लगातार अभिभावकों के संपर्क में रहने की जरूरत है। यह काम वे सीधी बैठकों या फिर डिजिटल माध्यमों से भी कर सकते हैं। दोनों का समय-समय पर उपयोग किया जा सकता है।
दुर्भाग्य से शिक्षा डिग्रियां बटोरने और नौकरी पाने का एक माध्यम भर बन कर रह गई है। इन चीजों की अपनी सीमित भूमिका है, पर हृदय के संवर्धन पर ध्यान देना बहुत जरूरी है, जिसके बारे में गांधी जी ने बातें भी की थीं, और व्यावहारिक स्तर पर काम भी किया था। सही शिक्षा को सामाजिक विभाजन दूर करने के प्रयास करने चाहिए।
छात्र को नए माहौल, लगातार बदलते हुए जीवन, नाकामयाबी, कामयाबी और विनम्रता, दुश्चिंताओं और अवसाद के साथ जीना सिखाने का काम भी स्कूलों, अभिभावकों और पेशेवर मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं के आपसी सहयोग पर निर्भर करता है।
शिक्षा संस्थान को कभी धर्म, जाति, क्षेत्र और रंग के आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं करना है, इसे सरकार, शिक्षा बोर्ड और संस्थान के प्रबंधन को सुनिश्चित करना होगा। इस तरह की घटनाएं हो भी जाएं तो यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि बाकी छात्र इन बातों से प्रभावित न होने पाएं। इससे निपटने के तुरंत उपाय शुरू किए जाने चाहिए, जिनसे उनके दिलो-दिमाग पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को मिटाया जा सके।