राजद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट: बहस के बीच बदलाव की बुनियाद
राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर संसद से शुरू हुई बहस आज सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर है
हरि वर्मा
राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर संसद से शुरू हुई बहस आज सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर है। यह महज संयोग है कि अंग्रेजों के समय के करीब डेढ़ सौ साल पुराने (1860) कानून पर आजादी के अमृत महोत्सव यानी 75 वें वर्ष की बेला में बदलाव की बुनियाद पड़ी है।
यह नींव सुप्रीम कोर्ट के बुधवार के ताजा फैसले से पड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने अब केंद्र के पाले में गेंद डालते हुए समीक्षा होने तक राजद्रोह कानून पर फिलहाल रोक लगा दी है। नए मामले दर्ज नहीं होंगे, वहीं पुराने मामलों में जेलों में बंद आरोपियों को अदालत के जरिए राहत संभव है।
संसद से सुप्रीम कोर्ट तक
16 मार्च 2021 को पहली बार संसद में गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने खुद राजद्रोह कानून की समीक्षा की जरूरत महसूस की। दरअसल, सरकार पर इस कानून के बेजा इस्तेमाल को लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं। 1860 में बने राजद्रोह कानून को 1870 में भारतीय दंड संहिता के छठे अध्याय में 124 (ए) के तहत जगह मिली। इसमें प्रावधान है कि अगर कोई व्यक्ति बोलकर, लिखकर या चिन्ह्रों में घृणा, अवमानना, उत्तेजित, उकसावे या असंतोष भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह है।
1891 में राजद्रोह का पहला मामला अखबारनवीस जोगेंद्र बोस पर दर्ज हुआ था। उसके बाद अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले बाल गंगाधर तिलक से लेकर अनेक सेनानियों ने मुकदमे झेले। अंग्रेजों ने इस कानून को आजादी की लड़ाई पर अंकुश का हथियार बना डाला।
जानकर हैरानी होगी कि जिस ब्रिटिश हुकूमत ने इस कानून को बनाया था, उसी ब्रिटेन में 2010 में इस कानून को खत्म किया जा चुका है। दूसरी तरफ, यह हमारे यहां आज भी न केवल चलन में है बल्कि विवादों और सुर्खियों में भी।
सोशल मीडिया के दौर की बड़ी चुनौती
तब आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी। तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो के तराने गूंज रहे थे। आज उसकी जगह सोशल मीडिया हावी है। सोशल मीडिया के इस दौर में राजद्रोह कानून के दायरे में नागरिकों खासतौर से सोशल मीडिया यूजर्स की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। एक मामूली पोस्ट, खासतौर से किसी गैरों के पोस्ट को फॉरवर्ड कर देने भर से सामाजिक सद्भाव बिगड़ सकता है। हिंसा भड़क सकती है।
ऐसे ही कई पोस्ट से हाल के दिनों में सामाजिक ताना-बाना और सद्भाव बिगड़ा है। ऐसे में सरकार जब राजद्रोह कानून के दायरे में कार्यवाही करती है तो अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे का शोर बढ़ जाता है। कैंपस से कश्मीर तक आजादी-आजादी के नारे गूंजने लगते हैं। लेकिन वर्तमान में लग रहे आजादी के ये नारे, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी गई आजादी के तरानों से जुदा हैं।
1891 में राजद्रोह का पहला मामला अखबारनवीस जोगेंद्र बोस पर दर्ज हुआ था। उसके बाद अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले बाल गंगाधर तिलक से लेकर अनेक सेनानियों ने मुकदमे झेले।
आंकड़ों की जुबानी
हालांकि, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 2015 से 2020 के बीच राजद्रोह के 356 मामले दर्ज हुए और 548 गिरफ्तारियां हुईं। इन पांच-छह वर्षों में भले इतनी बड़ी संख्या में राजद्रोह के मामले दर्ज हुए लेकिन केवल 7 मामलों ही 12 दोषियों को सजा हो पाई। औसतन हर साल एक मामला और दो दोषी।
इन आंकड़ों में हैरानी यह भी है कि जिन 548 की गिरफ्तारी हुई है, उनमें 18 से 30 साल आयु वर्ग के आधे से अधिक यानी 53 फीसदी हैं। जाहिर है, जाने-अनजाने पोस्ट फॉरवर्ड कर या अन्य बचकाना हरकत से उकसावे का माध्यम बन गए। 35 फीसदी तो ऐसे भी ही जिनकी आयु 30 से 45 साल की है।
सौ साल बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में
1860 के इस कानून के बेजा इस्तेमाल का मामला सौ साल बाद पहली बार 1962 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। केदारनाथ बनाम बिहार राज्य मामले में 20 जनवरी 1962 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला मील का पत्थर साबित हुआ। तब सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को संविधान सम्मत बताया लेकिन माना कि शब्दों-भाषणों को तभी राजद्रोह माना जा सकता, जब भीड़ को उकसाया गया हो और उससे भीड़ ने हिंसा की हो। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि नागरिकों को बोलने-लिखने का अधिकार है।
जाहिर है, राजद्रोह के दर्ज मामलों में तेजी ने बहस का मंच सजा दिया कि इसका इस्तेमाल कितना बेजा हो रहा और कितना वाजिब। ऐसे में कानून-व्यवस्था राज्य का मामला भी बनता है। ताजा सुनवाई के दौरान भी केंद्र ने एक नई गाइडलाइन की ओर इशारा किया है जिसमें निचले स्तर पर एसपी को जिम्मेदारी की वकालत की गई है।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान भले केंद्र सरकार ने पहले इस कानून को पूरी तरह जायज ठहराया
बिहार नजीर भी, रिकॉर्ड भी
जो बिहार केदारनाथ मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नजीर बना, गणतंत्र की जननी उसी बिहार की धरती का सच यह भी है कि वहां राजद्रोह के सर्वाधिक 168 मामले हैं। बिहार में नीतीश कुमार के रब हैं तो भाजपा के राम। ऐसे में धार्मिक चश्मे से भी कार्यवाही को आंका नहीं जा सकता।
मिश्रित गठबंधन वाले राज्य का कड़वा सच है कि वहां राजद्रोह के मामले। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों पर यदि गौर फरमाएं तो जहां बिहार में सर्वाधिक मामले हैं, वहीं असम में 2018 से 20 के बीच सर्वाधिक 56 गिरफ्तारी। यह उस असम का सच है, जहां से अब अफस्पा जैसे कानून पूरी तरह खत्म करने की कोशिशें परवान चढ़ने वाली है। विकास और शांति की मुख्य धारा से असम पूरी तरह जुड़ने को तैयार है। जिस असम में शांति और विकास की बयार बहने लगी है, उसी असम में राजद्रोह के मामले और गिरफ्तारी भी।
पिछले दो साल की अवधि में गिरफ्तारी के नाम पर कर्नाटक दूसरे पायदान पर 24, तो नगालैंड में यह संख्या 18 है। राजद्रोह कानून के बेजा इस्तेमाल को लेकर यूपी पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन यहां यह संख्या महज 17 है,जो बिहार, असम, कर्नाटक, नागालैंड से कम है। इसी तरह आंध्र प्रदेश में 15, मध्य प्रदेश में 4 और छत्तीसगढ़ में 3 गिरफ्तारी हैं। ये आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि भाजपा, कांग्रेस या अन्य दल की सरकार वाले राज्यों में भी राजद्रोह के मामले और गिरफ्तारियां हैं।
बदलाव की बयार
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान भले केंद्र सरकार ने पहले इस कानून को पूरी तरह जायज ठहराया। ना-नुकुर के बाद पुनर्विचार की बात की। अब नए सिरे से नई राह की ओर यह मामला बढ़ चला है। पुराने मामलों में राहत के लिए अदालतों का रुख करने और नए मामलों पर रोक से सुप्रीम फैसले ने फौरी राहत भी दे दी है।
अब जुलाई के तीसरे हफ्ते में सुनवाई होगी। जाहिर है, तब तक केंद्र सरकार ठोस मसौदा तैयार कर चुकी होगी। करीब डेढ़ सौ साल पुराने अंग्रेजों के इस कानून में अब अमृत महोत्सव की बेला में बदलाव की जो आस जगी है, उससे अमृत की बूंदें तो नजर आ ही रही है जो समाज में जहर को रोके।