राष्ट्रपति चुनाव के किस्से (Part -1) : सन 1974 में राष्ट्रपति पद के लिए नाम चला तो जयप्रकाश नारायण ने कहा "यह मेरा अपमान है"
पद और पार्टी वाली राजनीति से दूर रहे जेपी
सुरेंद्र किशोर |
साल 1974 में जब समाजवादी नेता राज नारायण (Raj Narain) ने राष्ट्रपति पद (Presidential Candidate) के लिए जयप्रकाश नारायण (Jayaprakash Narayan) का नाम चलाया तो जेपी ने कहा, 'मैं नहीं जानता कि हितैषी मित्र भी मुझे अपमानित करने पर क्यों तुल जाया करते हैं. कभी मैं राष्ट्रपति बनने लगता हूं, कभी सब विरोधी दलों का नेता होने लगता हूं.' बाद में राजनारायण ने सफाई देते हुए कहा कि 'एक अख़बार ने मेरे बयान को तोड़ मरोड़ कर छापा जिससे जयप्रकाश जी दुखी हुए.' जेपी ने 11 अप्रैल, 1974 को एक बयान जारी कर कहा कि "पद और पार्टी वाली राजनीति तथा व्यापक अर्थवाली राजनीति में अंतर करने का मेरा यह पहला प्रयास नहीं है. साल 1954 में जिस दिन मैंने पार्टी और सत्ता की राजनीति से आजीवन निर्लिप्त रहने की घोषणा की थी, उसी दिन मैंने यह स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में मेरा कर्ममय सहयोग जारी रहेगा. इसे छोड़ देने का मेरा कोई इरादा नहीं है."
उन्हें बार-बार सक्रिय राजनीति या सत्ता की राजनीति में घसीटने की कोशिश से क्षुब्ध जेपी ने अपने बयान में लिखा कि 'दिखता है कि जो पार्टी और सत्ता राजनीति में डूबे हुए हैं, वे केवल पार्टी, सत्ता, पद और चुनाव की ही भाषा समझते हैं. वे यह समझने में सर्वथा असमर्थ प्रतीत होते हैं कि इस सब के बाहर भी खड़े होकर कोई व्यक्ति अपने राष्ट्र की और जनता की सेवा कर सकता है और पदों को ललचाई निगाह से न देखने में ही कृत्य-कृत्य अनुभव कर सकता है."
पद और पार्टी वाली राजनीति से दूर रहे जेपी
जयप्रकाश नारायण ने कहा कि "आशा करता हूं कि मेरे मित्र और शत्रु दोनों ही अटकलें लगाना और उम्मीदें रखना हमेशा के लिए छोड़ देंगे कि मैं कितना ही बड़ा क्यों न हो जाऊं, कोई भी पद पाने को या सत्ता और पार्टी की राजनीति में फिर से घुसने को उत्सुक होऊंगा या राजी किया जा सकूंगा. पद और पार्टी की राजनीति करने वाले यह समझने में भी असमर्थ जान पड़ते हैं कि पद और पार्टी की राजनीति की अपेक्षा विशालतर और व्यापकतर अर्थ रखने वाली भी एक राजनीति होती है. इस राजनीति से बाहर रहना आधुनिक समाजों के किसी नागरिक के वश की बात नहीं है. क्योंकि उसकी रोजी-रोटी तक आज एक राजनीतिक मामला बन गई है."
जेपी के इस बयान को तब एक साप्ताहिक पत्रिका ने प्रकाशित किया था. जेपी के इस बयान के बाद राज नारायण तुरंत बचाव की मुद्रा में आ गए.नउस पत्रिका को राज नारायण ने लिखा कि "आपने मेरे संबंध में संभवतः जयप्रकाश जी का जो बयान छापा है, उसके बारे में मैं अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहता हूं. लखनऊ में मैं एक पत्रकार सम्मेलन में बोल रहा था. एक संवाददाता ने जय प्रकाश नारायण के राष्ट्रपति बनने के संबंध में मुझसे अनेक प्रश्न किए. मैंने उनको यह स्पष्ट कहा कि जयप्रकाश नारायण जी राष्ट्रपति नहीं बनना चाहते. जब वह स्वतः राष्ट्रपति बनना नहीं चाहेंगे तो फिर उनके नाम को राष्ट्रपति पद के लिए बार-बार घसीटना उचित नहीं है."
राजनारायण ने यह भी लिखा कि "पत्रकार ने मुझसे पूछा कि आप उनको बनाना चाहते हैं कि नहीं? तब मैंने कहा कि यदि मेरे बनाने की बात होती और मेरी चाह मूर्तिमान स्वरूप ग्रहण करती तो मैं उनको बहुत पहले बना चुका होता. इस संबंध में वी.वी. गिरि से 1969 में हुई अपनी बातचीत का ब्योरा राजनारायण ने दिया. उन्होंने लिखा कि मैंने श्री वी.वी. गिरि को धनबाद से 12 बजे रात में टेलीफोन किया. उनसे कहा कि विरोधी पक्ष के लोग जयप्रकाश जी को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना चाहते हैं. यदि जयप्रकाश जी से उसकी स्वीकृति मिल जाए तो क्या आप उनके पक्ष में बैठ जाएंगे? उसके जवाब में वी.वी. गिरि ने मुझसे कहा कि अगर ब्रह्मा भी पृथ्वी पर उतर आएं और मुझसे कहें तो भी मैं अपना नाम वापस नहीं लूंगा."
नेहरू ने भी की थी कोशिश
राज नारायण ने लिखा कि जब जयप्रकाश जी राष्ट्रपति बनने के लिए तैयार नहीं हैं तो मेरे लिए उनका नाम प्रस्तावित करने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता. याद रहे कि जयप्रकाश नारायण तथा अन्य समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी ने 1952 में आम चुनाव लड़ा था. लेकिन खुद जेपी चुनाव में उम्मीदवार नहीं बने थे. वे कभी चुनाव नहीं लड़े. बाद में यानि पचास के दशक में तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी उन्हें सत्ता में भागीदार बनाने की कोशिश की थी. पर वह कोशिश भी सफल नहीं हो सकी
इस संबंध में जयप्रकाश नारायण ने 19 मार्च 1953 को अपने बयान में कहा था कि "एक लम्बे समय से जवाहर लाल जी मुझसे मिलना चाहते थे. हम मिले. बातचीत से पता चला कि हमारे बीच सहमति का क्षेत्र काफी व्यापक है. इन वार्ताओं के दौरान प्रधानमंत्री ने हमारे सहयोग की इच्छा प्रकट की और स्पष्ट किया कि इसका मतलब सरकार और जनता दोनों स्तरों पर सहयोग है. पहले की तरह अब भी व्यक्तिगत तौर पर मैं सोचता हूं कि अगर दोनों तरफ हार्दिक इच्छा हो और समस्याओं के प्रति समान नजरिया हो तो राष्ट्रीय हित का तकाजा है कि संयुक्त प्रयास किए जाएं." इस पृष्ठभूमि में जेपी ने व्यापक जनहित से संबंधित प्रधानमंत्री के समक्ष अपनी 14 सूत्री मांग पेश कर दी. नेहरू ने उसे मानने से इनकार कर दिया. और इस तरह कोई आपसी सहयोग नहीं हो सका.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)