मौत के 'आवारापन' के आंकड़े
किसी भी महामारी में सबसे बड़ा डर मौत का ही होता है।
आदित्य चोपड़ा | किसी भी महामारी में सबसे बड़ा डर मौत का ही होता है। सरकारों की सारी शक्ति इसी मौत की विभीषिका को कम करने की होती है जिसे वे चिकित्सा तन्त्र को जागृत करके करती हैं। इन प्रयासों के बावजूद महामारी अपनी 'चुंगी' वसूल करके ही छोड़ती है। हमने कोरोना महामारी के दौरान देखा कि इसकी पहली लहर में किस प्रकार अमेरिका जैसे विकसित और अमीर देश में लाखों लोग असमय ही काल के ग्रास बने। मगर इस महामारी की दूसरी लहर ने जिस प्रकार भारत के गांवों में अपने पैर पसारे उससे देश का पूरा चिकित्सा तन्त्र उधड़ सा गया और लोग शहरों में जहां एक तरफ आक्सीजन की कमी से मरने लगे वहीं दूसरी तरफ गांवों में उन्हें आक्सीजन देने की नौबत आने से पहले ही महामारी ने निगलना शुरू कर दिया। इसकी एक वजह साफ थी कि कुछ गिने-चुने राज्यों को छोड़ कर शेष पूरे भारत का चिकित्सा तन्त्र जर्जर ही नहीं बल्कि स्वयं 'मृत्यु शैया' पर लेटा हुआ सा था। विशेषकर बिहार व उत्तर प्रदेश, गुजरात व अन्य उत्तरी राज्यों में । अतः कोरोना की दूसरी लहर ने जब अपना कहर बिखेरना शुरू किया तो राज्य सरकारों के हाथ-पैर फूलने लगे और स्वयं को समर्थ दिखाने के उपक्रम में इन सरकारों के कारिन्दों ने महामारी से मरे लोगों की मृत्युओं को अन्य खातों में जमा करना शुरू कर िदया। भारतीय मीडिया से लेकर विदेशी मीडिया चिल्लाता रहा कि कोरोना से मौतों का सिलसिला भारत के हर श्मशान घाट से लेकर कब्रिस्तान तक को शवों की लम्बी-लम्बी लाइनों से डरा रहा है और अंतिम संस्कार करने के लिए परिजन तक नहीं आ पा रहे हैं। हार-थक कर लोग शवों को नदियों में बहा रहे हैं या रेत में दबा रहे हैं। मृत्यु संस्कार के लिए श्मशान घाटों की सीमाएं बढ़ाई जा रही हैं और कब्रिस्तान नई जगह खोज रहे हैं। हालत यह है कि हर आदमी अपना टेलीफोन सुनने से घबरा रहा है कि न जाने किस प्रियजन की मृत्यु की खबर सुनने को मिले। हर दरवाजे पर कोरोना की दहशत इस तरह पसरी हुई है कि आदमी अपने पड़ोसी तक से बात करने से डर रहा है। यह माहौल ही हमें इशारा करता था कि "मौत आवारा होकर जश्न मनाने को बेताब हो रही है''।