विजयी हुआ वसंत : फागुन में पुनर्नवा होती है प्रकृति, आइए स्वागत करें

आंसू ढरक गए/बिनु कहे/बिन बात। ऋतुराज आए।

Update: 2022-03-18 01:49 GMT

फागुन में पुनर्नवा होती है प्रकृति। सिकुड़ी-सिमटी ठिठुरी पृथ्वी सिहर-सिहर कर अपने सारे पीत-शुष्क पत्र तन से विलग कर देती है। स्वयं के प्रति इतना निर्मम कोई होता है क्या! बूढ़े बाबा सम बड़, पाकड़, पीपल अपनी हरियाली तज धरित्री के पास उसी रंग में आ मिलते हैं। कंकाल से खड़े वृक्ष उदासी का वातावरण सृजित करते हैं। पर यह सब चर्या भी भंगुर है, अनावृत खड़ा विटप हेमंत में निराश कब होता है?

कोंपलें, पत्ते, टहनियां फिर-फिर आने लगती हैं। गुलाबी ललछौंहे शिशु-सी। कवि गा उठता है-हेमंती ठिठुरन पर देखो/विजयी हुआ वसंत। कोंपलें, पत्ते, रंग-बिरंगे फूल, तितलियां और गुंजार करते भ्रमर, आम्र मंजरियों से गमकती फिजां। ऐसे में खेत-खलिहान कहां पीछे रहते हैं। मटर, तीसी, चना, गेहूं घर आ जाते हैं। धरती की कोख हरी-भरी से अब तो स्वर्णाभ हो उठती है।
शनैः-शनैः फागुन अपनी पूरी इयत्ता के साथ समक्ष खड़ा होता है। बाहर नौकरी या मजदूरी करने वाले पुरुष को भी गांव-घर खींचता है। गृहिणी प्रतीक्षारत है-पहु परदेस गेल/पोखरि खुनाय गेल/रोपि गेल नेमुआ अनार/नेमुआ जे फरलै, मधुर रस बहलै/कतेक दिन राखबै जोगाय। पुकार मन से तन तक आ जाती है। अक्सर किसी न किसी विवशता के कारण कुछ लोग नहीं आ पाते, उनके घर उदासी रहती है।
रासायनिक रंग-अबीर के पहले लोग फूल-पत्तियों के रंग बनाते थे। सो फगुआ में काम बढ़ जाता था। गृहिणियां भांति-भांति के पुए-पकवान तैयार करती रहतीं-धीमी आंच पर सीझने वाले पुए। पर युवा होते लड़के कहां मानते थे। युवक-अधवयसु-सबकी भाभी चौके में मिल जातीं। खाने-पीने की सामग्री सतरंगी हो उठती। फिर मच जाता हुड़दंग। महिलाओं का दल असावधान न होता।
रंग घोलकर रखा होता, तब क्या बरसाने की लट्ठमार होली होती। जो हमारे बिहार की सीमंतिनी माताओं और बहनों की बाल्टी, लोटा, देगची पटक लाल, पीली, हरी, नीली होली कहर ढाती। सदा की कड़क वृद्धा दादी, जो कोने में बैठकर लुत्फ ले रही होतीं, वह समापन करने आ जातीं- 'हो गई होली, अब बंद करो यह सब और जाओ, नहा-धोकर नए कपड़े पहनो।'
धीरे-धीरे बांस की पिचकारी ने पीतल, तांबे से होते हुए प्लास्टिक का रूप धर लिया। पर क्या इधर के दो वर्षों में कोयल की उदास पुकार चीख में न बदल गई? कहां गए होली के वे रंग और ऑर्गेनिक अबीर! लोग वसंत में सहम गए। फूल खिले और झड़ गए, कोंपलें निकलीं, पत्तियां उमगीं, पूरी की पूरी वनस्थली ने अपने रूप बदले, पर नयन जुड़ा पाने वाले कहीं न थे।
होली का सबसे सुंदर भाग है-फाग गाना। ग्रामीण इलाकों में वसंत पंचमी के दिन से फाग गाने की सुंदर परंपरा है। खेत में सरसों पीला, राई सफेद मुकुट पहन कर तैयार हो जाता है। तीसी का नीला फूल मनमोहक हो जाता है और संध्या काल गाय-बैलों को सानी-पानी देकर लोग अब भी ढोलक पर थाप देते हैं। मालूम हो कि ट्रैक्टर के आने के बाद भी गावों में बैल बरकरार हैं।
फाग के असली नायक यमुना तट के कान्हा हैं। वे ही अब भी राधा तथा गोपियों को भांति-भांति से पिचकारी मारते हैं। सो कृष्ण सर्वव्यापक हैं होलियारा के रूप में। फिर दूसरे नायक हैं शिव। वे भांग पीने-पिलाने के लिए जाने जाते हैं। अवधूत शिव और उसके गणों की होली नायाब होती है। गाने वाले अक्सर स्वांग बनाते हैं। आखिरी होली तो मिथिला के दामाद राम की ही होती है।
अगहन में विवाह हुआ, दुल्हे राजा फागुन तक ससुरवास में रहे। पूरे वसंत नगरवासियों के हत्थे चढ़ते रहे। खैर, वे लोग चैत चढ़ने से पहले कूच कर गए, लेकिन ससुराल के लोग भूल नहीं पाए राम सहित अपने चारों दामाद को। सो हर साल फाग गाते हैं-सरयू तट होली खेले रघुवीर। कनक भवन में होली है रे रसिया। फाग की धुन जीवन में आई उदासी को धो-पोंछ कर रंगमय कर जाती है।
फागुन में हम निर्बंध होते हैं, मुक्त होते हैं, रागमय होते हैं अर्थात हम रस से भरे होते हैं। मन बावरा रहता है, तन अब अधिक देर तक रस संभाल नहीं पा रहा है। तभी फाग का यह आखिरी गीत होता है-कतेक दिन राखबै जोगाय अर्थात कब तक आखिर रसभंग न होगा? आंसू ढरक गए/बिनु कहे/बिन बात। ऋतुराज आए।

सोर्स: अमर उजाला

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