महाराष्ट्र में उपजे कुछ सबक

महाराष्ट्र की रोमांचक सियासी पटकथा अपनी गति को प्राप्त हो चुकी है

Update: 2022-07-02 16:39 GMT

महाराष्ट्र की रोमांचक सियासी पटकथा अपनी गति को प्राप्त हो चुकी है, पर इससे उपजे यक्ष प्रश्न हिन्दुस्तानी राजनीति, राजनीतिज्ञों और उनमें रुचि रखने वालों को लंबे समय तक उलझाए रखेंगे। क्या विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी से जूझने का दमखम है? क्या 2024 में इस तरह बिखरा हुआ विपक्ष कोई कमाल कर पाएगा? क्या इन सरकारों का असामयिक क्षरण उन मतदाताओं की आशाओं पर कुठाराघात नहीं है, जो भगवा गठबंधन की हुकूमत नहीं चाहते?

पहले प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए कर्नाटक से बात शुरू करते हैं। वहां मई 2018 के विधानसभा चुनाव में किसी को बहुमत हासिल नहीं हुआ था। भारतीय जनता पार्टी सबसे बडे़ दल के तौर पर उभरी जरूर, लेकिन जनता दल (सेक्युलर) और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बना ली थी। कांग्रेस के पास अधिक विधायक थे, फिर भी उसने एच डी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाना मंजूर किया। उस समय तमाम विश्लेषकों ने माना था कि मोदी और शाह की आंधी रोकने के लिए ऐसी कुर्बानी जरूरी है। यह अवधारणा सही साबित होती, अगर खिचड़ी सरकार पांच साल काम कर जन-कल्याण के नए रिकॉर्ड रचती, पर ऐसा नहीं हुआ। वहां जल्द आपसी झगड़ों और मंत्रियों के भ्रष्टाचार की खबरें हवा में फैलने लगीं। कांगेे्रस के वरिष्ठ नेता कभी मुख्यमंत्री पर सीधा हमला बोलते, तो कुमारस्वामी भी पलटकर जहर उगलते। बस्ती बसने से पहले उजड़ने के आसार साफ थे। सरकार भरोसा बनाने और बचाने में नाकाम साबित हो रही थी। नतीजतन, गठबंधन का राज सिर्फ 14 महीने चार दिन बाद इतिहास के गर्त में समा गया और भाजपा ने जो गढ़ गंवाया था, वह उसे हासिल हो गया।
बाद में मध्य प्रदेश और अब महाराष्ट्र में यही कहानी दोहराई गई है।
यह क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों से विपक्ष के समझौते अल्पजीवी होते हैं और एनडीए के दीर्घजीवी? बिहार के सफल प्रयोग के बाद महाराष्ट्र में अपने से छोटी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा यही तो साबित करने की कोशिश कर रही है। शायद आपके मन में आ रहा हो कि अगर शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाना था, तो 31 महीने पहले उद्धव ठाकरे से टकराव की क्या जरूरत थी? यहां एक फर्क समझना जरूरी है। मातोश्री का उत्तराधिकारी होने के नाते शिंदे के मुकाबले ठाकरे मजबूत साबित होते। वह यकीनन सियासी 'भाऊ' का दर्जा दोबारा हासिल करने की कोशिश करते। इसके उलट शिंदे को यह पुरस्कार अपनी पार्टी तोड़ने की एवज में मिला है। अगर वह असफल साबित होते हैं, तब भी भाजपा को नुकसान नहीं, फायदा होगा। एक मजबूत शिवसेना की जगह उसके दो धड़े राजनीतिक तौर पर कभी बड़ी चुनौती नहीं बन सकेंगे।
हालांकि, भाजपा आलाकमान द्वारा अचानक देवेंद्र फडणवीस पर उप-मुख्यमंत्री पद का दबाव बनाना अचंभित और आशंकित करता है। अगर महाराष्ट्र का यह प्रयोग सफल रहा, तो खुद को आने वाले दिनों में कुछ नए सियासी करतबों के लिए तैयार रखिए।
अक्सर विपक्ष आरोप लगाता है कि सरकार केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कर सत्ता हथिया लेती है। इन एजेंसियों का सियासी इस्तेमाल तो पहले भी होता रहा है। सवाल उठता है कि सत्ता का ऐसा दुरुपयोग क्यों किया जाता रहा है? दरअसल, जिन लोगों के हाथ काले हैं, उन्हें अपने दाग छिपाने के लिए कोई न कोई सहारा ढूंढ़ना पड़ता है। यही वजह है कि राजनीति को उद्योग मानने वाले लोग आवश्यकतानुसार पार्टियां बदल लेते हैं। कुछ पार्टियां तो टिकट देने के लिए भी 'चंदा' अथवा 'सहयोग' लेती हैं। जो लोग बड़ी मात्रा में धनराशि खर्च करके यहां पहुंचते हैं, उन्हें अपने 'इनवेस्टमेंट' की सुरक्षा के लिए सत्ता की जरूरत पड़ती है। ऐसे लोग भय या प्रलोभन का पहला शिकार बनते हैं।
यही नहीं, अधिकांश क्षेत्रीय दलों की कमान कुछ खानदानों के हाथ में है। ये लोग अपनी पार्टियों को सियासी दल के मुकाबले निजी स्वामित्व वाली कंपनी के तौर पर आंकते हैं। दिक्कत तब होती है, जब किसी जुझारू नेता की दूसरी अथवा तीसरी पीढ़ी कमान संभालती है। पार्टी का पुराना काडर उनकी नई रीति-नीति को स्वीकार करने में हिचकता है और फिर अनबन शुरू हो जाती है। शिवसेना इसका नवीनतम उदाहरण है।
अब आते हैं दूसरे प्रश्न पर कि क्या 2024 में बिखरा हुआ विपक्ष कोई कमाल कर पाएगा? यह सच है कि ऊपरी तौर पर भारत के तमाम राज्य तथाकथित विपक्ष द्वारा संचालित हैं। इनमें द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम को छोड़ दें, तो केरल से लेकर पंजाब तक ऐसे तमाम दल हैं, जो मुख्य विपक्षी पार्टी, यानी कांग्रेस से टकराते हैं। दक्षिण में केरल, आंध्र और तेलंगाना में गैर-भाजपा सरकारें हैं। वे अगर भाजपा को नहीं चाहतीं, तो कांग्रेस को भी न पनपने देने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी भी इसी रास्ते पर चल रही है। ऐसा नहीं है कि इन्हें एक छाते के नीचे लाने की कोशिश नहीं की गई। पिछले दिनों राष्ट्रपति प्रत्याशी के लिए होने वाली कवायद को याद कर देखिए। पहल करने वालों को उम्मीद थी कि यशवंत सिन्हा के पीछे समूचे गैर-एनडीए दल खडे़ होंगे। ऐसा नहीं हुआ और अब सिन्हा एक सांकेतिक लड़ाई लड़ते दिखाई पड़ रहे हैं।
रही बात मतदाता की, तो वह इन पुराने और नए गठबंधनों का हश्र देखकर समझ गया है कि दलों का यह दलदल उसकी चाहतों की मंजिल नहीं बन सकता। वह एक मजबूत सरकार चाहता है और भाजपा नीत गठबंधन तमाम वजहों से ऐसा साबित करने में सफल रहा है। असम, मणिपुर और गोवा इसके उदाहरण हैं। वहां कांग्रेस या अपनी क्षेत्रीय पार्टियों से नाता तोड़ने वाले तथाकथित दलबदलू दोबारा चुन लिए गए। अगर महाराष्ट्र की बात करें, तो अभी तक प्राप्त संकेतों के अनुसार महाविकास अघाड़ी नगर-निकाय के चुनाव मिलकर लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है। यह चुनाव गठबंधनों की राजनीति की दशा-दिशा का एक बार फिर खुलासा करेगा। बशर्ते गठजोड़ तब तक कायम रह सके।
अब आते हैं आखिरी सवाल पर कि क्या यह उन लोगों की आकांक्षाओं की हत्या नहीं है, जो गैर-एनडीए सरकार चाहते हैं? अगर पिछले लोकसभा चुनावों को देखें, तो भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को लगभग 45 फीसदी मत मिले। इसका एक अर्थ यह भी है कि 55 प्रतिशत लोग इस गठबंधन के खिलाफ थे। यही वह मुकाम है, जहां तमाम आशावादी मान बैठते हैं कि कोई चमत्कार होगा और सत्तारूढ़ गठबंधन के विपक्ष में पड़ने वाले मत एकजुट हो सकेंगे। अतीत में दो बार ऐसा हुआ है और आगे इसे दोहराए जाने के लिए जय प्रकाश नारायण या विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह के किसी शख्स की जरूरत है। क्या फिलवक्त आपको ऐसी कोई सियासी विभूति दिखाई पड़ती है? इस सवाल का उत्तर ढूंढ़ते वक्त एक बात ध्यान रखिए, 18वीं लोकसभा के मतदान में अब महज 20-21 महीने का वक्त रह बचा है। चुनावों की गरमी अगले वर्ष शुरू हो जाएगी। इतने कम वक्त में किसी चमत्कार की उम्मीद करना कितना सार्थक होगा? आप चाहें, तो इस सवाल में ही जवाब ढूंढ़ सकते हैं।
Twitter Handle: @shekharkahin
शशि शेखर के फेसबुक पेज से जुड़ें
shashi.shekhar@livehindustan.com


Similar News

-->