नरम हिंदुत्व हारा, गरम हिंदुत्व जीता : सियासी बिसात पर शिवसेना के सामने पहचान का संकट, भाजपा

इसीलिए महाराष्ट्र में ‘नरम हिंदुत्व’ हारा और ‘गरम हिंदुत्व’ जीता।

Update: 2022-07-02 01:54 GMT

पता नहीं किसने कहा, लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता-पलट को लेकर किसी ने यह अवश्य कहा कि यह सब बाबा 'भोले की कृपा' है कि चालीसा के दिनों में चालीस इधर आ गए! आप लाख कोसें कि महाविकास आघाड़ी सरकार को भाजपा ने साजिश रचकर गिराया। पहले ईडी, सीबीआई से डराया। जो डर गए, वे सरकार के विरोध में आ गए और भाजपा ने सरकार तोड़कर अपना पिट्ठू सीएम बिठा दिया और खुद डिप्टी सीएम लेकर अपनी उदारता का पाखंड रच रही है... लेकिन जो हुआ उसे एक दिन तो होना था!

हमारा मानना है कि उद्धव सरकार को भाजपा ने नहीं गिराया, गिराया तो बाला साहब के 'हिंदुत्व के विचार की वापसी' ने गिराया। शिंदे ने बार-बार कहा कि हम सरकार में बाला साहब ठाकरे के हिंदुत्व की बहाली चाहते हैं, जिसे उद्धव ने बिसरा दिया है और जिसकी वजह से शिवसेना की पहचान संकट में है, उसके हिंदुत्व का विचार संकट में है। वह भी कांग्रेस-एनसीपी जैसी बनी जा रही है। इस कारण जमीनी शिवसेना कार्यकर्ता परेशान हैं। विधायक परेशान हैं कि अब क्या मुंह लेकर जनता के बीच जाएं?
शिंदे के समर्थकों ने तो उद्धव को संकेत भी दिया था कि सर जी, नीचे आग लगी है, कुछ करिए! साफ है, महाराष्ट्र में जितनी कुर्सी की लड़ाई दिखती है, उससे अधिक वह एक विचारधारात्मक लड़ाई भी रही है, जिसके केंद्र में बाला साहब वाला 'हिंदुत्ववाद' है और अब उसी ने पलटकर उद्धव को हराया और हटाया है। इसीलिए शिंदे का बार-बार यही कहना रहा कि उद्धव महाविकास आघाड़ी को छोड़ें और भाजपा से मिलकर सरकार बनाएं, क्योंकि दोनों ही 'हिंदुत्ववादी' पार्टी हैं, क्योंकि दोनों का 'गोत्र' और 'डीएनए' एक है।
बाला साहब के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि हिंदुत्व का पहला खुला और उग्रतापूर्ण दावा यदि किसी ने किया, तो बाला साहब ठाकरे ने ही किया। शिवसेना इसी हिंदुत्व के एक्शन का 'ब्रांड प्रोडक्ट' थी। बाला साहब वीर सावरकर के जीवन और उनके हिंदुत्ववादी विचार से खास प्रेरित थे, साथ ही वह शिवाजी महाराज को अपना आदर्श मानते थे और शिवाजी वाली 'हिंदू पद पादशाही' की बहाली के सपने देखते थे और हिंदुत्व को लेकर उनके यहां कोई 'लाग लपेट' या 'किंतु-परंतु नहीं था।
उनका 'हिंदुत्व' सीधा और दो टूक 'हिंदुत्व' था, जिसके आगे कई बार संघ और भाजपा तक श्रीहीन से दिखा करते थे। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान की टीम दिल्ली में मैच खेलने वाली है कि आदेश होता है कि 'पिच' खोद दो और शिवसेना कार्यकर्ता रातोंरात पिच खोद देते हैं। बाद में कांय-कांय होती है, तो होती रहे। बेधड़क बाला साहब स्वयं एक डर का नाम थे और उनका डर ही रूल करता था। शिवसेना उस डर और वैसे एक्शन का प्रतीक थी। महाराष्ट्र में सरकार किसी दल की भी रहती, लेकिन जमीन पर हुकुम बाला साहब ठाकरे का ही चलता और उनके कार्यकर्ताओं का 'एक्शन' चलता।
जब तक वह रहे, तब तक वही रहे। ऐसे 'जल्लोजलाल' वाला संगठन अगर एक दिन कांग्रेस-एनसीपी की गोद का पालतू बन जाए और जिसका नेता कांग्रेस-एनसीपी के नेताओं से सलाह मांगता दिखे - यह अपनी हिंदुत्ववादी पहचान पर इतराने वाले आम शिवसैनिक के लिए कोई गर्व की बात नहीं रही होगी। सच तो यह है कि यह शिवसेना के 'सैन्यत्व' का पतन था, क्योंकि जिस 'काडर' का गली-गली हुकुम चलता था, वह अब हर कदम पर 'किंतु-परंतु' करता दिखता था, बल्कि उन पर वार करता दिखता था, जो गरम हिंदुत्व के नए पदातिक बन रहे थे, जैसे कि कंगना या राणा!

संयुक्त सरकारें अक्सर एक समान विचार वालों से बना करती हैं। एकदम विपरीत विचार एक साथ आते हैं, तो कभी सहज नहीं रह सकते। वे तो टकराते ही हैं और संकट बुलाते ही हैं। यही हुआ शिवसैनिकों में। जो एक-एक इंच जमीन 'हिंदू हृदय सम्राट' के नाम पर जीती थी, वही खतरे में आने लगी। शिवसेना की पहचान ही बदरंग होने लगी। यही सबसे बुनियादी कारण रहा कि शिंदे और उन जैसे अन्य शिवसेना विधायक बाला साहब के 'मूल हिंदुत्व' की वापसी का दावा करने लगे, जबकि उद्धव इसे सिर्फ कुर्सी की लड़ाई ही समझते रहे।

विद्रोही विधायक जान गए कि इस 'आघाड़ी' सरकार के चक्कर में शिवसेना की हिंदुत्ववादी पहचान ही खत्म हुई जा रही है। स्पर्धात्मक जनतंत्र में अगर एक बार आपकी पहचान में पानी मिलता है, तो पब्लिक के लिए आप अपने को बेपहचान हुआ समझते हैं। उद्धव शिवसेना की पहचान के इस गंभीर नुकसान को समझ न पाए। वह 'संयुक्त मोर्चा सरकार' चलाने की उस 'कुटिल नीति' यानी 'यूनिटी स्ट्रगल यूनिटी' की नीति से अनभिज्ञ ही रहे, जो कहती है कि 'दूसरों की कीमत पर अपनी पहचान आगे बढ़ाओ, अपनी कीमत पर दूसरों को न बढ़ने दो।'

रही कसर उनके 'नरम हिंदुत्व' के अवतार ने पूरी कर दी। भाजपा के 'हिंदुत्व' को लेकर चलती रोजमर्रा की मीडिया बहसों में कथित सेक्यूलर बुद्धिजीवी वर्ग हिंदुओं को यह कहकर फुसलाता रहा कि 'हिंदुत्व' का 'नरम अवतार' ही भारत की जान है। अच्छा हिंदुत्व वह है जो सहनशील हो। अच्छा हिंदू वह जो एक गाल पर कोई तमाचा मारे, तो दूसरा भी आगे कर दे। उद्धव शायद इसी छलावे में आ गए और कांग्रेसी-एनसीपी द्वारा 'नरम हिंदुत्व' की की जाती नकली प्रशंसा और कुर्सी के सुख के शिकार हो गए और यह भी भूल गए कि जब तक संघ-भाजपा का अखिल भारतीय 'गरम हिंदुत्व' का ब्रांड मार्केट में है, तब तक नरम हिंदुत्व केब्रांड की 'सेल' भी नहीं चल सकती।

सुशांत का मुद्दा हो या कंगना का मुद्दा या कि सांसद राणा का मुद्दा या फिर ज्ञानवापी का मुद्दा- हर मुद्दे पर शिवसेना के प्रवक्ता 'गरम हिंदुत्व' की लाइन के विपरीत और निरा कड़वा ही बोले। जिन दिनों हिंदुत्ववादी विचार और कट्टर इस्लामवादी विचार आमने-सामने नित्य टकराते हों और समाज तेजी से ध्रुवीकरण की ओर जा रहा हो, उन दिनों भाजपा के हिंदुत्ववाद को टारगेट करना शिवसेना को ही जबावदेह बनाता चला गया। एक हिंदुत्ववादी काडर वाली बाला साहब ठाकरे के नाम से जानी जाने वाली पार्टी के 'हिंदुत्व' में नित्य पानी मिलाना, बाला साहब को मानने वाले काडर को कब तक सहनीय होता? इसीलिए महाराष्ट्र में 'नरम हिंदुत्व' हारा और 'गरम हिंदुत्व' जीता।

सोर्स: अमर उजाला


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