समाजवाद फिर सिर उठा रहा है। सातवें दशक की सरकारों ने भरसक प्रयत्न किया था कि देश में समाजवाद आ जाए, परंतु पता नहीं कैसे नहीं आया। अब सरकारें तो किसी अच्छे काम के लिए प्रयत्न ही कर सकती हैं। कुछ समाजवाद की भी गलती है कि यह हमारे देश में जाने क्यों आना ही नहीं चाहता, जबकि हमारे यहां तो समाजवादी भी हैं और समाजवादी पार्टी भी। फिर भी नए सिरे से लाने के लिए लोग पुन: सचेष्ट हो गए हैं। मुझे लगता है कि यदि इसी तरह लगे रहे तो वह दिन दूर नहीं है, जब समाजवाद हर क्षेत्र में आ ही जाएगा। समाजवाद का अर्थ अब अमीर-गरीब की खाई को पाटना भर नहीं है, अपितु हर क्षेत्र में हर नागरिक को समान रूप से कार्य करने का अधिकार मिल जाए तो यह भी समाजवाद ही है। इधर सांसद भी समाजवाद की ओर अग्रसर हो गए हैं, पहले केवल काम करने की रिश्वत सरकारी कर्मचारी ही लेता था, लेकिन अब सांसद, मंत्री और तमाम राजनेता इस ओर पूरी ईमानदारी से चेष्टा कर रहे हैं। यदि रिश्वत का सार्वजनिकीकरण हो जाता है तो यह समाजवाद ही है।
सभी को रिश्वत लेने का अवसर हाथ लग जाए और उन पर किसी तरह की कार्रवाई नहीं हो तो यह हमारे लिए समाजवाद के सन्निकट ले जाती है। भ्रष्टाचार निरोधक विभाग की प्रासंगिकता बिलकुल नहीं रही है। जांच आयोगों का हश्र हम लोग देख ही रहे हैं। रिश्वतखोर, घोटालेबाज तथा दलालों को समान दृष्टि से देखा जाना ही समाजवाद का पर्याय है। युग बदला है तो समाजवाद के मायने भी बदल गए हैं। समाजवाद अब हर कोई लाने पर उतारू है। सरकार का किसी पर कोई नियंत्रण नहीं है और सबको सभी की मेहनत का फल बराबरी से मिल रहा है। अब लोग कत्र्तव्यों को भूलकर अपने अधिकारों के प्रति इतने जागृत हो गए हैं कि समाजवाद का सा वातावरण सब ओर दिखाई देने लगा है। अब समाजवाद को कहीं से उधार लाने की आवश्यकता नहीं है, अपितु हमारी सरकारें भी सबको समान अवसर देने का संकल्प कर चुकी हैं।
मनमानी को ही लें, हर नागरिक इसे तहेदिल से अपना चुका है और मनमानी में लगभग समाजवाद पूरी तरह आ चुका है। पुलिस और चोर मिलकर एक बीड़ी फूंक रहे हैं। राजनेता बाहुबलियों को लेकर सत्तातंत्र पर हावी हैं। डॉन्स से दोस्ती रखना फख्र की बात माने जाने लगी है और वे मिल-बैठकर अपनी स्वार्थ सिद्धी में लगे हैं, यह हमारे समाजवाद का ही प्रतिफल है। जो लोग बी.पी.एल. हैं, उनके बारे में तो बात करना ही बेमानी है। ये लोग इतने ढीठ हो गए हैं कि आजादी के छह दशक बाद भी अपने आप को नहीं उठा सके हैं। इनके कारण बड़ा शर्मिन्दा होना पड़ता है। वरना सरकार ने तो गरीबी हटाओ का कार्यक्रम इतने जोरों से चला रखा है कि इसे अब तक ऊपर आ जाना ही चाहिए था। खरबों करोड़ रुपए खर्च करने से नेताओं की गरीबी तो सात पुश्तों तक के लिए मिट गई है, परंतु इन गरीबों की गरीबी अभी तक भी इनका पीछा नहीं छोड़ रही। गरीबों के लिए जितने कार्यक्रम चलाए गए हैं, मेरे विचार से उतने कार्यक्रम अन्यत्र मिलना कठिन हंै। मैं तो उनके पूरे नाम गिनाने की स्थिति में भी नहीं हूं। इसलिए इन्हें छोडक़र अन्य लोगों में समाजवाद लगभग पूरी तरह आ गया है।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal