महाराष्ट्र संग पूरा राष्ट्र कोरोना से कराह रहा, फिल्म इंडस्ट्री शांत है
यही हाल हमारी फिल्म इंडस्ट्री का है। अक्षय कुमार, अजय देवगन, सोनू सूद, सुनील शेट्टी, सलमान खान के बारे में जरूर सुना कि वे कुछ कर रहे हैं। सोनू सूद तो पिछले साल से ही लोगों की मदद में जुटे हैं, लेकिन क्या फिल्म जगत में सिर्फ वही हैं। महाराष्ट्र संग पूरा राष्ट्र कोरोना से कराह रहा है। जिस महाराष्ट्र में रहकर जिन सितारों ने नाम और दाम कमाए, मुसीबत के वक्त वे वहां के लोगों के कितने काम आए? इन बड़े-बड़े अलां-फलां की सारी सामाजिक जिम्मेदारी क्या उस रोल को करने भर से खत्म हो गईं, जो इनके लिए किसी और ने लिखा था?
नायक से साधारण लोग ही बेहतर
हरदम खुद को नायक साबित कराने वाले इन लोगों से तो वे साधारण लोग ही बेहतर हैं, जो अपने निजी प्रयासों से लोगों की मदद कर रहे हैं। कोई अपनी वेल्डिंग की दुकान से किसी बीमार को आक्सीजन पहुंचाने के लिए सिलेंडर दे रहा है। कोई कोरोना पीड़ित परिवारों को नि:शुल्क भोजन पहुंचा रहा है। बहुतों ने कहा कि अस्पताल ले जाने के लिए वे अपनी गाड़ी देने को तैयार हैं। कोई मुफ्त दवाओं का इंतजाम कर रहा है। र्धािमक संस्थाएं भी अपनी-अपनी तरह से मदद कर रही हैं। कई मंदिरों में कोविड के इलाज के लिए अस्पताल बनाए गए हैं। गुरुद्वारे न केवल खाने का, बल्कि आक्सीजन तक का इंतजाम करने में लगे हैं। पुलिस के साधारण लोग जिन्हें हमेशा खलनायक साबित किया जाता है, वे तब सहायता का हाथ बढ़ा रहे हैं, जब अपनों ने हाथ छोड़ दिया है। किसी को अस्पताल पहुंचा रहे हैं तो किसी का दाह संस्कार कर रहे हैं। लोग धर्म, जाति, संप्रदाय को भूल जैसे बन पड़ रहा है, दूसरे की मदद करने की कोशिश कर रहे हैं।
असली नायक तो आम आदमी ही होता है
वास्तव में असली नायक तो आम आदमी ही होता है। साधारण मनुष्य के सामने असली समस्याएं मुंह बाएं खड़ी रहती हैं और उसे अपनी या दूसरों की जान बचाने के लिए तत्काल फैसले लेने पड़ते हैं। सवाल है कि जिस वक्त पूरा देश कोरोना से कराह रहा है, उस वक्त हमारे रोल मॉडल कहां छिप गए? देश के सारे साधन-संपन्न अगर मिलकर ठान लें तो क्या नहीं किया जा सकता? इसमें चाहे पीड़ितों को दवा मुहैया करानी हो या आक्सीजन अथवा एंबुलेंस, लेकिन भारतीय अमीरों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने सुख-संचय से मुश्किल से ही बाहर आ पाते हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी ऐसा ही कहा था।
गरीब आफतों को झेलने के लिए मजबूर
कहा जा हा है कि ब्रिटेन में भारत से आने वाली उड़ानों का जो अंतिम समय था, उसमें भारत के आठ निजी विमान वहां पर उतरे। ये उन अमीरों के थे, जो कोरोना से बचने के लिए वहां चले गए। पिछली बार की लहर में बहुत से पहाड़ों की तरफ चले गए थे। नतीजा जहां कोरोना नहीं पहुंचा था, वहां भी पहुंच गया। कहते हैं जिस वक्त भारत का विभाजन हुआ था, उस समय दोनों तरफ के अमीर उमरांव अपना-अपना माल-असबाब समेटकर इधर से उधर और उधर से इधर आ चुके थे। उन्हें न जान का नुकसान हुआ, न माल का। मारे वे गए थे, जो गरीब थे। वे दूसरों की दी विभाजन की त्रासदी की आफतों को झेलने के लिए मजबूर थे। कोरोना के भी शायद यही सबक हैं।