स्मृति: 'मार्कंडेय भवन' और क्रांतिकारी राजकुमार सिन्हा

उनके नाम का कोई पत्थर तक शहर के किसी इलाके में नहीं है।

Update: 2022-02-04 01:46 GMT

कानपुर के माल रोड पर 'मार्कंडेय भवन' की इमारत को खोजना अब कठिन कवायद है। वे निशानात भी पूरी तरह धुंधला गए हैं, जिनके जरिये जाना जा सके कि बाबू मार्कंडेय दास के उस मकान का क्या हुआ, जिसमें उनकी पत्नी शरत कुमारी सिन्हा अपने विप्लवी हौसले से दोनों बेटों को मुक्ति-संग्राम का बड़ा योद्धा बना सकीं। कानपुर इस वीर मां को भी विस्मृत कर चुका है और उन बेटों को भी, जिन्होंने अपने रक्त से क्रांति की इबारत लिखकर इस शहर को इतिहास में जगह दी। इस मां के बेटे राजकुमार सिन्हा को काकोरी मामले में दस साल की सजा हुई थी और छोटे विजय कुमार सिन्हा को भी भगत सिंह वाले मुकदमे में काला पानी का हुक्म सुनाया जा चुका था। दोनों भाई अपनी-अपनी जेलों में भूख हड़ताल पर थे। यह जानकर एक युवा शिवकुमार मिश्र इस मां के पास पहुंचकर रोने लगे। मां ने डांटते हुए कहा, 'कैसा क्रांतिकारी है, जो रोता है? मेरी ओर देख। मैं दो बाघों की मां हूं। मेरे बेटे जेल में अनशन पर हैं। फिर भी मैं खुश हूं।' कभी देश के विप्लवियों का केंद्र और आश्रयस्थल रहे इस घर की, जो अब दफन हो चुका है, मिट्टी को स्पर्श करना मेरी ख्वाहिश था।

राजू दा की बहन सुशीला घोष की क्रांतिकारी संग्राम में भागीदारी को भी आज कौन जानता है! लाहौर केस की फांसियों के बाद 'भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव मेमोरियल फंड में आर्थिक श्रद्धांजलि दीजिए' शीर्षक से सुशीला जी ने देशवासियों के नाम एक मार्मिक अपील निकाली थी, जिसमें उनका पता एमडी सिन्हा भवन, माल रोड, कानपुर छपा था। बाद में जब राजकुमार और उनके तीन साथी बरेली के केंद्रीय कारागार में अनशन पर थे, तब इस बहन का जीवट फिर देखने को मिला था। चार-पांच वर्ष पूर्व मेरे पास अमेरिका से राजू दा की पुत्री का फोन आया। फिर बर्लिन से प्रदीप घोष ने, जो सुशीला घोष के बेटे हैं, ई-मेल के जरिये संपर्क किया। मैंने उन्हें बरेली और आगरा की केंद्रीय जेलों में राजकुमार सिन्हा के नाम पर बनवाए गए स्मृति-द्वारों के चित्र भेज दिए, पर 'मार्कंडेय दास भवन' का जमींदोज होना हमें
प्रतिपल पीड़ा देता है। कोई शहर इस कदर बदलते जाने को अभिशप्त क्यों है कि अपने इतिहास के निशानों को ही मिटता देखता रह जाए!
राजू और विजय दा की प्रारंभिक शिक्षा कानपुर के बंगाली स्कूल और क्राइस्ट चर्च कॉलेज में हुई। बाद में राजू दा विज्ञान की पढ़ाई के लिए काशी गए, तो किताबों के साथ क्रांतिकारियों का भी साथ मिला। उन्होंने दिल्ली की कांग्रेस में हिस्सेदारी की। उन्होंने बांग्ला में एक निबंध लिखा, 'राष्ट्रीय आंदोलन और छात्रों का कर्तव्य', जिसे छात्र परिषद के एक अधिवेशन में पढ़े जाने के बाद अदालत में पेश किए जाने पर राजद्रोहात्मक बताया गया। यही वह बुनियाद थी, जो फिर दरकी नहीं। काकोरी केस से उनको जोड़े जाने का आधार बनारस में उनके कमरे से बरामद चीजों को बनाया गया, जिनमें दो रायफलें, दारोगा का झब्बा और पगड़ी थी। पुलिस ने साबित करने का प्रयास किया कि इनमें से एक रायफल का इस्तेमाल मैनपुरी मामले में किया गया था। गिरफ्तारी के बाद कानपुर और लखनऊ जेल में उन्हें रखा गया तथा उन पर दबाव डाला गया कि अपना कबूलनामा पेश कर दें, पर राजू दा झुके नहीं। तभी उन्हें अपने पिता के निधन का समाचार मिला। जेल जीवन में उन्होंने रूसी, चीनी और जर्मन भाषाएं सीख लीं। बाहर आकर भी मजदूर आंदोलन और कांग्रेस में उनकी सक्रियता निरंतर बनी रही और व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया। फिर नेताजी सुभाष से प्रभावित हो वह 'फॉरवर्ड ब्लॉक' में चले गए। नेताजी जब कानपुर आए, तब राजू दा के कराचीखाना वाले मकान पर उनकी वीर मां शरत कुमारी सिन्हा के प्रति आदर व्यक्त करने पहुंचे थे। तब राजू दा और विजय दा जेलों में थे।
वर्ष 1937 में रिहाई के बाद एक बंगाली युवती प्रकृति से राजू दा का विवाह हुआ। नेताजी सुभाष कलकत्ता के उस आयोजन में उपस्थित थे। मेरे पास यही एक यादनामा बचा है, जिसे मैं सीने से चिपकाए बैठा हूं। बयालीस में पकड़े जाने पर वह चार साल नजरबंद रहे। आजादी के बाद भी राजू दा संग्रामी बने रहे। मैं बार-बार किसी बुजुर्ग कानपुरिये से यह पूछना चाहता हूं कि क्या उनकी आंखों में कराचीखाना के आसपास अपनी साइकिल पर हर रोज आते-जाते हुए राजू दा की कोई छवि है। मैं राजू दा का लिखा हुआ भी तलाश रहा हूं, जिनके कुछ अंश 1937 में सैनिक में छपे थे। रूस, चीन आदि कम्युनिस्ट देशों के प्रशंसक रहे राजू दा गरीब और शोषित जनता के आजीवन पक्षधर बने रहे और उन्होंने 'वारान्निकोव रूसी प्रशिक्षण मंदिर' की स्थापना भी की। वह एक सुमधुर गायक भी थे।
18 दिसंबर, 1972 को राजू दा के निधन के बाद उनकी पत्नी को सेन बालिका विद्यालय, कानपुर की पूर्व अध्यापिका होने के आधार पर 300 रुपये पेंशन से गुजर-बसर करनी पड़ी। मुझे नहीं पता कि प्रकृति कब तक जीवित रहीं। सुना कि उनकी आंखों के सामने ही पुत्र भास्कर सिन्हा मात्र 52 की उम्र में चल बसे थे। आजादी के बाद राजू दा की जिंदगी का पच्चीस साल का लेखा-जोखा हमें बहुत विचलित करता है। वह कभी डीएवी कॉलेज, आईआईटी, डिफेंस लैब, तो किसी समय डीआरएलएम में क्लास लेने हर मौसम में साइकिल से आते-जाते रहे और 67 की उम्र में एक दिन हमें अलविदा कह दिया। कानपुर अपने इस आजीवन विप्लवी के सम्मान में एक 'जयगान' नहीं रच सका। उनके नाम का कोई पत्थर तक शहर के किसी इलाके में नहीं है।

सोर्स: अमर उजाला

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